Sunday, January 4, 2015

तीराहा

आज मुन्ना अकेले ही तीराहे की अंधेरी सड़क के छोर पर खड़ा हुआ है अपना रिक्शा लिये हुए। और कोई नही है आस-पास। ना ही कोई रिक्शा वाला, ना कोई सवारी। वैसे भी शाम इतनी देर तक तो कोई भी रिक्शा वाला नहीं होता है वहां। पर आज जाने क्या बात हुई? बारिश होती रही दिनभर आज...बहुत तेज़। और अभी भी बूंदा-बांदी जारी है।

तभी सामने से एक बस आकर रुकी... सड़क के दूसरे छोर पर रहने वाली एक महिला उतरी। अक्सर ही वो इसी बस से आती और तीराहे से रिक्शा लेकर घर जातीं। मुन्ना खुद भी कई दफे घर छोड़कर आया है उन्हें। शायद कहीं काम करती हैं...आज बारिश की वजह से उनकी बस लेट हो गई लगता।

"भईया चलोगे क्या?" महिला ने अपना छाता खोलते हुए पूछा।

"हां मेम साहब चलिये?"

"कितना पैसा लोगे?"

"दस रुपये मेमसाहब।"

"क्या भईया!" महिला ने गुस्से में कहना शुरु किया...

"रोज तो पांच रूपये में‌ जाते हैं हम। आज ये रेट क्यूं बढ़ा दिया? तुम लोग भी सवारी की मजबूरी का फायदा उठाते हो...कोई ईमान-धरम है या नहीं तुम्हारा?"

"मेम साहब आज सुबह से ही सवारी नहीं मिली। दिनभर तो अपनी झुग्गी की छत ही ठीक करता रह गया। बारिश के चलते टूट गई थी।"

"भईया सवारी नहीं मिली तो क्या सारा नुकसान हमसे भरवाओगे? जाओ तुम...नहीं जाना हमें...पैदल ही चले जायेंगे।"

कहते-कहते महिला आगे बढ़ गई उस सड़क पर जो तालाब बन चुकी थी।

"अरे मेमसाहब अंधेरे में कहां जाएंगी...रास्ता भी बहुत खराब है।" मुन्ना पीछे से चिल्लाया...पर मेमसाहब रूकी नहीं।

कुछ सेकेंड बाद मुन्ना भी मेमसाहब के पीछे हो लिया...जाने क्या सोचकर?...शायद ये कि चलो पांच रुपये ही मिल जायेंगे...या ये कि अंधेरे में मेमसाहब को दिक्कत होगी...या और कुछ...

अब ये तो मुन्ना ही जाने...

(24/07/2010)

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