बात
उन दिनों की है जब मैं कानपुर
में पढ़ा करता था। निर्माली
का परिवार भी उन दिनों कानपुर
शहर में ही रहा करता था। एक
रात जब मैं उनके घर पर रूका तो
सुबह-सुबह
उनके घर पर साफ-सफाई
का काम करने वाली सीमा से
मुलाकात हो गई। उन्हें देखकर
लग रहा था कि वो रात भर सोई नहीं
हैं। बातों ही बातों में मैंने
कारण जानना चाहा तो पता चला
कि सिर्फ वो ही नहीं बल्कि
उनकी बस्ती व शहर के दूसरे
इलाकों में भी लोग रात भर नहीं
सोए। क्यूं? क्यूंकि
एक खबर फैल गई थी कि जो भी रात
में सोएगा वो बुत (पत्थर
की मूर्ति) बन
जाएगा। याद नही मैंने उन्हें
कुछ समझाने की कोशिश की या
नहीं पर घर पर हम सभी लोगों को
नींद से उठकर बिना बुत बने हुए
देखकर शायद उन्होंने इस खबर
के झूठ होने का अनुमान लगा
लिया हो।
जब
सीमा यह सब बता रही थीं तो सहसा
मेरा ध्यान बचपन की उन दो घटनाओं
पर चला गया जब ऐसी ही कुछ खबरें
फैली थीं। पहली बार तो यह खबर
चली कि भगवान की मूर्तियां
दूध पी रही हैं। सारे के सारे
गांव व कस्बे, जिनमें
हम भी शामिल थे, हाथ
में दूध की कटोरियां व चम्मच
लिये मंदिरों के सामने लाईन
लगाए खड़े थे। दूसरी दफे,
जब मैं शायद
कक्षा छ: में
था तो यह खबर फैल गई कि हरे
पत्ते वाली सब्जियां खाने से
मौत हो जायेगी। इसके साथ यह
कहानी फैली कि एक सब्जियों
से भरी गाड़ी ने एक नाग-नागिन
के जोड़े को कुचलकर मार डाला
है जिसकी वजह से अब हरे पत्तों
पर नाग-नागिन
की जहरीली आकृति उभर आई है।
हम स्कूल जाते वक्त रास्ते
में पड़ने वाले पेड़-पौधों
की पत्तियां देखते जाते थे
और सच में उनमें सफेद धारियां
उभर आई थीं। लेकिन उनकी हकीकत
कुछ और ही थी। उन दिनों ऐसी
खबरें टीवी के माध्यम से खूब
फैलती भी थी।
खैर
जिन दिनों मैं कानपुर में था,
मोबाईल फोन
का जमाना आ चुका था; हां
उन्हें स्मार्ट बनने में
अभी कुछ वक्त जरूर था। देश के
मंत्रिगण देश में बढ़ती हुई
मोबाईल धारकों की संख्या को
विकास और प्रगति के एक सूचक
के रूप में प्रस्तुत भी कर रहे
थे। लेकिन सूचना का वैसा विस्फोट
तब भी नहीं हुआ था जैसा सस्ते
handsets व
internet packages के
आज के इस दौर में संभव हो पाया
है। आज के समय में आम लोगों के
द्वारा सूचना को फैलाना कहीं
ज्यादा आसान हो गया है।
पिछले
साल ऐसे ही मेरे एक करीबी ने अपने नए स्मार्टफोन से अपने
जानने वालों से एक संदेश साझा
किया जो उन्हें किसी अन्य
व्यक्ति ने भेजा था। मासूम व
Unharmful से
दिखने वाले इस संदेश के पीछे
छुपे संकेत मासूम व Unharmful
तो कतई नहीं
है और एक गंभीर सामाजिक बीमारी
की ओर इशारा करते हैं। जो संदेश
उन्होंने साझा किया वो साथ
की तस्वीर में देखा जा सकता
है। अजूबे के तौर पर पेश किये
गये इस संकेत को सब को दिखाने
की बात भी की गई है।
जब
यह संदेश मैंने देखा तो महिनों
मे होने वाले दिनों के जोड़
के हिसाब से मुझे उसमें कुछ
गड़बड़ी सी लगी। मैंने कैलेंडर
उठाया और पड़ताल शुरु की। एक
जनवरी 2017 को
सच में रविवार था। लेकिन जैसे
ही मैं अगले महिने यानी कि
फरवरी पर पहुंचा तो संदेश के
गलत होने की बात पुख्ता हो गई
क्यूंकि दो फरवरी 2017 का
दिन गुरुवार था। और तो और संदेश
में दी गई बाकी सभी तारीखों
के दिन भी रविवार नहीं थे।
ये
पड़ताल बहुत सी बातें उजागर
करती है। ये संदेश सच है भी या
नही, इस
बात कि जांचने के लिये घर की
दीवार पर टंगे कैलेंडर को
पलटना भर था। लेकिन जाहिर है
जिन लोगों ने भी इस संदेश को
आगे बढ़ाया उन्होंने ऐसा नहीं
किया वर्ना वे इसे आगे नहीं
साझा करते। लेकिन उन्होंने
ऐसा क्यूं नहीं किया?
