Wednesday, October 30, 2024

गज़ा के बच्चे

यज़न और यासमीन किसी और दिन की ही तरह, आम बच्चों सरीखे, मोबाईल पर साथ-साथ कुछ खेल रहे थे कि अचानक तेज धमाके के साथ बत्ती गुल हो गई। पहले तो कुछ समझ ही नही आया कि हुआ क्या? पर ऐसा कुछ हुआ था जो उन दोनों ने पहले कभी महसूस नहीं किया था और जो उनकी जिंदगी बदलने वाला था। 





धमाका इतना तेज था कि यज़न के कान गूंजनें लगे और उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया। उसे ऐसा लगा जैसे उसके चारों ओर सब कुछ हिल रहा है। जब यह सब थमा तब उसे अपने हाथ में पकड़े हुए मोबाईल की याद आई; जिसकी मदद से उसने रोशनी की। उसने देखा कि उसके घर की पक्की छत नीचे की ओर गिरी हुई है; उसके सर से महज़ एक-दो सेंटीमीटर दूर आकर रूक गई है। छत गिरने से घर की सभी चीजें उसके नीचे दब गई थीं। वो तो महज इत्तेफाक ही था कि जब यह सब हुआ वो दोनों भाई-बहन ज़मीन पर थे, तो बच गये। 


बड़ी मुश्किल से, छत पर बने एक कुछ बड़े से सुराख से वो दोनों मलबे से बाहर निकले और अपने मां-बाप को पुकारने लगे। उनकी पुकार कुछ देर बाद चिल्लाने में तब्दील हो गई। लेकिन उनके मां-बाप की तरफ से कोई जवाब नहीं आया। हां, उनकी चीख-पुकार सुनकर आस-पास कुछ और लोग इकठ्ठा हो गये। और उनके मां-बाप को ढूंढने में मदद करने लगे। लेकिन वो जिंदा नहीं मिले। वे दोनों और उनके साथ यज़न और यासमीन का बड़ा भाई, मलबे में दबकर मर चुके थे। 


अब ना ही उन दोनों के पास मां-बाप का ही कोई साया था और ना ही रहने का ठिकाना।     


उनके घर की छत का गिरना किसी कुदरती गुस्से का नतीजा नही था। बल्कि उसका कारण थी वो जंग जो पिछले कई दिनों से यज़न और यास्मीन के मुल्क में छिड़ी हुई थी। कोई कहता ये जंग एक साल से चल रही है, तो कोई सत्तर साल से, और कोई-कोई तो हज़ारों साल पुरानी बतलाता।


जंग की हकीकत जो भी हो, पर उसके कारण आज यज़न और यास्मीन लावारिश हो चुके थे। पर वो ऐसे अकेले नही हैं। दुश्मनों की तरफ से चलाई जा रहीं मिसाईलें लगातार रिहाइशी ईलाके तबाह कर रही थी और उसके साथ बर्बाद हो रही थी ना जाने कितनी ही जिंदगियां। हज़ारों बच्चों ने अपने मां-बाप खो दिये हैं और हज़ारों मां-बापों ने अपने बच्चे। और ये सब खानाबदोशों से भी बदतर जिंदगी जीने को मज़बूर हैं। धरती का एक टुकड़ा, जिसे एक पक्ष अपना देश बतलाता है तो दूसरा अपना, आज जल रहा है।   


और 12 साल के यज़न को इस बात का गुस्सा है। वो दुश्मनों से तो नाराज़ है ही, लेकिन उनसे भी खफा है जो उनके नाम पर लड़ रहे हैं। 




इन दिनों वो प्लास्टिक के तंबू में रहता है। अपने-अपने शहर छोड़कर आये उन जैसे बर्बाद हुए असंख्य लोगों ने समुद्र के किनारे एक कैंप सा बना लिया है। वो अपने देश के छोर पर पहुंच गए हैं। जहां से आगे धरती तो है, लेकिन उनका देश खत्म हो जाता है। हर रात समुद्र के किनारे बैठकर यज़न यही चिंता करता है कि अगर यहां से भी भागना पड़ा तो कहां‌ जायेंगे?  वो अपने मां-बाप, भाई और दोस्तों को भी याद करता है।


