Tuesday, September 8, 2020

कैसा-कैसा जाना

आजकल कुछ टीवी सीरीज्स कई ऐसी वैज्ञानिक कल्पनाओं को सामने रख रहे हैं, जहां‌ इंसान अपनी मृत्यु के बाद भी किसी ना किसी रूप में बना रहता है। Black Mirror नाम की सीरीज के एक ऎपीसोड में तकनीक इस स्तर पर पहुंच गई है जिसमें एक मरे हुए इंसान की खूबियों को एकदम उस जैसी ही दिखने वाली एक साफ्ट मशीन में डाल दिया जाता है। इन खूबियों से जुड़ी जानकारियों को इंटरनेट व उस व्यक्ति के डिजीटल फूटप्रिंट्स से इकठ्ठा किया जाता है। वो मशीन ठीक उस इंसान की तरह ही बोलती है, चलती है, व्यवहार करती है। हां, क्यूंकि मशीन है, इसलिये सो नही सकती। पर साथ वालों को अजीब ना लगे, इसलिये चुपचाप आंख बंद कर पड़ी रहती है। एक दूसरी सीरीज Upload में अगर कोई चाहे और उसकी जेब में पैसे हों तो मरने से पहले अपनी consciousness (चेतना) किसी कंपनी के सर्वर पर upload कर सकता है। इस जीवित चेतना को एक virtual अवतार दिया जाता है और रहने के लिये एक virtual दुनिया। जो जितना ज्यादा पैसा खर्च करेगा, उसके लिये उतनी ही बढ़िया व्यवस्था की जायेगी। मरने वाला या तो मरने के पहले ही इस व्यवस्था के लिये पैसे दे चुका होता है या फिर उसके जीवित घर वाले हर महिने उसके रहने-खाने (virtual) का खर्च (असली रुपयों में) उठाते हैं।

खैर कौन जाने भविष्य के गर्भ में क्या छुपा है।  फिलहाल के लिये तो यही सच है कि जो आएगा, वो जायेगा। और जाने के बाद जिंदा रहेगा तो भी उसे याद करने और रखने वालों की यादों में।

मैं भी नीचे कुछ ऐसे लोगों को याद कर रहा हूं, जिनमें से कुछ को तो मैंने कभी नही देखा क्यूंकि वे मेरे पैदा होने से पहले ही गुजर गये। कुछ एक से मैं एक-दो बार ही मिला और कुछ के साथ कई बार, साथ में भी रहा।  

1996 की बात है। मेरी सबसे बड़ी बुआ, जिन्हें मैं दादी कहता था, नौरोज़ाबाद के कालरी अस्पताल में‌ भर्ती थीं। उम्र उनकी चौसठ-पैंसठ के करीब थी और शरीर भारी। अच्छी सी थीं वो। हाथ का काफी काम जानती थी। मैंने भी उनसे सीखा था कुछ-कुछ। मैं दसवीं बोर्ड की परीक्षा देकर नतीजों के इंतज़ार में था। पिछली क्लास ही मैं इस अंग्रेजी मीडियम स्कूल में आया था। अंग्रेजी में पढ़ाए जाने वाले विषयों में कुछ समझ नहीं आता था तो मैं उन कक्षाओं को बंक मारकर क्रिकेट खेला करता था। मैं अच्छा खेलता भी था तो मुझे मज़ा भी आता था। शायद मुझे लगता था कि मैं वो कर रहा हूं जिसमें मुझे मज़ा आता है। मेरी परिक्षाएं इतनी अच्छी नहीं गई थीं। जो नतीजा आने वाला था, उसमें अगर क्रिकेट के मार्क्स मिलते तो शायद बेहतर होता।

मेरा घर अस्पताल से काफी करीब था, कुछ दो सौ मीटर की दूरी पर। मैं और मेरे दोनों छोटे-भाई बहन भी इसी अस्पताल में‌ ही पैदा हुए थे। छोटा सा कस्बा सा था नौरोज़ाबाद, डाक्टर, नर्सेस और बाकी स्टाफ सबको जानते थे। और उस पर मेरे चाचा  (असल में मेरे फुफेरे भाई और मेरी बुआ के इकलौते बेटे)  तो अफसर थे, लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा शायद ये बात थी कि मेरे दादा-दादी (बुआ-फूफा) भी पहले काफी साल यहीं रह चुके थे और उनकी अपनी भी पहचान थी।  परिक्षाओं के बाद की एक सुबह मैं पर्सनल केबिन में दादी के पास अस्पताल में था। चाचा रात वहीं बिताकर नहाने-धोने के लिये घर गये थे। दादा जी वहीं अस्पताल में ही थे लेकिन लेटे हुए थे। शायद सो रहे थे।