क्या किसे भी
लिखी हुई बात का यकीं हम आसानी
से कर लेते हैं?
देखने-समझने
व सोचने वाले लोग इन उदाहरणों
से काफी कुछ निकाल सकते होंगे
लेकिन एक बात जो इनसे साफ झलकती
है कि हमारा समाज मुख्य तौर
पर एक गैर-तार्किक
समाज सा नज़र आता है। सही व गलत
को परखने का नजरिया व कोशिश
इसमें बहुत ही कम दिखाई देती
है।
दूसरे
शब्दों में कहें तो हमारे समाज
में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का
एक गहरा अकाल सा फैला हुआ है।
वैसे यह जानकारी भी कोई नई नही
है। भारतीय सविंधान इस मायने
में शायद दुनियां का इकलौता
ऐसा संविधान है जिसमें एक
वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित
करना नागरिक कर्तव्यों में
शुमार किया गया है। जिस समाज
में चोरी होती हो उसी में चोरी
के खिलाफ कानून बनता है,
वैसे ही जिस
समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण
का अकाल हो वहीं के संविधान
में ऐसी बात लिखे जाने की
संभावना बनती है।1
फेक
न्यूज या झूठी खबरों के चक्कर
में तो अच्छे-खासे
पढ़े-लिखे,
खाए-पिए
लोगों से लेकर जनता के प्रतिनिधी,
अधिकारी,
प्रभावशाली
व्यक्तित्व भी दिख जाते हैं।
ऐसे में एक समाज जिसमें शिक्षा
का प्रसार काफी कम है और तार्किक
शिक्षा का तिस पर भी कम तो
रोजमर्रा की जद्दोजहद से जूझ
रहे किसी आम व्यक्ति से कैसे
उम्मीद की जाए कि वो तमाम मिलने
वाली सूचनाओं की जांच-परख
करेगा।
और
ऐसे समाज में जब तार्किक शिक्षा
की बजाए तकनीक का विस्तार होता
है वो भी 'cheap data’ के
तौर पर तो उसका कैसा सामाजिक-राजनीतिक
असर होगा?
