Friday, August 22, 2014

दो संवाद

पहला

"अरे भैया, पिचकू है क्या?"

"पिच्च्च्क्कू! ये क्या होता है?"

"अरे ईमली की चटनी।"

"नहीं भईया, वो तो नहीं है। ईमली है कच्ची। सस्ती भी पड़ेगी। दे दें?"

"पिचकू तो नहीं मिल रहा कहीं। चलिये दे दीजिये 100 ग्राम। वैसे अच्छा तो होगा ना। दही-बड़े के साथ की चटनी बनाने के लिये?"

"अरे भईया का बात करत हो। बहुत बढ़िया होगा। अच्छा एक बात और कहें आपसे?"

"हां-हां, बतलाईये।"

"आप लोगों ने ना औरतों की आदत खराब कर दी है, ये सब बना-बनाया सामान खरीद कर। पिचकू-फिचकू और ना जाने क्या-क्या। अरे कुछ काम-वाम भी करने दीजिये उन लोगों को। बस, बैठे-बैठे आराम से मुटाया करती हैं।"

"हम्म्म्म्म!"

"अरे हम लोग इतना काम करते हैं, कुछ वो भी तो करें।"

"लाईये भैया ईमली, कितना हुआ?"


दूसरा

"बढ़िया करवा लिये आपने नीचे के कमरे टाईल्स वगैरह लगवाकर।"

"हां जी, बहुत दिनों से विचार था, हो ही गया।"

"वैसे कितने दिनों तल चला काम?"

"यही कोई 4-5 महिना। दो-चार मजदूर लगे। हो गया।"

"कितनी मज़दूरी है यहां आजकल?"

"250-300 दिहाड़ी, पर आजकल मज़दूर मिलने में दिक्कत होती है।"

"अरे आपको तो मिल गये। हमारे यहां तो मिलते ही नहीं। सरकार 2 रुपया किलो चावल और 5 रुपये किलो दाल बांट रही है। बैठे-बिठाये मिल रहा है। फिर कोई काम क्यूं करे। सब अलाल हुए पड़े हैं।"






आखिर इन दिनों बनारसी सो क्यों नहीं‌ पाते?

मौका मिला है तो एक चुटकी ले ही ली जाए।

ज़रा सोचिये, आप बनारस में हों। गरमी की एक रात आपने उनींदी ही बिताई है क्यूंकि बिजली रात भर आंख-मिचौली खेलती रही और फिर सुबह जैसे ही आप अखबार की हेडलाईन देखते हैं, बड़े-बड़े अक्षरों में‌ लिखा मिलता है।





Thursday, April 24, 2014

संत मोदी

इन दिनों जिधर नजर पड़ती है वहीं संत मोदी की धूम है. उनके साक्षात्कारों में उनकी बातें‌ सुनकर कबीर का वो दोहा याद आ जाता है कि 

ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोइ,
अपना तन शीतल करे, औरन को सुख होइ। 

जाने उनकी वाणी में ये परिवर्तन कब हुआ और क्यूं, पर कुछ सालों पहले तक तो उनके जीवन का मूल-मंत्र जो मुझे समझ आता था वो ये था कि.

ऐसी वाणी बोलिये, जम के झगड़ा होये, 
और उससे कुछ मत बोलिये जो आप से तगड़ा (corporate-houses) होये। 
(Courtesy: Raju Srivastava interpretation mine) 

खैर कभी कभी तो लगने लगता है कि सच में मोदी संत हो गये हैं। और उनकी बातों में सच्चाई है, वो सच में विकासपुरूष ही हैं। पर जब हाल ही में कुछ जानकारियां मिली जो मोदी के गुजरात विकास के दावों की बखियां उखाड़ देती हैं तो बोधिसत्व नाम के एक जनकवि की कुछ लाईनें याद आ गईं।

तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है,
मगर ये आंकड़े झूठे हैं, ये दावा किताबी है...

उधर जम्हूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो, 
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है।


Dr. Atul Sood on the Truth Behind Modi's Development Model


A documentary by Gopal Menon busting the myths about Narendra Modi's vibrant Gujrath campaign

http://www.countercurrents.org/menon190414.htm