Monday, March 7, 2011

क्यूँ?




कितनी आसानी से हम अपने घरों, अपने समाज में महिलाओं की भूमिका भूल जाते हैं. अब देखिये ना, मेरे पिताजी पिछले महीने अपने काम से रिटायर्ड हुए. इस मौके पर उनके सम्मान में बिदाई समारोह का आयोजन किया गया. जिसमें उन्हें बुलाया गया, उनका सम्मान किया गया. वो इस सम्मान के लायक भी हैं. अपना काम जिम्मेदारी से किया उन्होंने. पर एक सवाल जो मेरे दिमाग में आता है वो ये कि क्या मेरी माँ के बिना मेरे पिताजी का उनके काम को जिम्मेदारी से निभा पाना संभव था? अगर मेरे पिता जी निश्चिन्तता के साथ खदानों में अपना काम कर पाते थे तो ज़रूर मेरी माँ ही उसका कारण रहीं होंगी. घर के कामों को, जिन्हें अमूमन काम ही नहीं समझा जाता, मेरी माँ ने बखूबी निभाया. हम ३ भाई बहनों को बड़ा किया, हमारा ख्याल रखा, घर से जुड़ी सारी जिम्मेदारियां निभाईं और अब भी निभा रही हैं. फिर क्यूँ उन्हें और उन जैसी अनेकों महिलाओं को उचित सम्मान नहीं मिलता?


Friday, March 4, 2011

कहने को तो (यादें हॉस्टल की)

मैंने इंजीनियरिंग की पढाई की है, पर पढाई करने भर से तो कोई वो बन नहीं  पाता जिसकी पढ़ाई की हो, तो अपने साथ भी वैसा ही है. मुझसे कहीं ज्यादा बेहतर इंजिनियर मेरे पिताजी हैं, जिन्होंने कहने को औपचारिक तौर पर उसकी शिक्षा नहीं ली है. 

पर पढ़ाई के अलावा भी बहुत कुछ किया कालेज में. कुछ अच्छे लोगों से मिला. चंद अच्छे दोस्तों से अपनी पोटली भरी. वो कॉलेज के साथी, खासतौर पर उनके साथ बिताया हॉस्टल का समय और उससे जुडी यादें अकसर ही मन को गुदगुदाती हैं. 

उन्हीं की याद  में ...



कहने को तो
पिछले कई सालों में नही मिला उनसे,
पर याद जब भी आते हैं वो,
तो होठों पर हँसी लौट आती है.

याद आता है मुझे कि
कैसे मैं और बाबा दानिश
साथ मिलकर हिट गानों की
पैरोडी बनाते थे
हँसते थे, हंसाते थे
रात में भुतुआ
कहानी सुनाते थे 
आलोक को डर लगता था
उसे ही डराते थे.

कभी किसी की
कम्बल कुटाई करते
तो कभी किसी का
नास्ता चुराते थे.
कहने को तो
पढने के लिए जागते थे
पर इंतज़ार रहता था
शंकर के पराठों का
जिन्हें खा कर बस सो जाते थे.

वो घी का भगोना
जो राजा जी,
गाँव से लेकर आए थे.
वो आचार का डिब्बा
जो आलोक घर से लेकर आया था
दूसरे कमरों के साथियों
से उसे बड़ी मुश्किल से बचाते थे.

कहने को तो
वो डिब्बे कब के खाली हो गए
पर पराठों पर तैर रहे घी की गंध
और आचार का स्वाद,
मुझे अब भी याद है.









वो रेगिंग का मौसम,
चान्टो से लाल हुए गालों के संग,
जब हॉस्टल के साथी सामने आते थे,
हम सब भी हदस जाते थे.

खबर आती जब
रात को दरवाजा खोल कर सोने की
हम कैसे हॉस्टल से बाहर
दोस्तों के रूम पर सो जाते थे.

कहने को तो
वो गाल कब के लाल हो गए
पर उन हाथों की गर्मी
मुझे अब भी याद है.

वो सिंह का गाना,
दिनों से भिगोये कपडों
को रात में धोना,
१२ बजे उठ के,
शेव बनाना.
उसकी वो दानिश से लडाई,
और वो अलार्म वाली घड़ी भाई,
जिसे गौरव ने उठा कर पटक दिया था.

कहने को तो
वो फिर कभी नही बजी,
पर वो सिंह का बचपना
मुझे अब भी याद है.   

वो फर्स्ट इयर के पेपर
वो जैन का आना,
पेपर लीक हो गया है,
ये हॉस्टल में फैलाना.
वो पेपर का मिलना
पर एक्साम में उसके प्रश्नों का आना

कहने को तो
उन परीक्षायों के रिजल्ट
कब के गए
पर उन परीक्षायों की तैयारी
मुझे अब भी याद है.

वो क्रिकेट का सीज़न
वो गौरव और सिंह
दोनों ही थे
अपनी टीमों के कैप्टेन

वो दिन भर का क्रिकेट
वो सिंह की बदबू मारती जुराबें
वो गौरव का टेम्पर
वो बड़ी-बड़ी बातें

फंस गए थे
बीच में
मैं और राजा जी

कहने को तो
वो मैच कब के ओवर हो गए
पर वो सिंह और गौरव की बैटिंग
मुझे अब भी याद है.

वो शनिवार की क्लास
वो गौरव का नहाना
वो सिंह का गुस्से में दरवाजा पीटना
और चिल्लाना

वो राजा जी का शाही अंदाज़
वो सलीके से रखी हुई बात
वो गौरव का बिस्तर पर लेटकर पढ़ना
वो और लोगों को पढाना

वो सिंह का नंगे पाव घूम कर आना
और सीधे बिस्तर पर चढ़ जाना
वो गौरव का गुस्सा होना
और अपना अलग बिस्तर गाना

कहने को तो
अब सब अलग हो गए
पर
वो सबका साथ
मुझे अब भी याद है..