दादी को रात भर शायद आक्सीजन पर रखा गया था। और सुबह जब नर्स आईं तो कुछ देर के लिये आक्सीजन हटा दी गई। या ऐसा ही कुछ हुआ था। मैं दादी के सामने ही बैठा था। बस वो और मैं। अचानक से उन्हें सांस लेने में दिक्कत होने लगी। मुझे कुछ समझ में आता, इससे पहले ही उन्होंने एक-दो बार मुंह खोलकर सांस लेने की कोशिश की और फिर एक तरफ लुढ़क गईं। मैंने झट दादाजी को जगाकर सब बताया, वो दादी के करीब गये और फिर उन्होंने समझाया कि दादी नहीं रहीं। उन्होंने मुझसे दादी के मुंह में पानी डालने को कहा। मैंने पहली बार किसी को अपने सामने मरते हुए देखा था। अस्पताल में क्या हुआ, ये तो मुझे ठीक से याद नहीं, पर मैं भागता हुआ घर गया था और चाचा जी को खबर दी थी। वो अपने आप को कोस रहे थे कि रात भर तो मां के पास रहे और फिर जब वो विदा हुईं तो उनके साथ नही थे। मेरे पापा भी शायद उस दौरान नौरोज़ाबाद में नही थे। दादा-दादी उन्हें बहुत मानते थे, कई मायनो में‌ शायद चाचा से भी ज्यादा। वो भी काफी खफा थे कि आखिरी समय में दादी के पास नही थे वो।

उन्हें जाते बस मैंने देखा, जिसने शायद सबसे कम दुनिया देखी थी। जब मेरा नतीजा आया तो अंग्रेजी में 100 में से 38 नंबर लाने के बावजूद मैं पास हो गया था। कई दिनों तक तो मैं इसका श्रेय मरने वाले के मुंह में आखिरी बार पानी देने के अपने काम को देता रहा। वैसे असल में‌ मेरे पास हो जाने का और उसी स्कूल में 11वीं में एडमिशन पाने का असली कारण थीं मेरी गणित की टीचर, जो इन दिनों केरल में रहती हैं। इत्तॆफाक से उनकी अपनी मां भी दो महिने पहले गुज़र गईं। मैं उनके संपर्क में दोबारा से आया क्यूंकि मैं उनसे मिलने गया था उनके घर पर केरल।

मेरी बुआ दादी तो थोड़ा कष्ट लेकर गईं। पर मेरी असली दादी के जाने का किस्सा भी काफी अनूठा है। मेरी दूसरे नंबर की बुआ (पिछले साल जो गुजरीं) जो स्कूल में लेक्चरर थी कि नौकरी लगने के बाद, मेरे असल दादा-दादी और लाला जी (दादा जी के बड़ॆ भाई) परासिया से अपना बोरिया-बिस्तर समेट के पाली आकर रहने लगे (पाली और नौरोज़ाबाद की दूरी 10 किमी भी नहीं)। पापा तो पहले से ही उनके साथ रहते थे। बुआ के सरकारी घर के सामने ही सरकारी अस्पताल के डाक्टर्स क्वाटर्स थे। एक दिन मेरे ताऊ जी दादी को लेकर डाक्टर साहेब के घर बीपी चेक करवाने के लिये गये। डाक्टर अंकल मेरे स्कूल के बहुत अच्छॆ दोस्त के पिता जी। अब तो उन्हें गुजरे भी बहुत साल हो गये। जीवन में कम मानसिक कष्ट नही देखे उन्होंने। उनके चार बच्चे थे; तीन लड़के और एक लड़की।  मझला लड़का बचपन में कहीं गायब हो गया। शादी-शुदा बड़ा लड़का पानी में डूब के मर गया।

खैर, बीपी चेक करने के बाद डाक्टर साहब दादी के साथ हंसी-मजाक कर रहे थे। दादी भी हंस रही थी। और फिर अचानक से एक ओर लुढ़क गईं। वो मर गई थीं, हंसते-हंसते। मेरे ताऊ जी को डाक्टर की बात पर यकीन नही हुआ और उन्होंने एक चांटा उन्हें दे मारा कि मां तो एकदम ठीक थीं, फिर कैसे?  

