Monday, December 9, 2019

आपकी आदरणीय छात्रा

आपकी आदरणीय छात्रा - ऐसे ही खत्म किया मेरी भतीजी ने अपने स्कूल की परीक्षा में पूछे गये उस सवाल के उत्तर को जिसमें उसे अपने स्कूल की प्रधानाध्यापक को बीमारी के चलते दो दिनों की छुट्टी के लिये पत्र लिखना था। हिंदी में लिखे इस पत्र में मात्राओं की कुछ गलतियां थीं, कुछ जगहों पर वो कुछ शब्द भूल गई थी। ऐसी तमाम जगहों पर अपनी लाल कलम से उसकी शिक्षिका ने निशान बनाते हुए सही हिज्जे व मात्राएं लिख दी थीं। साथ ही मात्राओं के हिसाब से एकदम सही 'आपकी आदरणीय छात्रा ' वाले हिस्से में आदरणीय को काटकर आज्ञाकारी भी लिख दिया।

जब पहली बार मेरी नजर इस सही किये गये पत्र पर पड़ी तो मैं आखिरी लाईन पर आकर अपनी हंसी नही रोक पाया। लेकिन जब बाद में मैं इसपर सोच रहा था तो कई बातें दिमाग में आईं। सबसे पहले तो मुझे अपना स्कूली जमाना याद आ  गया जब मैं और मेरी साथी भी ऐसे ही पत्र लिखा करते थे। आम तौर पर वो सभी पत्र लगभग एक जैसे ही हुआ करते थे। उन पत्रों में किसी तरह की मौलिकता का होना असंभव सा था। फिर एहसास हुआ कि शायद आज भी असंभव ही है - कम से कम अपनी भतीजी के रंगे हुए पत्र की भाषा को देखकर ऐसा ही लगता है।

बेदर्दी से काटे गये आदरणीय, जोकि छात्रा के आगे लिखा हुआ था और जिसे काटकर आज्ञाकारी लिख दिया गया था, को देखकर दिमाग में एक सवाल आया कि क्या एक छात्र अपने शिक्षक का केवल आज्ञाकारी हो सकता है, आदरणीय नहीं?  संभव है कि मेरी भतीजी को पत्र लिखते समय आज्ञाकारी शब्द याद ना आया हो, जिसे उसकी शिक्षिका ने याद करवाया था, और उसने अनजाने और अपने भोलेपन में ही आदरणीय शब्द लिख दिया हो। और वैसे भी कोई इस तरह से लिखकर तो किसी का आदर नही पा सकता। और नाही लिख देने मात्र से कोई किसी का आज्ञाकारी हो जाता है। लेकिन अमूमन शिक्षक अपेक्षा करते हैं कि बच्चे उनके आज्ञाकारी हों। आज्ञाकारी होने का मतलब जो नियम-कायदे हैं, उनके दायरे में ही रहें।

ऐसी अपेक्षाएं परिवारों व समाजों में भी बच्चों या युवाओं होती हैं। और बात अगर लड़किओं या युवतियों की हो तो अपेक्षाएं कई गुना बढ़ जाती हैं। अपेक्षाएं बढ़ने का मतलब हुआ नियम-कायदों का बढ़ना, दायरों का और सिमटना।

बात अगर उच्च शिक्षण संस्थाओं तक ही सीमित रखी जाए तब भी इन सिमटे हुए दायरों को साफ-साफ देखा जा सकता है, जहां लड़कों‌ और लड़कियों के लिये नियम व कायदे अलग-अलग हैं।

1933 में कमला भागवत नाम की एक बीस साल की युवती को उस समय के IISc के निदेशक व नोबेल पुरुस्कार विजेता सर सी. वी. रमन ने मात्र इस वजह से IISc में दाखिला देने से इंकार कर दिया था क्यूंकि वो एक लड़की थी। उनका और उन जैसे तमाम लोगों का यह मानना था कि वैज्ञानिक शोधकार्य औरतों का कार्यक्षेत्र हो ही नही सकता। IISc के दायरे में लड़कियों की मनाही थी। लेकिन कमला भागवत ने इस दायरे को तोड़ा। आज्ञा की अवमानना करते हुए सत्याग्रह करने की बात पर अड़ जाने के बाद आखिरकार सर सी. वी. रमन को उन्हें दाखिला देना पड़ा। कमला भागवत की यह लड़ाई सिर्फ दाखिले की नहीं बल्कि सम्मान और आदर की लड़ाई थी। वो यह मांग कर रही थीं कि सिर्फ लड़की होने की वजह से उनका अनादर ना किया जाए।

लेकिन ये तो बात हुई आज़ादी के पहले के भारत की। आज आज़ादी के सत्तर साल बाद भी सम्मान और आदर की लड़ाई, दायरों को फैलाने की लड़ाई जारी हैं। सोने का ही सही, पिंजड़ा पिंजड़ा होता है। कमला भागवत तो अकेली थीं, आज देश के तमाम उच्च संस्थानों की युवतियां एक साथ मिलकर अपने ऊपर थोपे गये दायरों को तोड़ने की लड़ाई लड़ रही हैं। जीत किसकी होगी, इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिये।

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