Saturday, November 8, 2014

सुबह सवेरे

गांव की पगडंडी,
टहल रहा हूं मैं ...

सामने है,
बिजली के
ऊंचे-ऊंचे खम्बों से
झूल रही
मोटी-मोटी तारों
के उस पार
नई सुबह का
नया-नया सूरज ...

मानो,
सुनार की दुकान में लटकी
एक मोती की माला
या,
परचून की दुकान पर
धागे में पिरोई हुई
एक संतरी टॉफ़ी ...

सोच ही रहा था मैं
कि कौन इसे पहनेगा?
या,
कौन इसे खायेगा?

तभी लगा कि
सूरज को
गुस्सा आ रहा है।
वो गर्म होकर
ऊपर उठने लगा...

लगा,
जैसे कि कह रहा हो मुझसे
ऐ लड़के!
चल भाग यहां से।
थोड़ी ही देर में
इतना गर्म हो जाऊंगा कि
पहनना और खाना तो दूर
तू मुझे देख भी नहीं‌ पायेगा...

सूरज की गर्मी देख,
अपनी आंखें नीची किये
मैं
घर लौट आया...

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