मैंने इंजीनियरिंग की पढाई की है, पर पढाई करने भर से तो कोई वो बन नहीं पाता जिसकी पढ़ाई की हो, तो अपने साथ भी वैसा ही है. मुझसे कहीं ज्यादा बेहतर इंजिनियर मेरे पिताजी हैं, जिन्होंने कहने को औपचारिक तौर पर उसकी शिक्षा नहीं ली है.
पर पढ़ाई के अलावा भी बहुत कुछ किया कालेज में. कुछ अच्छे लोगों से मिला. चंद अच्छे दोस्तों से अपनी पोटली भरी. वो कॉलेज के साथी, खासतौर पर उनके साथ बिताया हॉस्टल का समय और उससे जुडी यादें अकसर ही मन को गुदगुदाती हैं.
उन्हीं की याद में ...
कहने को तो
पिछले कई सालों में नही मिला उनसे,
पर याद जब भी आते हैं वो,
तो होठों पर हँसी लौट आती है.
याद आता है मुझे कि
कैसे मैं और बाबा दानिश
साथ मिलकर हिट गानों की
पैरोडी बनाते थे
हँसते थे, हंसाते थे
रात में भुतुआ
कहानी सुनाते थे
आलोक को डर लगता था
उसे ही डराते थे.
कभी किसी की
कम्बल कुटाई करते
तो कभी किसी का
नास्ता चुराते थे.
कहने को तो
पढने के लिए जागते थे
पर इंतज़ार रहता था
शंकर के पराठों का
जिन्हें खा कर बस सो जाते थे.
वो घी का भगोना
जो राजा जी,
गाँव से लेकर आए थे.
वो आचार का डिब्बा
जो आलोक घर से लेकर आया था
दूसरे कमरों के साथियों
से उसे बड़ी मुश्किल से बचाते थे.
कहने को तो
वो डिब्बे कब के खाली हो गए
पर पराठों पर तैर रहे घी की गंध
और आचार का स्वाद,
मुझे अब भी याद है.
वो रेगिंग का मौसम,
चान्टो से लाल हुए गालों के संग,
जब हॉस्टल के साथी सामने आते थे,
हम सब भी हदस जाते थे.
खबर आती जब
रात को दरवाजा खोल कर सोने की
हम कैसे हॉस्टल से बाहर
दोस्तों के रूम पर सो जाते थे.
कहने को तो
वो गाल कब के लाल हो गए
पर उन हाथों की गर्मी
मुझे अब भी याद है.
वो सिंह का गाना,
४ दिनों से भिगोये कपडों
को रात में धोना,
१२ बजे उठ के,
शेव बनाना.
उसकी वो दानिश से लडाई,
और वो अलार्म वाली घड़ी भाई,
जिसे गौरव ने उठा कर पटक दिया था.
कहने को तो
वो फिर कभी नही बजी,
पर वो सिंह का बचपना
मुझे अब भी याद है.
वो फर्स्ट इयर के पेपर
वो जैन का आना,
पेपर लीक हो गया है,
ये हॉस्टल में फैलाना.
वो पेपर का मिलना
पर एक्साम में उसके प्रश्नों का न आना
कहने को तो
उन परीक्षायों के रिजल्ट
कब के आ गए
पर उन परीक्षायों की तैयारी
मुझे अब भी याद है.
वो क्रिकेट का सीज़न
वो गौरव और सिंह
दोनों ही थे
अपनी टीमों के कैप्टेन
वो दिन भर का क्रिकेट
वो सिंह की बदबू मारती जुराबें
वो गौरव का टेम्पर
वो बड़ी-बड़ी बातें
फंस गए थे
बीच में
मैं और राजा जी
कहने को तो
वो मैच कब के ओवर हो गए
पर वो सिंह और गौरव की बैटिंग
मुझे अब भी याद है.
वो शनिवार की क्लास
वो गौरव का नहाना
वो सिंह का गुस्से में दरवाजा पीटना
और चिल्लाना
वो राजा जी का शाही अंदाज़
वो सलीके से रखी हुई बात
वो गौरव का बिस्तर पर लेटकर पढ़ना
वो और लोगों को पढाना
वो सिंह का नंगे पाव घूम कर आना
और सीधे बिस्तर पर चढ़ जाना
वो गौरव का गुस्सा होना
और अपना अलग बिस्तर लगाना
कहने को तो
अब सब अलग हो गए
पर
वो सबका साथ
मुझे अब भी याद है..
भाई आज आप की भाभी जी को ये कविता सुनायी ... वो तो सेंटी हो गयी .. she really like the poem... its heart touching
ReplyDeletethanx bhai for getting ne nostalgic..and shukriya ki hum aur hamari luna aapkae bolg mein hae.
ReplyDelete:)....अरे बंधु तुम्हारी लूना और तुमसे हमारी कितनी यादें जुड़ी हुई हैं..भला वो कैसे ना हिस्सा बनती इस पोस्ट/ब्लॉग का ...
ReplyDeleteThanks Vivek itni acchi kavita ke liye aur sab ko aur pass lane ke liye. Shayad waqt ke saath sab kahin dur ho gaye the, par is kavita ke madyam se aap sab ko aur bhi karib le aaye hai
ReplyDeleteto mehta ji aapka blog join karte hi ek niyam toot gaya.....kisi famous vyakti ki photo upload karne mana kiya tha par mujhe apni karna padi.aap se baat to tabhi ho pati hai jab aap ki marzi ho,chalo ye sab chodo.
ReplyDeletekya likha hai.....phir se bhilai jane ka man kar raha hai,aur haan mehnat bahut kari paper out karne ki aur electrical ka almost ho gaya tha ye tumko pata hai isliye kavita mein editing kar do to acchha hai.