Wednesday, February 12, 2025

आई आई टी कानपुर के धोबी किस बात की सजा पा रहे हैं?

आखिरकार राष्ट्रीय महत्व के एक निगमित निकाय आई आई टी कानपुर ने पिछले साठ साल से कैम्पस समुदाय व छात्रों को अपनी सस्ती, सुविधाजनक व नियमित सेवाएं दे रहे धोबी समुदाय के लोगों को अनाधिकृत करार देते हुए उन्हें अपने घरों, गोदामों व हौज से बेदखल करने का फैसला सुना ही दिया। 

क्या धोबी समुदाय ने एक दिन अचानक से आकर आई आई टी, जहां परिंदे भी प्रशासन से सलाह-मशविरा करके अपने घोंसले बनाते हैं, के अंदर जमीन को कब्जा लिया और अपने घर,गोदाम और हौज बना लिये? नहीं; स्वयं आई आई टी ने उन्हें कैंपस में बुलाकर काम करने की जगह दी व चूंकि धोबियों का काम एक कुटीर उद्योग सरीखा है उन्हें रहने के लिए जगह भी दी। क्या ये घर धोबियों ने बनाए? नहीं; आई आई टी ने बनाकर दिये। ठीक वैसे ही जैसे आई आई टी ने अपने शिक्षकों, कर्मचारियों को दिये। फर्क इतना है कि आई आई टी के शिक्षक व कर्मचारी काम के दौरान मोटी-मोटी तनख्वाह पाते हैं व मोटी-मोटी पेंशन व ग्रेच्युटी पाकर सेवानिवृत्त हो जाते हैं। आई आई टी के अपने क्वाटर्स छोड़कर चले जाते हैं, कहीं और सम्मान के साथ जीवन यापन करने। 

और ये धोबी आज भी 10 रुपये प्रति कपड़े की दर से लोगों के घरों, छात्रों के कमरों से कपड़े ले जाकर; उन्हें साफ सुधरा कर वापिस छोड़ आते हैं।  

पर इन धोबियों को अपमानित कर,उन्हें अनाधिकृत बना कर बेदखल किया जा रहा है। माना कि जिन लोगों के नाम पर क्वाटर्स आवंटित किए गये थे उनमें से अधिकतर नहीं रहे, लेकिन क्या मात्र इस बात से वे अनाधिकृत हो गये? हमारे देश में धोबी एक व्यक्ति नहीं,एक पूरा परिवार,एक पूरा समुदाय होता है। जो हमारे देश की यह हकीकत नही समझते वो भले ही कितने ही बड़े साहिब ही क्यूं ना हों, कितने ही धुरंधर अकादमिक तीरंदाज ही क्यूं ना हो, सामजिक तौर पर अनपढ़ हैं। हमारे देश में धोबी कोई अपनी मर्जी से नही बनता; पैदा होता है। ठीक बाल्मीकी साथियों की तरह, जिन्हें आसानी से दूसरा काम नहीं मिलता।

आई आई टी में रहने वाला धोबी समुदाय भी ठीक ऐसा ही है। पूरा परिवार धोबी का काम करता है। बड़े-बूढ़े, बच्चे, जवान, आदमी-औरत, सभी। कोई कपड़े धोता है, कोई ईस्त्री करता है, कोई सुखाता है, कोई निगरानी करता है, कोई समेटता है, कोई बांटता है। सब मिलजुलकर काम करते हैं। आई आई टी ने घर के बड़े पुरुष के नाम मकान जारी कर संस्थान की पुरुषवादी सोच का ही नज़ारा दिया है। और अगर ये पुरुष नही रहा तो कपड़े धोने का काम खत्म तो नही हो गया। वो परिवार अब भी वही काम कर रहा है, पहले की ही तरह। 

आई आई टी प्रशासन कहता है कि मकान अब रहने लायक नहीं। क्या आई आई टी प्रशासन की जिम्मेदारी नही थी कि इन मकानों की समय-समय पर मरम्मत की जाये? क्यूं आई आई टी ने कभी ये नहीं सोचा कि इन धोबियों की काम करने की जगह शौचालय बनाकर दिये जाएं? क्या संस्थान के विभागों में भी ऐसा ही है? बिल्कुल नही। क्यूं धोबी समुदाय के साथ ये सौतेला बर्ताव किया गया और अब भी किया जा रहा है?

माना कि आई आई टी को बढ़ने के लिये जगह की जरूरत है; पर क्या इसके लिये आई आई टी के अंदर रहने वाले सबसे कमजोर व पिछड़े वर्ग को ही बलिदान करना पड़ेगा? अपनी जगह से हटा देने के बाद धोबी परिवार कहां जाएंगे? उनके काम का क्या होगा? उनके घर-परिवार की रोजी-रोटी कैसे चलेगी? 

क्या राष्ट्रीय महत्व के एक निगमित निकाय को यह सब सोचना शोभा नही देता? अगर एक राष्ट्रीय महत्व का संस्थान अपने समुदाय के कमजोर व पिछड़े वर्ग को महत्व नहीं दे सकता तो राष्ट्र निर्माण की बात उसके मुंह से बेमानी लगती है।

क्या इतने दशकों से समुदाय के हित में काम कर रहे इन परिवारों का यही हाल होना था कि उन्हें अपमानित कर बेदखल किया जाए? किस अपराध में?  

क्या आई आई टी कानपुर की कोई सामाजिक जवाबदेही या सरोकार नही? 

आखिर क्यूं नहीं आई आई टी को इन सभी के लिये कोई वैकल्पिक व्यवस्था करनी चाहिये? या क्यूं नही आई आई टी को इन सभी परिवारों को अपना आज का बना-बनाया काम छोड़कर अनिश्चितता में हाथ-पैर मारने के एवज में मुआवजा देना चाहिये? क्या ये परिवार इतने के भी हकदार नहीं? 

क्या अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिये आई आई टी इन परिवारों को दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंक देगा? 

ऐसा करके आई आई टी अपनी जातिवादी मानसिकता का ही परिचय देगा।

No comments:

Post a Comment