अंधेरे हमें नहीं डराते,
हम उजालों से डरते हैं
गुलामी की तो आदत है हमें
हम आज़ादी से डरते हैं
सरेआम किसी का काटा जाना
उतना नहीं डराता हमें
जितना हम बीच सड़क
प्यार के इज़हार से डरते हैं
चालीसा तो डर के पढ़ते ही थे
इन दिनों हम अज़ान से भी डरते हैं
हम भीड़ से डरते हैं
हम तन्हा भी डरते हैं
हम ख्यालों से डरते हैं
हम सवालों से डरते हैं
हम सपनों से डरते हैं
हम अपनों से डरते हैं
हम कहने से डरते हैं
हम सुनने से डरते हैं
हम जीने से डरते हैं
हम मरने से डरते हैं
हमारे इसी डर पर ये निकम्मा निजाम टिका हुआ है
हम शायद ये बात जानते तो हैं,
फिर भी डरते हैं।