दिन भर तो उसे सोचने का मौका ही नही मिलता। खाने और पानी का जुगाड़ ही काफी सारा समय ले लेता है। उसे अक्सर ही इनके लिए लड़ना पड़ता है, उनसे जिनके हालात उसके ही जैसे हैं। कभी मिलता है और कभी नही भी। और जब मिलता भी है तो भी अक्सर ही काफी नही होता। और ये एक दिन की बात नहीं, हर रोज यह सब गुजरता है।





उसके मां-बाप जब जिंदा थे तो उसे ये सब सोचने की जरूरत नही थी। पर अब वो हैं नही और उसे अपनी छोटी बहन का भी तो ख्याल रखना है। दिन भर की जूझ के चलते यज़न का स्कूल तो अब छूट चुका है, लेकिन वो अपनी बहन को जरूर से कैंप मे चल रहे एक अस्थायी स्कूल में भेजता है। यास्मीन बड़ी होकर एक डेंटिस्ट बनना चाहती है। उन लाखों बच्चों के लिये, जिनकी जिंदगियां जंग ने तबाह कर दी है, जिनके स्कूल हमलों में धराशायी हो गये हैं, ऐसे अस्थायी स्कूल कुछ घंटों के लिये ही सही बच्चों को अपनी पुरानी खुशनुमा जिंदगी का एहसास दे जाते हैं। 




लेकिन यज़न भी है तो आखिर एक बच्चा ही जिसे फुटबाल और पतंगबाज़ी का शौक है। वो स्कूल नही जा पाता तो क्या; शाम को असीमित आसमान में अपनी बनाई पतंग उड़ाते हुए वो सब कुछ भूल सा जाता है। हल्का हो जाता है मन उसका पतंग की तरह। वो पतंग जो उड़ भी रही होती है और अपनी जड़ से भी जुड़ी रहती है। लेकिन यज़न और यास्मीन को अपनी जड़े फिर से जमानी होंगी। क्या वो ऐसा कर पायेंगे? क्या आसमान से बरसती आग उनके उस कैंप को छोड़ देगी?





https://www.youtube.com/watch?v=S871wBrfd7s

Sunday, May 8, 2022

हमारा डर


अंधेरे हमें नहीं डराते, 

हम उजालों से डरते हैं 


गुलामी की तो आदत है हमें 
हम आज़ादी से डरते हैं 

सरेआम किसी का काटा जाना 
उतना नहीं डराता हमें 
जितना हम बीच सड़क   
प्यार के इज़हार से डरते हैं

चालीसा तो डर के पढ़ते ही थे 
इन दिनों हम अज़ान से भी डरते हैं  

हम भीड़ से डरते हैं 
हम तन्हा भी डरते हैं 

हम ख्यालों से डरते हैं 
हम सवालों से डरते हैं 

हम सपनों से डरते हैं 
हम अपनों से डरते हैं 

हम कहने से डरते हैं 
हम सुनने से डरते हैं 

हम जीने से डरते हैं 
हम मरने से डरते हैं   

हमारे इसी डर पर ये निकम्मा निजाम टिका हुआ है
हम शायद ये बात जानते तो हैं, 
फिर भी डरते हैं। 

Tuesday, September 8, 2020

कैसा-कैसा जाना

आजकल कुछ टीवी सीरीज्स कई ऐसी वैज्ञानिक कल्पनाओं को सामने रख रहे हैं, जहां‌ इंसान अपनी मृत्यु के बाद भी किसी ना किसी रूप में बना रहता है। Black Mirror नाम की सीरीज के एक ऎपीसोड में तकनीक इस स्तर पर पहुंच गई है जिसमें एक मरे हुए इंसान की खूबियों को एकदम उस जैसी ही दिखने वाली एक साफ्ट मशीन में डाल दिया जाता है। इन खूबियों से जुड़ी जानकारियों को इंटरनेट व उस व्यक्ति के डिजीटल फूटप्रिंट्स से इकठ्ठा किया जाता है। वो मशीन ठीक उस इंसान की तरह ही बोलती है, चलती है, व्यवहार करती है। हां, क्यूंकि मशीन है, इसलिये सो नही सकती। पर साथ वालों को अजीब ना लगे, इसलिये चुपचाप आंख बंद कर पड़ी रहती है। एक दूसरी सीरीज Upload में अगर कोई चाहे और उसकी जेब में पैसे हों तो मरने से पहले अपनी consciousness (चेतना) किसी कंपनी के सर्वर पर upload कर सकता है। इस जीवित चेतना को एक virtual अवतार दिया जाता है और रहने के लिये एक virtual दुनिया। जो जितना ज्यादा पैसा खर्च करेगा, उसके लिये उतनी ही बढ़िया व्यवस्था की जायेगी। मरने वाला या तो मरने के पहले ही इस व्यवस्था के लिये पैसे दे चुका होता है या फिर उसके जीवित घर वाले हर महिने उसके रहने-खाने (virtual) का खर्च (असली रुपयों में) उठाते हैं।

