आज ही के दिन पिछले साल मुकुल
भाई नही रहे। आज जब उनके तमाम
साथी, उनके
जानने वाले उन्हें याद कर रहे
हैं, यह लेख भी उन्हीं को समर्पित
है। यह लेख ना तो उनकी जीवनी
है और ना ही उन लोगों ने लिखा
है जिन्होंने उनके साथ किसी
मुद्दे पर लम्बे समय तक काम
किया हो। मुकुल भाई से हमारा
संपर्क कानपुर में सिर्फ एक-दो
दफे ही हुआ है, जब
वो और निर्झरी जी हमारा मंच
के कार्यक्रमों में हिस्सा
लेने के लिए कानपुर आये थे।
लेकिन फिर भी जिस आत्मीयता
से वो हमसे मिले व जिस सादगी
के साथ उन्होंने अपने काम और
संगठन के बारे में हमसे बातचीत
की, हमें
लगता है कि आज के इस विमर्श
में हमारे पास भी मुकुल भाई
और उनके कामों से जुड़ी कुछ ऐसी
बातें है जिसे हम भी बांट सकते
हैं।
हमने
मुकुल भाई व उनके कामों के
बारे में अपनी समझ मुख्य रुप
से उस किस्से के इर्द-गिर्द
बुनने की कोशिश की है जिसे
मुकुल भाई और निर्झरी जी ने
लखनऊ से कानपुर की ओर आते हुए
हम दोनों से साझा किया था।
आज
जब मुकुल भाई के गुजरने के
बाद, अखबारों
व मीडिया में उन्हें व उनके
काम को मुख्य तौर पर गुजरात
2002 के
दंगों, तथाकथित
पुलिस एनकाऊंटर्स, व
कुछ ऎसे ही मामलों के दायरों
में समेट कर देखा जा रहा है,
ये किस्सा
हमारे सामने मुकुल भाई के
व्यक्तित्व के ऎसे पहलू को
ऊजागर करता है जिसकी मदद से
हम मुकुल भाई व उनके जीवन को
एक व्यापक परिपेक्ष में देख
व समझ सकते हैं।
और
ये किस्सा है साल 2001 के
शुरूआती महिनों का। 26
जनवरी 2001
की सुबह
गुजरात ने एक जबरदस्त भूकम्प
का सामना किया। इसकी तीव्रता
व असर का अंदाजा इसी बात से
लगाया जा सकता है कि इस भूकम्प
से 20000 से
ज्यादा इंसानी जानें गईं और
लाखों लोग घायल व बेघर हुए।
साथ ही अन्य जान और माल का भी
बड़े भारी स्तर पर नुकसान हुआ।
स्वाभाविक सी बात है,
इतनी बड़ी
दुर्घटना के बाद राजकीय,
राष्ट्रीय
व अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर
मदद का काम शुरू हुआ। ये मदद
जरूरतमंदों तक पहुंची या नहीं,
इसकी चर्चा
तो हम यहां नहीं करेंगे। पर
ये बात बिल्कुल साफ़ है कि मदद
जरूरतमंदों तक पहुंचे,
इसके लिये
जरूरी था कि धरती की सतह पर
भूकम्प के केन्द्र का सही-सही
पता लगाया जाये। भूकम्प के
ठीक बाद ही दो अलग-अलग
एजंसियों से भूकम्प के केन्द्र
के बारे में जानकारियां
मिलीं। इनमें से एक संस्था
थी अमेरिका की US Geological
Survey (USGS) और
दूसरी भारत की Indian Metrological
Department (IMD)। ये
संस्थायें दो अलग-अलग
जगहों को भूकंप का केन्द्र
बतला रहीं थीं। पर भूकंप का
केन्द्र तो एक ही हो सकता था
और जिसका सही-सही
पता लगाना कई मायनों में ज़रूरी
था। मुकुल भाई ने अपने संगठन
जन संघर्ष मंच व कुछ अन्य
साथियों के साथ मिलकर भूकंप
के केन्द्र से जुड़ी सच्चाई
को वैज्ञानिक तरीके से ऊजागर
करने का निर्णय लिया। मुकुल
भाई एक वकील व सामाजिक कार्यकर्ता
के रूप में अपने आपको स्थापित
करने से पहले भौतिकी विज्ञान
के छात्र रहे थे। उनका यह
निर्णय उनके वैज्ञानिक नजरिये
को सामने रखता है।
जन
संघर्ष मंच की टीम ने भूकम्प
आने के 20-25 दिनों
के भीतर ही प्रभावित इलाकों
का गहन दौरा कर उन इलाकों में
हुए नुकसान का वैज्ञानिक
विश्लेषण किया। ऎसा करने में
इस टीम ने भू-विज्ञान
से जुड़े दो सिद्धांतों का
तार्किक तरीके से इस्तेमाल
किया। इक्कठ्ठे किये गये
आंकड़ों व विश्लेषणों के आधार
पर इस टीम ने एक रपट तैयार की,
जिसके मुताबिक
भूकंप का सही केन्द्र USGS
द्वारा बतलाई
गई जगह के करीब था। पर अब जरूरत
थी कि भूकम्प से जुड़े इस सच को
स्थापित करने की, जिसके
लिये जन संघर्ष मंच ने गुजरात
उच्च न्यायालय में एक अपील
दायर की। इस अपील के चलते जब
IMD से
जवाब मांगा गया तब IMD के
निदेशक ने न्यायालय के सामने
यह बात मानी कि IMD के
द्वारा बतलाए गये भूकम्प के
केन्द्र की जगह गलत है और सही
जगह जन संघर्ष मंच की रपट में
बतलाई गई जगह के करीब है। जन
संघर्ष मंच की टीम के प्रयासों
से मात्र 4 महीनों
के भीतर ही भूकंप का सही केंद्र
कानूनी रूप से स्थापित हो गया।
मुकुल
भाई से जुड़े इस किस्से से कुछ
ऎसी बातें निकलकर आती हैं जो
उनके व्यक्तित्व के कई पहलुओं
को सामने रखती हैं।
- मुकुल भाई सच के एक खोजी थे। किसी भी बात पर सिर्फ़ इसलिये यकीन कर लेना कि वो बात कोई उच्च संस्थान या कोई ताकतवर व्यक्ति/प्रशासन कर रहा है, उनका स्वभाव ना था। उनकी यह विशेषता उनके हर काम में देखी जा सकती है, चाहे वो भूकंप के केन्द्र का मसला हो या कि किसी सम्प्रदाय विशेष या मत विशेष से जुड़े लोगों को आतंकवादी बता कर जेलों में बंद करने वा उनके तथाकथित एनकाऊंटर्स का मामला हो और या फ़िर गोधरा ट्रेन जलने के घटना। ये सभी घटनाएं या तो सीधे -सीधे आम लोगों के जीवन पर असर डालती हैं या समता व न्याय जैसे उन संवैधानिक मूल्यों को ही चुनौती देती है जोकि एक सभ्य समाज की नींव होते हैं। जाहिर सी बात है कि एक सचेत व जागरूक नागरिक होने के नाते मुकुल भाई इन घटनाओं के पीछे के सच की खोज करना अपनी जिम्मेदारी समझते थे।
- ये कहना बहुत आसान है कि आखिरी में सच की ही जीत होती है; शायद ऐसा होता भी हो। पर सच की जीत के लिये जरूरी है कि पहले तो सच की खोज की जाये और फ़िर उस प्रक्रिया में सच को स्थापित करने का प्रयास किया जाये, उसकी लड़ाई लड़ी जाये। मुकुल भाई में सच को स्थापित करने की प्रतिबद्धता भी दिखाई देती है।