मैंने अपने दादा-दादी और नाना को नहीं देखा। लेकिन नानी से दो बार मिला। वो बक्सर बिहार में रहती थीं। पूजा-पाठ, धर्म-कर्म, दायरे-समाज मानने वाली महिला थीं। लेकिन मजबूत थीं। मेरी मां की शादी हो जाने के बाद चुपचाप बक्सर बिहार से मेरी मां और उनका घर-संसार देखने आईं और घर के सामने से देखकर चली गईं - अकेले।  

काफी बड़ा घर था मेरे नाना-नानी का। मेरी मम्मी के दादाजी अंग्रेजों के मुलाजिम थे - नहरों के ओवर्सीयर। काफी ज़मीन थी, चावल और तेल मिल तो घर के बड़े से अहाते ही मे थीं। अहाता इतना बड़ा कि  क्रिकेट का मैच हो जाये। अब सब जाता रहा है। बिहार में अब कोई नहीं रहता - मां के परिवार का। बाहरी लोग थे (पंजाब के) तो वहीं लौट गये हैं। कुछ साल पहले मम्मी को लेकर हम सब गये थे बनारस से उनका घर दिखाने। समय के साथ उनका गांव धनसॊईं भी इतना बदल गया कि मम्मी कॊ काफी समय लगा अपना घर ढूंढनें में। पूछना पड़ा लोगों से। अब उनके घर में एक पूरा स्कूल चलता है। मुझे अपना मम्मी के साथ जाना सफल लगा क्यूंकि इत्तेफाक से मम्मी को बचपन की अपनी सबसे पक्की दोस्त सीता मौसी वहां उसी दिन मिल गईं। वो भी आईं हुई थीं उसी दौरान। हम ऐसे ही पूछते-पूछ्ते उनके घर पहुंच गये और फिर तो खुशी के आंसुओं की झड़ी लग गई।

मैं छोटा ही था, शायद दूसरी कक्षा में पढ़ता था, हम लोग गर्मी की छुट्टियों में नानी के घर गये। इत्तेफाक कुछ ऐसा हुआ कि मेरी मौसी और कई मामा-वगैरह भी पहुंचे हुए थे। घर पर रौनक लगी हुई थी। मेरी नानी काफी खुश थी, उनकी सभी नहीं तो ज्यादातर संतानें सामने थीं। रात में बहुत अच्छे से उन्होंने खाना खाया, दाल-रोटी (पंजाबियों का डिनर); दाल तो दो कटोरी। हम सब बच्चे छत पर सोने के लिये चले गये। लेकिन बीच रात में नीचे से रोने की आवाजें आने लगीं। पता चला कि नानी गुज़र गईं थीं। खाना खाने के बाद उन्हें शायद थोड़ी बेचैनी लगी। उन्होंने लोगों से कहकर अपने कमरे के दरवाजे खुलवा दिये और सामने अलमारी में रखे अपने भगवान के पट भी खोलने के लिये कहा। बस, वही देखते-देखते चली गईं।

इन सब जाने वाले लोगों में से जिस एक व्यक्ति का जाना मेरे लिये सबसे ज्यादा दु:खद था वो था मेरे बड़े चचेरे भाई का। मैं बचपन और स्कूल के दिनों में उनके काफी करीब था। बाद के सालों में तमाम कारणों से हमारी बातचीत कम होती थी। पर जो भी हो, उसका काफी असर रहा मेरे जीवन और उसकी दिशा पर। 37 साल की उम्र में एक सड़क दुर्घटना में वो और उनका पांच साल का बेटा गुजर गये। एक पकी हुई उम्र में कोई जाये तो उतना कष्ट नही होता, जितना एक जवान मौत पर।

कुछ लोग एक बार में अचानक ही चले जाते हैं। पर कुछ ऐसे भी होते हैं जिनकी जान काफी मजबूत होती है, निकलती ही नही। हमारे मोहल्ले में एक बहुत बूढ़ी अम्मा थीं, पड़ोस का एक घर छोड़कर ही रहती थीं। कमर नब्बे अंश के कोण पर छुकी हुई थी, उम्र भी शायद उतनी ही रही हो, घुटने पकड़कर चलती थीं। मुझे उनकी याद है। कहते हैं वो बार-बार मर के जिंदा हो जाती थीं। शायद लोग उनकी बेहोशी को मृत्यु समझ लेते हों। खैर चली ही गई एक दिन वो; शरीर एकदम सूख के कांटा, बस सिलवटी चमड़ी और हड्डियां।

आईआईटी के दिनों में मेरे एक शिक्षक मित्र के पिता जी कैंपस में ही रात को सोते-सोते गुज़र गये। कोई फौरी दिक्कत नही थी। मस्त भीमकाय आदमी थे। सुबह खबर मिली तो हम भी शरीक हुए शोक मण्डली में।  अंकल तो गुज़र गये लेकिन एक व्यवहारिक दिक्कत थी। जिस कमरे में वो सोये थे उससे बाहर निकलने का बस एक ही दरवाज़ा था, जो कि एक संकरे से गलियारे में खुलता था। अंकल का शरीर काफी भारी और बड़ा था। कमरे से बाहर निकालकर खुली जगह में रखने में काफी दिक्कत हुई। मण्डली में सबसे जवान शायद मैं ही था तो इस उपक्रम में मैंने कुछ ज्यादा ही जोर लगा दिया। कई दिनों तक मेरी कोहनी दुखती रही। भैरव घाट में जहां अंकल को मुखाग्नि दी गई वहां लकड़ियां तुलवाते हुए एक दुबले-पतले महाशय दूसरे से कह रहे थे कि अंकल जी को घी कम लगेगा। सामने वाले का जवाब था - हां और आपके समय तो काफी चाहिये होगा।

Thursday, June 18, 2020

Examination in the Times of Corona

In our country, examinations have come to occupy a somewhat divine space in the public imagination. So much so that, young kids are raised with a determined focus of cracking one examination or the other. Not that assessments of some sort were not there in the traditional systems. But, the importance that mass-based standardized examinations are given in the modern education system is unprecedented.