संविधान
में शुमार होने के बावजूद इतने
वर्षों में इस वैज्ञानिक
दृष्टिकोण के अकाल के गहराने
के संकेत यही दर्शाते हैं कि
हमने अपनी जनसंख्या को और कुछ
भी बनाया हो लेकिन नागरिक के
तौर पर उसका विकास हम नहीं कर
पाए। हम फेल हो गये।
स्कूल-कालेज-यूनिवर्सिटी
व तमाम अकादमिक संस्थान जिनकी
इस दृष्टिकोण को विकसित करने
की जिम्मेदारी सीधे-सीधे
बनती है, वे
तमाम संस्थान फेल हो गये। हमने
बड़ी-बड़ी
पोथियां लिखीं, बड़े-बड़े
कई सारे पर्चे छापे, लेकिन
अंत में फेल हो गये। अगर मैं
प्रसिद्ध शिक्षाविद कृष्ण
कुमार के विचारों को सही समझ
पाया हूं तो उनके शब्दों में
गुलामी की शिक्षा को आगे बढ़ाने
वाले ये तमाम संस्थान भारतीय
समाज के रोजमर्रा के यथार्थ
व उसकी जरूरतों से पूरी तरह
से अलग हो चुके हैं। इतने अलग
कि वे स्वयं अपने भीतर ही
अवैज्ञानिकता को ही बढ़ावा
दे रहे हैं। ऐसे में यह कह देना
कि सिर्फ अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे
लोग या सामाजिक हिस्से ही ऐसे
उदाहरणों के पीछे हैं गलत
होगा।
कार्बी-अंगलोंग
सरीखी घटनाओं के साथ हम लगातार
फेल हो रहे हैं। जनता सरकारी
तंत्र पर भरोसा नहीं करती,
अपने हाथों
ही फैसला कर देना चाहती है।
जाहिर है जहां एक ओर हम नागरिकता
व वैज्ञानिक दृष्टिकोण के
संदर्भ में फेल हुए हैं तो
दूसरी तरफ व्यवस्थाओं को जनता
के प्रति जवाबदेह बनाने में
भी असफल रहे हैं।
ये
असफलताएं हमारे समाज को और
ज्यादा बर्बर बना रही हैं।
हम-आप
सभी कभी भी इसके लपेटे में आ
सकते हैं। चुपचाप खबरों को
सामने से हटा देने का वक्त अब
निकल चुका है।या
फिर हम भी ऐसी किसी नींद में
चले गये हैं जिसने हमें बुत
बना दिया है।
1
सोचने की बात
यह है कि क्या यह समाज हमेशा
से ही ऐसा रहा है या फिर इसके कुछ तार्किक पहलू भी रहे हैं। एक ओर तो
जहां इन दिनों बात है भारतीय
ज्ञान परंपरा को आगे बढ़ाने
की तो बुद्ध के तार्किक दर्शन
या फिर फूले दंपत्ति के द्वारा
चलाए गये सत्यशोधक समाज की
परंपरा को हम कहां छोड़ आए
हैं और क्यूं?
बढ़िया विश्लेषण, विवेक भाई! आपकी यह बात कि 'जहां एक ओर हम नागरिकता व वैज्ञानिक दृष्टिकोण के संदर्भ में फेल हुए हैं तो दूसरी तरफ व्यवस्थाओं को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने में भी असफल रहे हैं' बड़े ही सटीक ढंग से मौजूदा तमाम भयावह संकटों की असल वजह को बेनकाब करता है. साथ ही, इस बात को भी कत्तई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि सोशल मीडिया पूँजी के हाथ में एक सशक्त हथियार है. समाज में विभिन्न स्तर पर अलगाव की भावना पैदा करके बाज़ार को एक मात्र संकटमोचक के रूप में भी यही सोशल मीडिया स्थापित करता है. तमाम असुरक्षाओं से घिरा समाज जब असल समस्या- पूँजी के खिलाफ लामबंद होने लगता है तब इसी हथियार का प्रयोग समाज में पहले से मौजूद धर्म, जाति और लिंग की खाइयों को और ज्यादा गहरा और चौड़ा करने में किया जाने लगता है. और, इससे तथाकथित वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लबरेज नागरिक भी अछूते नहीं हैं. दरअसल, राजनैतिक चेतना के अभाव में हम इस कदर गुलामी के शिकार हैं कि हमें बेड़ियाँ दिखाई नहीं देती हैं. और, दुर्घटनावश कभी दिखाई भी देती है तो बतौर सेफ्टी-बेल्ट. विकल्पहीनता के इस दौर में नए विकल्पों की तलाश का जिम्मा भी हमने शासक वर्ग को सौंप दिया है. जनता IPL और FIFA मैच में हुंकारे लगा रही है.
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