- मुकुल भाई के व्यक्तित्व का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू भी हम देख पाते हैं और वो यह है कि सच की खोज व उसे स्थापित करने की प्रक्रिया में वो एक संगठन के महत्त्व को समझते थे। व्यक्तिवाद के इस युग में जहां सस्ती लोकप्रियता घर बैठे-बैठे ही मिल जाती है मुकुल भाई जैसे एक काबिल इन्सान का तमाम संगठनों को मज़बूत करने में अपना समय व ऊर्जा लगाना यही दिखलाता है कि वो सिर्फ और सिर्फ सच की लड़ाई लड़ रहे थे और इस सामूहिक लड़ाई में संगठन की शक्ति को वो अच्छी तरह समझते थे।
- मुकुल भाई में एक और समन्वय देखने को मिलता है जो आजकल दुर्लभ होता जा रहा है और वो है एक वैज्ञानिक सोच और राजनीतिक समझ का। यहां राजनीति से हमारा मतलब वोटों की राजनीति से कतई नहीं है जिसमें एक नागरिक समाज के प्रति अपने सारे कर्तव्यों को मात्र एक दिन वोट डालकर ही निपटा आता है। साथ ही वैज्ञानिक सोच से भी हमारा अंदेशा यह बिल्कुल भी नहीं कि वह केवल आई आई टी जैसे संस्थानों में विज्ञान की पढ़ाई करके ही बनाई जा सकती है। आज के इस दौर में लगभग सभी शिक्षण संस्थानों का एकमात्र मकसद बाज़ार के लिए सस्ता मानव श्रम मुहैया करवाना है, नाकि ऐसे नागरिक तैयार करना जोकि वर्तमान व्यवस्था पर तार्किक व वैज्ञानिक ढंग से सवाल उठा सकें। ऐसे में कई विज्ञानकर्मी मिल जायेंगे जो अपने आप को गैरराजनैतिक बतलाते हुए व्यवस्थागत सवालों से कन्नी काट जाते हैं। इनमें से कुछ तो काफी समझदार हैं और जिनके लिए Upton Sinclair लिख भी गए हैं कि “It is difficult to get a man to understand something, when his salary depends on his not understanding it”। पर इनमें से कुछ ऐसे भी हैं जोकि इस दुविधा में ही रह जाते हैं कि कहीं हम वर्तमान व्यवस्था पर राजनीतिक सवाल उठाकर विज्ञान के साथ बेईमानी तो नहीं कर रहे। शायद वो भूल जाते हैं कि विज्ञान का असल मकसद तो सवाल पूछना और जांच-पड़ताल ही है। पर मुकुल भाई में ये दोनों ही पक्ष मौजूद थे। व्यवस्था परिवर्तन की राजनीतिक लड़ाई में उन्होंने अपनी विज्ञान की शिक्षा व वैज्ञानिक समझ का भरपूर उपयोग किया। तार्किक सवाल उठाये और वैज्ञानिक ढंग से उनकी जांच-पड़ताल की।
इन
सभी बातों के बीच मुकुल भाई
का एक मानवीय पक्ष भी था,
जिसके चलते
जब वो सालों बाद कानपुर आये
तो आई आई टी कानपुर के अपने
हॉस्टल ( हॉल
5) के
उस कमरे में गए जिसमें वो पढ़ाई
के दिनों में रहा करते थे,
निर्झरी जी
को उस रेस्टोरेंट (चुन्गफा)
ले जाना नहीं
भूले जहां कभी वो अपने दोस्तों
के साथ जाया करते थे और अपने
दोस्तों के साथ हॉल 4
कैंटीन में
शाम देर तक अड्डा मारते रहे,
हँसते-हंसाते
रहे। मुकुल भाई की वो जिन्दादिल
मुस्कुराहट हमें हमेशा याद
रहेगी।
मुकुल
भाई के गुजरने के बाद एक बात
जो साफ तौर से समझ आती है कि
भले ही यह जीवन छणिक व अनिश्चित
क्यूं ना हो, इसे
कैसे जीना है ये हमारे अपने
हाथों में है। मुकुल भाई ने
जो विकल्प चुने, वो
उन्हें सच की लड़ाई का एक ईमानदार
और विश्वसनीय कॉमरेड बना गए।