Conducting examinations has become one of the core activities of the modern education system. In their normal functioning, schools and colleges conduct many examinations. Also, with the push towards a semester system which emphasize continuous mode of assessment, the frequency of examination has increased many-fold. Some argue that this system is best suited for learning as it comes with continuous feedback throughout the course of a semester. While, there are others who believe that too much of stress on examination is counterproductive, as true learning happens when the mind is free from any undue pressure associated with examinations.

We may not be interested in a detailed comparison of these traditions of thoughts. But, the peculiar, unprecedented, and uncertain situation which has arisen in the wake of a pandemic has forced all the temples of modern education to rethink and plan their teaching and assessment activities.

If we focus only on the higher educational institutes and examinations, there are many leading institutions in this country and the world which have promoted their students without conducting the due exams for the current semester. One would like to believe that the underlying feeling and thought behind this decision was that their students do not feel further pressurized in these times. At the same time, there are institutions who want their students to forget about their material and psychological conditions and to worry about the due date of the last assignment and the coming exams in online mode.

But what exactly are these conditions of our times?

Some of the conditions may be common like fear and anxiety of getting the disease, unequal access to the required devices, electricity supply and internet connectivity. Whereas, there could be situations that are peculiar to the social location which could be geographic as well as socio-economic.

Think about a student from the hilly terrain having poor connectivity, whose family income has gone down the drain as the roadside Dhaba which his family manages is closed for the past two months; Similarly, there could be a student, whose house got damaged during the recent floods/cyclone and is living without electricity for many days in a makeshift camp; Or another, who is struggling because she is living in a region which is under lock-down for past one year. Near her village, an encounter between the security forces and the insurgents has just ended; Or try to imagine the one, who is struggling to focus on online instructions in a small house with many family members, some of whom require constant care.
To these cases, if one adds the students having disabilities of different kinds, who suffer because they lack support even in normal circumstances, then one is compelled to ask;

Do these students need examinations in these times? Do these institutions have resources to conduct online examinations while providing a level playing field to their students?

The answers to both these questions are a clear No.
Even the UGC guidelines on examination for the universities in view of Covid19 pandemic and subsequent lockdown, April 2020, suggest

Like the modes of teaching-learning, most of the universities follow the physical mode of examinations, with a few exceptions. On this aspect also, some of the universities lack adequate IT infrastructure for conducting online examinations. The hiring of private agencies for conducting online examinations also does not seem feasible... Therefore, keeping in view the basic infrastructure available at the level of the institutions and accessibility of the internet to the students, especially in remote areas, it is not feasible to uniformly adopt the online mode of examination at this juncture.”

As per the official data on the key indicators of household social consumption on education in India, National Statistical Office, in their 75th survey, conducted between July 2017 to June 2018, has reported that only 10.7% of the Indian households have computers and 23.8% have the facility of internet connection. These are overall figures with a large urban-rural divide and difference among various states. For a state like Assam, these numbers are 7.5% (rural 3.7%, urban 30.8%) and 17.0% (rural 12.1%, urban 46.9%), respectively.

In my opinion, these are the reasons why conducting examinations should not be a priority of any academic institution in these times. Many leading institutions who are concerned about the quality and academic integrity of any such process have rightly done so.

The decision of not conducting the due examinations have given their students immediate relief. And, have given these institutions an opportunity and time to think beyond the box. Not that it will necessarily lead to a system that is just, humane and equitable in the long run.

At this juncture, one may ask what should the publicly funded institutions, where the students come from diverse social backgrounds, do?

In my humble opinion, this crisis has given the public institutions an opportunity to focus on their role which they are supposed to play in society. These times have given us, the teachers, a unique opportunity to know our students in much better and humane ways, which can get reflected in the ways we adapt for teaching-learning and assessment in future.

For the time being, these institutions should tell their students, not to worry about their exams/marks/grades, take care of themselves, their families and friends in these difficult times, and think about the future and the possibilities it holds.

Let us not hold these young minds from imagining a world which is more just, humane and equitable. One way to make them care for these values is to show that WE care for them.

An edited version of this piece was published in The Assam Tribune (June 18, 2020)