रोहित की मौत के बाद कम से कम टीवी देखकर तो ऐसा ही लगता है कि हर कहीं शोर मचा हुआ है। लेकिन कुछ जगहें ऐसी भी हैं जहां ऐसा सन्नाटा पसरा हुआ है कि मानो कुछ हुआ ही ना हो। खैर इन जगहों, जिनमें अकादमिक संस्थान भी शामिल हैं, की क्या कहें, जहां शोर है वहां भी उत्साह बढ़ाने वाला ज्यादा कुछ दिखता नहीं।
एक आवाज जो इस शोर में काफी मुखर है , छात्रों से इस अंदाज में सवाल करती नज़र आती है कि "तुम यहां पढ़ाई करने आये हो या politics करने?" मुझे यकीन है ऐसे ही सवाल मानेसर के आटोवर्करस् से भी पूछे गये होंगे कि "यहां काम करने आये हो या संगठन बनाकर नेतागिरी करने?"
अगर सरकारें इस आवाज़ को प्राथमिकता देती हैं तो वो कैसे कदम उठाएंगी इस पर किसी को शक नहीं होना चाहिये। वैसे भी पूंजीवाद के इस दौर में जब अकादमिक संस्थान भी मुनाफा कमाने का एक जरिया बन चुके हों तो कौन चाहेगा कि छात्र "politics" करें।
इसे विडम्बना ही कहेंगे कि तमाम अकादमिक संस्थान किसी ना किसी politics का ही नतीजा हैं फिर भी इन संस्थानों में student politics एक खराब बात मानी जाती है। इतिहास में झांककर देखें तो छात्र-राजनीति के कई उदाहरण मिल जायेंगे। लेकिन यहां अगर मैं अपने अनुभव को देखूं तो मैं भी एक इस देश के एक प्रतिष्ठित तकनीकी संस्थान का एक छात्र रहा हूं, हालांकि उस कोर्स के लिये नहीं जिसके लिये वो जाना जाता है। मुझे याद है जब मुझे खबर मिली कि मुझे इतने बड़े संस्थान में दाखिला मिला है, मेरी आंखों में आंसू थे। पहली बार जब मैंने उस संस्थान में कदम रखा तो उसकी विशालता व चमक को देखकर मैं अचरज में था, उम्दा शिक्षक, बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर, विशाल क्लासरूम, कंप्यूटर्स, छात्रों का एक विशाल समूह, हास्टल, हरे मैदान, बढ़िया मेस, दिन-रात चलने वाली कैंटीन, वो सब कुछ मुझे गर्व से भर देता था। अपने मिलने वालों को जब मैं बतलाता कि मैं आई.आई.टी. में पढ़ता हूं तो उनकी नज़र में भी मेरा सम्मान बढ़ जाता। मुझे यकीन है, ये अनुभव सिर्फ मेरा ही नहीं है बल्कि उन तमाम छात्रों का होगा जो ऐसे प्रतिष्ठित संस्थानों में पढ़े हैं। हां ये सवाल जायज है और पूछना भी चाहिये कि आखिर ये संस्थान किस कारण से "प्रतिष्ठित" हैं?
ये सवाल मेरे मन भी उठा। जैसा अक्सर ही होता है जब आप कुछ समय किसी एक जगह पर बिताते हैं तो उसके दूसरे पहलुओं से भी आपका सामना होता है। आपको दिखाई देता है कि यह संस्थान सिर्फ वो सब नहीं है जिसे देखकर आप गर्वान्वित होते हैं। संस्थान सिर्फ शिक्षक, इंफ्रास्ट्रक्चर, क्लासरूम, कंप्यूटर्स, छात्र, हास्टल, हरे मैदान, मेस, दिन-रात चलने वाली कैंटीन भर नहीं हैं। इन सबके पीछे हज़ारों-हज़ार अनाम हाथ भी हैं जो इस संस्थान को चला रहे हैं, जिनकी गिनती संस्थान के बही-खातों में नही होती। आप देखते हैं यह संस्थान अपने परिवेश से एकदम कटा हुआ समुद्र के एक टापू की तरह है। बड़ी-ऊंची बाऊंड्रीवाल, सुरक्षा कर्मियों की एक लंबी-चौड़ी फौज, लोगों की आवाजाही पर तमाम पाबंदिया चीख-चीखकर इसका सबूत देती है। आपके सोच में पड़ जाते हैं, ऐसा क्यूं?
