Wednesday, December 10, 2014

कहां गईं वो छिब्बी वालियां?


"ओ अम्मा, तीन छिब्बी और डलेगा कोयला, अभी तो बस चार  ही हुई हैं।"

"अब से चार ही मिलहीं बबुआ, गैस आ गई ना।"

 

ये संवाद उन दिनों का है जब हमारे घरों में ईंधन के तौर पर कोयले का इस्तेमाल होता था।  पिताजी कोयले की खदान में काम करते तो हर हफ्ते घर बैठे-बिठाये ही कोयला मिल जाया करता था। एक कोयले से भरा डम्पर मोहल्ले की किसी खाली जगह पर कोयला डाल जाता। जिसे फिर उस जगह से छिब्बियों में भर-भरकर अम्मा/बाई लोग अपने सर पर उठाकर हमारे घरों की बाऊंड्री के अंदर डाल जाया करती थीं। हमारा काम बस इतना होता कि बाहर से कोयला उठाकर घर के पीछे बनी कोठरी में‌ पहुंचा दिया जाये। हथौड़ी, चिमटा, सिगड़ी, बाल्टी, तगाड़ी, सब्बल, फावड़ा, कुल्हाड़ी जैसे कई जरूरी औज़ारों व सामान से भरी उस काली कोठरी में रात के समय पीला बल्ब टिमटिमाया करता था। घर की महिलायें और कभी-कभी पुरूष भी एक रोज भर की जरूरत का कोयला तोड़कर सिगड़ियां सुलगा लिया करते। दिन भर का खाना, चाय-नाश्ते से लेकर ठंड में गर्म पानी तक सब कुछ उन्हीं कोयले की सिगड़ियों की गर्माहट के भरोसे ही था।  ठंड के दिनों में तो कई दफे लोग गर्माहट के लिये घर के अंदर सोने वाले कमरे में ही सिगड़ी जलाकर रख लेते। अक्सर ही घटनायें सुनने को मिलती कि फलां मोहल्ले का फलां परिवार रात में सोते-सोते ही मर गया, क्यूंकि कोयला पूरी तरह जल नहीं पाया और धुआं जहरीला बन गया।

खैर धीरे-धीरे समय की करवट के साथ-साथ कोयले और सिगड़ी की जगह गैस वाले चूल्हों ने ले ली। साफ ईंधन के रूप में ये कोयले से कहीं ज्यादा बेहतर था। कोयला का इस्तेमाल तब भी होता था पर उतना नहीं। शाम होते-होते मोहल्ले के ऊपर छाया वो कोयले के धुएं के बादल अब उतने घने नहीं होते थे। हालांकि ये बात सिर्फ हमारे मोहल्ले के लिये ही सही थी। माईनर क्वाटर्स, जिसे लोग माइनस क्वाटर्स भी कहा करते थे (शायद उनके बहुत ही छोटे होने के कारण), के आस-पास तब भी पहले जैसा ही माहौल रहता। शायद गैस के चूल्हे तब तक नहीं पहुंचे थे वहां।

वैसे आज कालरी के हर कामगार के घर में गैस आ गई है। लेकिन मैं सोचता हूं कभी-कभी कि कहां गईं वो छिब्बी वालियां?              

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