खैर कौन जाने भविष्य के गर्भ में क्या छुपा है।  फिलहाल के लिये तो यही सच है कि जो आएगा, वो जायेगा। और जाने के बाद जिंदा रहेगा तो भी उसे याद करने और रखने वालों की यादों में।

मैं भी नीचे कुछ ऐसे लोगों को याद कर रहा हूं, जिनमें से कुछ को तो मैंने कभी नही देखा क्यूंकि वे मेरे पैदा होने से पहले ही गुजर गये। कुछ एक से मैं एक-दो बार ही मिला और कुछ के साथ कई बार, साथ में भी रहा।  

1996 की बात है। मेरी सबसे बड़ी बुआ, जिन्हें मैं दादी कहता था, नौरोज़ाबाद के कालरी अस्पताल में‌ भर्ती थीं। उम्र उनकी चौसठ-पैंसठ के करीब थी और शरीर भारी। अच्छी सी थीं वो। हाथ का काफी काम जानती थी। मैंने भी उनसे सीखा था कुछ-कुछ। मैं दसवीं बोर्ड की परीक्षा देकर नतीजों के इंतज़ार में था। पिछली क्लास ही मैं इस अंग्रेजी मीडियम स्कूल में आया था। अंग्रेजी में पढ़ाए जाने वाले विषयों में कुछ समझ नहीं आता था तो मैं उन कक्षाओं को बंक मारकर क्रिकेट खेला करता था। मैं अच्छा खेलता भी था तो मुझे मज़ा भी आता था। शायद मुझे लगता था कि मैं वो कर रहा हूं जिसमें मुझे मज़ा आता है। मेरी परिक्षाएं इतनी अच्छी नहीं गई थीं। जो नतीजा आने वाला था, उसमें अगर क्रिकेट के मार्क्स मिलते तो शायद बेहतर होता।

मेरा घर अस्पताल से काफी करीब था, कुछ दो सौ मीटर की दूरी पर। मैं और मेरे दोनों छोटे-भाई बहन भी इसी अस्पताल में‌ ही पैदा हुए थे। छोटा सा कस्बा सा था नौरोज़ाबाद, डाक्टर, नर्सेस और बाकी स्टाफ सबको जानते थे। और उस पर मेरे चाचा  (असल में मेरे फुफेरे भाई और मेरी बुआ के इकलौते बेटे)  तो अफसर थे, लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा शायद ये बात थी कि मेरे दादा-दादी (बुआ-फूफा) भी पहले काफी साल यहीं रह चुके थे और उनकी अपनी भी पहचान थी।  परिक्षाओं के बाद की एक सुबह मैं पर्सनल केबिन में दादी के पास अस्पताल में था। चाचा रात वहीं बिताकर नहाने-धोने के लिये घर गये थे। दादा जी वहीं अस्पताल में ही थे लेकिन लेटे हुए थे। शायद सो रहे थे।

दादी को रात भर शायद आक्सीजन पर रखा गया था। और सुबह जब नर्स आईं तो कुछ देर के लिये आक्सीजन हटा दी गई। या ऐसा ही कुछ हुआ था। मैं दादी के सामने ही बैठा था। बस वो और मैं। अचानक से उन्हें सांस लेने में दिक्कत होने लगी। मुझे कुछ समझ में आता, इससे पहले ही उन्होंने एक-दो बार मुंह खोलकर सांस लेने की कोशिश की और फिर एक तरफ लुढ़क गईं। मैंने झट दादाजी को जगाकर सब बताया, वो दादी के करीब गये और फिर उन्होंने समझाया कि दादी नहीं रहीं। उन्होंने मुझसे दादी के मुंह में पानी डालने को कहा। मैंने पहली बार किसी को अपने सामने मरते हुए देखा था। अस्पताल में क्या हुआ, ये तो मुझे ठीक से याद नहीं, पर मैं भागता हुआ घर गया था और चाचा जी को खबर दी थी। वो अपने आप को कोस रहे थे कि रात भर तो मां के पास रहे और फिर जब वो विदा हुईं तो उनके साथ नही थे। मेरे पापा भी शायद उस दौरान नौरोज़ाबाद में नही थे। दादा-दादी उन्हें बहुत मानते थे, कई मायनो में‌ शायद चाचा से भी ज्यादा। वो भी काफी खफा थे कि आखिरी समय में दादी के पास नही थे वो।

उन्हें जाते बस मैंने देखा, जिसने शायद सबसे कम दुनिया देखी थी। जब मेरा नतीजा आया तो अंग्रेजी में 100 में से 38 नंबर लाने के बावजूद मैं पास हो गया था। कई दिनों तक तो मैं इसका श्रेय मरने वाले के मुंह में आखिरी बार पानी देने के अपने काम को देता रहा। वैसे असल में‌ मेरे पास हो जाने का और उसी स्कूल में 11वीं में एडमिशन पाने का असली कारण थीं मेरी गणित की टीचर, जो इन दिनों केरल में रहती हैं। इत्तॆफाक से उनकी अपनी मां भी दो महिने पहले गुज़र गईं। मैं उनके संपर्क में दोबारा से आया क्यूंकि मैं उनसे मिलने गया था उनके घर पर केरल।

मेरी बुआ दादी तो थोड़ा कष्ट लेकर गईं। पर मेरी असली दादी के जाने का किस्सा भी काफी अनूठा है। मेरी दूसरे नंबर की बुआ (पिछले साल जो गुजरीं) जो स्कूल में लेक्चरर थी कि नौकरी लगने के बाद, मेरे असल दादा-दादी और लाला जी (दादा जी के बड़ॆ भाई) परासिया से अपना बोरिया-बिस्तर समेट के पाली आकर रहने लगे (पाली और नौरोज़ाबाद की दूरी 10 किमी भी नहीं)। पापा तो पहले से ही उनके साथ रहते थे। बुआ के सरकारी घर के सामने ही सरकारी अस्पताल के डाक्टर्स क्वाटर्स थे। एक दिन मेरे ताऊ जी दादी को लेकर डाक्टर साहेब के घर बीपी चेक करवाने के लिये गये। डाक्टर अंकल मेरे स्कूल के बहुत अच्छॆ दोस्त के पिता जी। अब तो उन्हें गुजरे भी बहुत साल हो गये। जीवन में कम मानसिक कष्ट नही देखे उन्होंने। उनके चार बच्चे थे; तीन लड़के और एक लड़की।  मझला लड़का बचपन में कहीं गायब हो गया। शादी-शुदा बड़ा लड़का पानी में डूब के मर गया।

खैर, बीपी चेक करने के बाद डाक्टर साहब दादी के साथ हंसी-मजाक कर रहे थे। दादी भी हंस रही थी। और फिर अचानक से एक ओर लुढ़क गईं। वो मर गई थीं, हंसते-हंसते। मेरे ताऊ जी को डाक्टर की बात पर यकीन नही हुआ और उन्होंने एक चांटा उन्हें दे मारा कि मां तो एकदम ठीक थीं, फिर कैसे?  

मैंने अपने दादा-दादी और नाना को नहीं देखा। लेकिन नानी से दो बार मिला। वो बक्सर बिहार में रहती थीं। पूजा-पाठ, धर्म-कर्म, दायरे-समाज मानने वाली महिला थीं। लेकिन मजबूत थीं। मेरी मां की शादी हो जाने के बाद चुपचाप बक्सर बिहार से मेरी मां और उनका घर-संसार देखने आईं और घर के सामने से देखकर चली गईं - अकेले।  

काफी बड़ा घर था मेरे नाना-नानी का। मेरी मम्मी के दादाजी अंग्रेजों के मुलाजिम थे - नहरों के ओवर्सीयर। काफी ज़मीन थी, चावल और तेल मिल तो घर के बड़े से अहाते ही मे थीं। अहाता इतना बड़ा कि  क्रिकेट का मैच हो जाये। अब सब जाता रहा है। बिहार में अब कोई नहीं रहता - मां के परिवार का। बाहरी लोग थे (पंजाब के) तो वहीं लौट गये हैं। कुछ साल पहले मम्मी को लेकर हम सब गये थे बनारस से उनका घर दिखाने। समय के साथ उनका गांव धनसॊईं भी इतना बदल गया कि मम्मी कॊ काफी समय लगा अपना घर ढूंढनें में। पूछना पड़ा लोगों से। अब उनके घर में एक पूरा स्कूल चलता है। मुझे अपना मम्मी के साथ जाना सफल लगा क्यूंकि इत्तेफाक से मम्मी को बचपन की अपनी सबसे पक्की दोस्त सीता मौसी वहां उसी दिन मिल गईं। वो भी आईं हुई थीं उसी दौरान। हम ऐसे ही पूछते-पूछ्ते उनके घर पहुंच गये और फिर तो खुशी के आंसुओं की झड़ी लग गई।