जब आपको दिखाई देता है कि एक तकनीकी संस्थान में बन रही बिल्डिंगों में मज़दूरों से जुड़ी से एक के बाद एक दसियों दुर्घटनाएं होती हैं और आपके मन में यह सवाल उठता है कि आखिर तकनीकी ज्ञान देने वाले संस्थान में ऐसा क्यूं हो रहा है तो क्या यह गलत है? आपको पता चलता है कि एक मजदूर का बच्चा जिसे सोते वक्त सांप काट लेता है और संस्थान के अस्पताल में उसे भर्ती भी नहीं किया जाता और वो मर जाता है; अनेक छात्र सड़क पर उतर आते हैं, संस्थान से जवाबदेही मांगते हैं तो क्या इसमें कुछ गलत है? मौत की घटनाएं एक तरह की फौरी भावुकता को जन्म देती हैं, लेकिन अगर आपको समझ में आये कि इन मौतों का कारण व्यवस्थागत है नाकि व्यक्तिगत और आप अपनी समझ के मुताबिक उस व्यवस्था को दुरुस्त करने व जवाबदेह बनाने की किसी प्रक्रिया से जुड़ जाये तो क्या यह गलत होगा? क्या हमारा समाज और सरकारें ये चाहती हैं कि सोचने-समझने की उम्र में अपने परिवेश से जुड़े ऐसे मुद्दों व सवालों को दरकिनार करते हुए छात्र सिर्फ अपनी "पढ़ाई" पर ध्यान दें; सिर्फ "skill" develop करेंं? नीतियां देखकर तो लगता है कि मंशा भी यही है। हम अपनी शिक्षा व्यवस्था से पूंजी के "विकास" के लिये सिर्फ ऐसे कलपुर्जे बनाने पर आमादा हैं जो सिर्फ वही देखें व सोचें जो यह व्यवस्था दिखाना और सोचवाना चाहती है। इसके अलावा अगर और कुछ देखना और सोचना हो तो बाहर या ऊपर जाने के रास्ते खुले हुए हैं।
मैं रोहित को नहीं जानता, मुझे नहीं पता कि उनका संगठन किस तरह की गतिविधियों से जुड़ा हुआ था। लेकिन मैं यह जानता हूं कि एक फांसी का विरोध करने पर रोहित व उसके साथी anti-national नहीं बन जाते। मैं यह भी जानता हूं कि रोहित और उसके संगठन पर castiest होने का आरोप लगाना दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं बल्कि बचकाना है। हमारे समाज की जिस ब्राहमणवादी सोच ने दलितों-पिछड़ों को शोषण किया है वो castiest है। और अगर इस सोच का विरोध करना एक रेडिकल politics करना है तो फिर यही सही।
रोहित सपने देखने वाला एक युवा था। मुझे बहुत दुख है कि वो इस स्थिति तक पहुंचा कि उसे आत्महत्या करनी पड़ी। मेरे पास उस स्थिति से निपटने का कोई तैयार नुस्खा तो नहीं लेकिन मैं मोटे तौर पर इतना समझता हूं उसकी इस स्थिति तक पहुंचने का कारण व्यक्तिगत नहीं बल्कि व्यवस्थागत है और व्यवस्था से लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती।
एक आवाज जो इस शोर में काफी मुखर है , छात्रों से इस अंदाज में सवाल करती नज़र आती है कि "तुम यहां पढ़ाई करने आये हो या politics करने?" मुझे यकीन है ऐसे ही सवाल मानेसर के आटोवर्करस् से भी पूछे गये होंगे कि "यहां काम करने आये हो या संगठन बनाकर नेतागिरी करने?"
अगर सरकारें इस आवाज़ को प्राथमिकता देती हैं तो वो कैसे कदम उठाएंगी इस पर किसी को शक नहीं होना चाहिये। वैसे भी पूंजीवाद के इस दौर में जब अकादमिक संस्थान भी मुनाफा कमाने का एक जरिया बन चुके हों तो कौन चाहेगा कि छात्र "politics" करें।
इसे विडम्बना ही कहेंगे कि तमाम अकादमिक संस्थान किसी ना किसी politics का ही नतीजा हैं फिर भी इन संस्थानों में student politics एक खराब बात मानी जाती है। इतिहास में झांककर देखें तो छात्र-राजनीति के कई उदाहरण मिल जायेंगे। लेकिन यहां अगर मैं अपने अनुभव को देखूं तो मैं भी एक इस देश के एक प्रतिष्ठित तकनीकी संस्थान का एक छात्र रहा हूं, हालांकि उस कोर्स के लिये नहीं जिसके लिये वो जाना जाता है। मुझे याद है जब मुझे खबर मिली कि मुझे इतने बड़े संस्थान में दाखिला मिला है, मेरी आंखों में आंसू थे। पहली बार जब मैंने उस संस्थान में कदम रखा तो उसकी विशालता व चमक को देखकर मैं अचरज में था, उम्दा शिक्षक, बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर, विशाल क्लासरूम, कंप्यूटर्स, छात्रों का एक विशाल समूह, हास्टल, हरे मैदान, बढ़िया मेस, दिन-रात चलने वाली कैंटीन, वो सब कुछ मुझे गर्व से भर देता था। अपने मिलने वालों को जब मैं बतलाता कि मैं आई.आई.टी. में पढ़ता हूं तो उनकी नज़र में भी मेरा सम्मान बढ़ जाता। मुझे यकीन है, ये अनुभव सिर्फ मेरा ही नहीं है बल्कि उन तमाम छात्रों का होगा जो ऐसे प्रतिष्ठित संस्थानों में पढ़े हैं। हां ये सवाल जायज है और पूछना भी चाहिये कि आखिर ये संस्थान किस कारण से "प्रतिष्ठित" हैं?
