Friday, May 3, 2013

काश...


पाकिस्तानी जेल में‌ हुए सरबजीत पर हमले और फ़िर उनकी मौत के बाद बहुत कुछ है कहने, सुनने, समझने और करने को। बहुत सारे लोग बहुत कुछ कह भी रहे है और सुन भी रहे, पर शोर इतना ज्यादा है कि समझ हाशिये पर खड़ी दिखाई देती है। 

मौत की खबर तो हमेशा ही दुखद होती है और फ़िर उस परिवार के दुख का क्या अन्दाज़ा लगाया जाये जो अपने परिवार के एक सदस्य से मिलने की आस जाने कब से लगाये बैठा था पर आई भी तो उसकी मौत की खबर और फ़िर उसकी लाश। सरबजीत क्यूं जेल में‌ थे? उनका गुनाह क्या था? इन जैसे सारे प्रश्नों‌ को एक किनारे भी कर दिया जाये तो भी उनके साथ जो जेल में‌ हुआ वो नहीं‌ होना चाहिये था। कोई भी सभ्य समाज भीड़ के न्याय आधारित व्यवस्था पर नहीं‌ टिका रह सकता। और अगर पाकिस्तान एक सभ्य देश है या बनने का सपना देखता है और अपने पड़ोसी मुल्क हिन्दुस्तान से बेहतर संबंध बनाना चाहता है तो उसे इस दुर्घटना के बाद अपनी व्यवस्था पर कड़े सवाल उठाने होंगे।

पर ये हमारे लिये भी तो एक मौका है अपने गिरेबां में‌ झांकनें‌ का। अगर सिर्फ़ जेलों‌ और न्याय व्यवस्था की ही बात करें‌ तो क्या हम अपने आप को एक सभ्य समाज का हिस्सा पाते हैं। हाल ही में‌ दामिनी बलात्कार कांड के मुख्य आरोपी राम सिंह पर तिहाड़ जेल में‌ हमला हुआ और फ़िर जाने किन परिस्थितियों‌ में‌ उसने फ़ांसी लगा ली। पिछले दिनों उसी मामले में‌ एक और आरोपी की भी जेल में‌ पिटाई होने की खबर आई थी। साफ़ ज़ाहिर है कि हमारी अपनी जेलों की हालत कुछ खास अच्छी नहीं। उनका अपराध घिनौना था, मगर जेल में‌ उनके साथ हुए इन सुलुकों‌ की क्या हम पैरवी करेंगे? अगर हां तो फ़िर हमें‌ सरबजीत के साथ जो कुछ भी हुआ उस पर कुछ कहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं।

एक और मामले की बात करें‌ तो हमारे देश की न्याय व्यवस्था के हाल बयां‌ हो जाता है। हाल ही में‌ अफ़ज़ल गुरू को फ़ांसी दी गई। अपनी बात कहूं‌ तो मैं‌ मानता हूं‌ कि एक निर्दोष को मात्र इसलिये फ़ांसी पर चढ़ा दिया गया क्यूंकि हमारी पूरी राजनीति और समाज की सोच की दिशा दक्शिनपंथी हो गई है। खैर बात करते हैं‌ अफ़ज़ल गुरु की फ़ांसी की। सोचिये उस परिवार का हाल जिसे अपने परिवार के उस सदस्य से आखिरी बार मिलने नहीं‌ दिया गया जिसे फ़ांसी होने वाली थी। उन्हें‌ बतलाया भी नहीं‌ गया कि ऐसा कुछ घटने वाला है। और फ़िर फ़ांसी के बाद अफ़ज़ल गुरू का शरीर उनके परिवार को दिया तक नहीं‌ गया। ध्यान रहे अफ़ज़ल गुरू किसी और देश का बाशिंदा नहीं‌, हमारे अपने ही मुल्क का था। पर सरबजीत का शरीर उसके परिवार वालों‌ तक पहुंच गया, कोमा में‌ ही सही पाकिस्तान सरकार ने उनके परिवार को उनसे मिलने की ईज़ाजत दी। सोचिये ज़रा इस मामले में‌ कौन सा देश ज्यादा सभ्य है?  

वैसे इस पूरे मामले के बाद सियासत गर्म है, लगातार बयानबाज़ी हो रही है, लोग सड़कों‌ पर हैं‌। पता नहीं‌ ये सब कुछ अच्छे के लिये है या बुरे के लिये। काश के लोग सिर्फ़ पाकिस्तान को गाली देने के लिये सड़कों‌ पर ना उतरें। काश के वो उन और भी सरबजीत जैसे कैदियों‌ के लिये सड़कों पर उतरें‌ जो ना केवल पाकिस्तान में‌ बल्कि हमारी अपनी जेलों‌ में‌ भी बंद हैं। काश के वो भीड़ आधारित न्याय व्यवस्था के खिलाफ़ सड़कों‌ पर उतरें। काश के वो सरबजीत के साथ-साथ अफ़जल गुरू के परिवार को भी न्याय दिलवाने के लिये सड़को पर उतरें।

2 comments:

  1. Fully agree with you, Vivek. This "feel-good patriotism" is nothing but jingoism, where there is hardly any attempt (by most) to understand what exactly we want. You are dead right in saying that we need to look at "our own" (Indian) legal institutions, before pointing fingers at others, and calling them names. POWs are the worst affected (though Sarabjit was admittedly imprisoned for spying and bomb blasts in Pakistan' we don't know the truth and will never know); And it's Not just Indians in Pakistani jails, but the other way round. Kasab's was an exceptional case, and India was trying to show the world how it cares about human rights. Unfortunately, that's not how the POWs are treated in India, Pakistan or most other countries. The only way episodes like that of Sarabjit, I believe, will not occur again is if both countries seriously (and not just as a show off to the world) consider sending ALL POWs back to their respective countries. But I don't see that happening, and hence we can only hope and pray.

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  2. Bahut umda sawaal uthaye hain vivek bhai,

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