मैं छोटा ही था, शायद दूसरी कक्षा में पढ़ता था, हम लोग गर्मी की छुट्टियों में नानी के घर गये। इत्तेफाक कुछ ऐसा हुआ कि मेरी मौसी और कई मामा-वगैरह भी पहुंचे हुए थे। घर पर रौनक लगी हुई थी। मेरी नानी काफी खुश थी, उनकी सभी नहीं तो ज्यादातर संतानें सामने थीं। रात में बहुत अच्छे से उन्होंने खाना खाया, दाल-रोटी (पंजाबियों का डिनर); दाल तो दो कटोरी। हम सब बच्चे छत पर सोने के लिये चले गये। लेकिन बीच रात में नीचे से रोने की आवाजें आने लगीं। पता चला कि नानी गुज़र गईं थीं। खाना खाने के बाद उन्हें शायद थोड़ी बेचैनी लगी। उन्होंने लोगों से कहकर अपने कमरे के दरवाजे खुलवा दिये और सामने अलमारी में रखे अपने भगवान के पट भी खोलने के लिये कहा। बस, वही देखते-देखते चली गईं।

इन सब जाने वाले लोगों में से जिस एक व्यक्ति का जाना मेरे लिये सबसे ज्यादा दु:खद था वो था मेरे बड़े चचेरे भाई का। मैं बचपन और स्कूल के दिनों में उनके काफी करीब था। बाद के सालों में तमाम कारणों से हमारी बातचीत कम होती थी। पर जो भी हो, उसका काफी असर रहा मेरे जीवन और उसकी दिशा पर। 37 साल की उम्र में एक सड़क दुर्घटना में वो और उनका पांच साल का बेटा गुजर गये। एक पकी हुई उम्र में कोई जाये तो उतना कष्ट नही होता, जितना एक जवान मौत पर।

कुछ लोग एक बार में अचानक ही चले जाते हैं। पर कुछ ऐसे भी होते हैं जिनकी जान काफी मजबूत होती है, निकलती ही नही। हमारे मोहल्ले में एक बहुत बूढ़ी अम्मा थीं, पड़ोस का एक घर छोड़कर ही रहती थीं। कमर नब्बे अंश के कोण पर छुकी हुई थी, उम्र भी शायद उतनी ही रही हो, घुटने पकड़कर चलती थीं। मुझे उनकी याद है। कहते हैं वो बार-बार मर के जिंदा हो जाती थीं। शायद लोग उनकी बेहोशी को मृत्यु समझ लेते हों। खैर चली ही गई एक दिन वो; शरीर एकदम सूख के कांटा, बस सिलवटी चमड़ी और हड्डियां।

आईआईटी के दिनों में मेरे एक शिक्षक मित्र के पिता जी कैंपस में ही रात को सोते-सोते गुज़र गये। कोई फौरी दिक्कत नही थी। मस्त भीमकाय आदमी थे। सुबह खबर मिली तो हम भी शरीक हुए शोक मण्डली में।  अंकल तो गुज़र गये लेकिन एक व्यवहारिक दिक्कत थी। जिस कमरे में वो सोये थे उससे बाहर निकलने का बस एक ही दरवाज़ा था, जो कि एक संकरे से गलियारे में खुलता था। अंकल का शरीर काफी भारी और बड़ा था। कमरे से बाहर निकालकर खुली जगह में रखने में काफी दिक्कत हुई। मण्डली में सबसे जवान शायद मैं ही था तो इस उपक्रम में मैंने कुछ ज्यादा ही जोर लगा दिया। कई दिनों तक मेरी कोहनी दुखती रही। भैरव घाट में जहां अंकल को मुखाग्नि दी गई वहां लकड़ियां तुलवाते हुए एक दुबले-पतले महाशय दूसरे से कह रहे थे कि अंकल जी को घी कम लगेगा। सामने वाले का जवाब था - हां और आपके समय तो काफी चाहिये होगा।