ये सवाल मेरे मन भी उठा। जैसा अक्सर ही होता है जब आप कुछ समय किसी एक जगह पर बिताते हैं तो उसके दूसरे पहलुओं से भी आपका सामना होता है। आपको दिखाई देता है कि यह संस्थान सिर्फ वो सब नहीं है जिसे देखकर आप गर्वान्वित होते हैं। संस्थान सिर्फ शिक्षक, इंफ्रास्ट्रक्चर, क्लासरूम, कंप्यूटर्स, छात्र, हास्टल, हरे मैदान, मेस, दिन-रात चलने वाली कैंटीन भर नहीं हैं। इन सबके पीछे हज़ारों-हज़ार अनाम हाथ भी हैं जो इस संस्थान को चला रहे हैं, जिनकी गिनती संस्थान के बही-खातों में नही होती। आप देखते हैं यह संस्थान अपने परिवेश से एकदम कटा हुआ समुद्र के एक टापू की तरह है। बड़ी-ऊंची बाऊंड्रीवाल, सुरक्षा कर्मियों की एक लंबी-चौड़ी फौज, लोगों की आवाजाही पर तमाम पाबंदिया चीख-चीखकर इसका सबूत देती है। आपके सोच में पड़ जाते हैं, ऐसा क्यूं?
जब आपको दिखाई देता है कि एक तकनीकी संस्थान में बन रही बिल्डिंगों में मज़दूरों से जुड़ी से एक के बाद एक दसियों दुर्घटनाएं होती हैं और आपके मन में यह सवाल उठता है कि आखिर तकनीकी ज्ञान देने वाले संस्थान में ऐसा क्यूं हो रहा है तो क्या यह गलत है? आपको पता चलता है कि एक मजदूर का बच्चा जिसे सोते वक्त सांप काट लेता है और संस्थान के अस्पताल में उसे भर्ती भी नहीं किया जाता और वो मर जाता है; अनेक छात्र सड़क पर उतर आते हैं, संस्थान से जवाबदेही मांगते हैं तो क्या इसमें कुछ गलत है? मौत की घटनाएं एक तरह की फौरी भावुकता को जन्म देती हैं, लेकिन अगर आपको समझ में आये कि इन मौतों का कारण व्यवस्थागत है नाकि व्यक्तिगत और आप अपनी समझ के मुताबिक उस व्यवस्था को दुरुस्त करने व जवाबदेह बनाने की किसी प्रक्रिया से जुड़ जाये तो क्या यह गलत होगा? क्या हमारा समाज और सरकारें ये चाहती हैं कि सोचने-समझने की उम्र में अपने परिवेश से जुड़े ऐसे मुद्दों व सवालों को दरकिनार करते हुए छात्र सिर्फ अपनी "पढ़ाई" पर ध्यान दें; सिर्फ "skill" develop करेंं? नीतियां देखकर तो लगता है कि मंशा भी यही है। हम अपनी शिक्षा व्यवस्था से पूंजी के "विकास" के लिये सिर्फ ऐसे कलपुर्जे बनाने पर आमादा हैं जो सिर्फ वही देखें व सोचें जो यह व्यवस्था दिखाना और सोचवाना चाहती है। इसके अलावा अगर और कुछ देखना और सोचना हो तो बाहर या ऊपर जाने के रास्ते खुले हुए हैं।
मैं रोहित को नहीं जानता, मुझे नहीं पता कि उनका संगठन किस तरह की गतिविधियों से जुड़ा हुआ था। लेकिन मैं यह जानता हूं कि एक फांसी का विरोध करने पर रोहित व उसके साथी anti-national नहीं बन जाते। मैं यह भी जानता हूं कि रोहित और उसके संगठन पर castiest होने का आरोप लगाना दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं बल्कि बचकाना है। हमारे समाज की जिस ब्राहमणवादी सोच ने दलितों-पिछड़ों को शोषण किया है वो castiest है। और अगर इस सोच का विरोध करना एक रेडिकल politics करना है तो फिर यही सही।
रोहित सपने देखने वाला एक युवा था। मुझे बहुत दुख है कि वो इस स्थिति तक पहुंचा कि उसे आत्महत्या करनी पड़ी। मेरे पास उस स्थिति से निपटने का कोई तैयार नुस्खा तो नहीं लेकिन मैं मोटे तौर पर इतना समझता हूं उसकी इस स्थिति तक पहुंचने का कारण व्यक्तिगत नहीं बल्कि व्यवस्थागत है और व्यवस्था से लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती।