Sunday, September 24, 2017

हमारी असुरक्षा का दायरा



हमारी असुरक्षा का दायरा
बढ़ चुका है...

कितना?

इतना कि
समा जाएं उसमें
दो चार बटालियन, मशीन-गन, टैंक
और अनगिनत गाड़ियाँ
फर्क कर पाना मुश्किल है
इंसान और मशीनों में...

इतना कि 
अब हम तक
अपने अलावा किसी और की आवाज़ नहीं पहुंचती
अपनी ही अनुगूँज सुनते रहते हैं,
सुनाते रहते हैं...

इतना कि
हम इस दायरे के तोड़े जाने
के सवाल से घबराते हैं
दायरे में आने वाली देवियों के आगे
सर झुकाते हैं
लेकिन दायरे से बाहर निकलने के लिए
तड़प रही, लड़ रही आवाजों का
गला घोटते हैं, दबाते हैं...

इतना कि
अब हमें लगने लगा है कि ये असुरक्षा का दायरा
सुरक्षा का दायरा है,
लेकिन हमारी यही सोच
एक दिन
हमारे पैरों के नीचे से
जमीं खींच लेगी...

(In solidarity with friends at BHU)

Monday, September 4, 2017

एक पुरूषवादी सोच

मेरे पिता जी ने नया-नया फेसबुक ज्वाईन किया है। आज के समय में जब इंसान अपने आस-पास के समाज से एकदम कटा हुआ है, फेसबुक एक मंच देता है जो कि एक तरह की सामाजिकता का एहसास करवाता है।  लेकिन ये मात्र एहसास ही करवाता है; क्यूंकि आप अगर बेहोश होकर अपने घर में गिर जाएं तो इंटरनेट या टीवी से निकलकर कोई नही आने वाला आपकी मदद करने,  अगर मदद की कोई संभावना है तो पड़ोसियों, मित्रों व आस-पास के समाज से ही है।  खैर ये पोस्ट फेसबुक पर नहीं,  बल्कि उस टिप्पणी पर है जो कि मेरे पिता जी ने हाल ही में फेसबुक पर व्यक्त की।

अभी हाल ही में बाबा राम-रहीम को जेल भेजे जाने के बाद उन्होंने लिखा कि " खाली बाबा रामरहीम या आसाराम को गाली देने से कुछ नहीं होगा... चार शब्द उन मूर्ख महिलाओं को भी बोलो जो बाबा-बाबा करके चरण दबाते-दबाते जाने अनजाने उनके बैडरूम तक पहुंच जाती हैं ... फिर बाबा भी तो आदमी ही है वो भी पतनोन्मुख हो जाते हैं ..."। आगे फिर वो बाबाओं के समागमों में ज्यादातर महिलाओं के ही होने की बात करते हुए लिखते हैं कि "घर में बच्चों ने रोटी नहीं खाई, पति से सीधे मुंह बात नहीं की जाती, सास-ससुर की सेवा करने में जान निकलती है और आठ-आठ घंटे समागमों में निकाल आती हैं ... परिवार जाए भाड़ में, बाबा की सेवा करके मोक्ष प्राप्त करना है..." वगैरह-वगैरह।

मुझे दुख हुआ कि मेरे पिताजी की टिप्पणी में उन दो बहादुर महिलाओं के लिये एक भी शब्द नहीं, जिन्होंने तमाम मुश्किलों के बावजूद 16 सालों तक कानूनी लड़ाई लड़कर जीत हासिल की। और वो भी किसके सामने। एक ऐसे व्यक्ति के जो कि सत्तापक्ष के इतना करीबी था और है, जिसके ऊपर इन महिलाओं के भाई व इन महिलाओं का पहला पत्र सार्वजनिक करने वाले बहादुर और निडर पत्रकार की हत्या का आरोप है। 

मुझे ये टिप्पणी कुछ जंची नहीं, इसीलिये ये पोस्ट।

मेरा मानना है कि ये टिप्पणी एक पुरूषवादी सोच का नतीजा है। ऐसा कहना गलत होगा कि पुरूषवादी सोच सिर्फ पुरुषों की ही होती है। मेरे पिताजी की टिप्पणी को महिलाओं ने भी लाईक किया है। इसके मायने हुए कि यह एक सामाजिक सोच है - केवल पुरुषों की नहीं।

अब इस सोच में ऐसा क्या है जिससे मुझे दिक्कत है? असल में यह सोच सिर्फ महिलाओं के खिलाफ ही नहीं पुरुषों के खिलाफ भी है। ये इसी सोच का नतीजा है जो कहलवाती है कि "लड़के तो लड़के ही रहेंगे जी" या फिर "बाबा भी तो आदमी ही है"। मानो पुरूष तो गड्ढे में गिरने के लिये तैयार ही बैठा है। उसकी कोई नैतिकता नहीं, कोई सिद्धांत नहीं, सोच नहीं ।  वहीं दूसरी ओर ये सोच पुरूषों के गड्ढे में गिरने का सारा दोष महिलाओं पर मढ़ देती है, जैसे कि "ऐसे कपड़े पहनोगी तो यही होगा" या फिर जैसा कि मेरे पिता जी की टिप्पणी में दिखाई देता है कि "अगर महिलाएं जाने-अनजाने बाबाओं के चरण दबाते-दबाते उनके बैडरूम तक नहीं पहुंचती तो बाबा जी पत्नोमुखी नहीं होते"।

ये इसी पुरूषवादी सोच का ही नतीजा है कि महिलाओं की 'सही' जगह घर पर बच्चों का ख्याल, भगवान समान पति से (चाहे वो कैसा भी हो) प्रेम से बात और सास-ससुर की सेवा करने में ही देखी जाती है।  ये पुरुषवादी सोच कभी ये सवाल नहीं उठाती कि महिलाओं के लिये आखिर ये जगह ही कैसे सही हो गई? क्यूं महिलाएं ही बच्चों का ख्याल रखें? पति-पत्नी का रिश्ता बनाए रखने की जिम्मेदारी  महिलाओं पर ही क्यूं हो? बुजुर्गों की सेवा करने की सारी जिम्मेदारी महिलाएं ही क्यूं उठाएं? इसके अलावा धार्मिक घरों में धर्म से जुड़े कर्मकांडो को निर्वाह करने की ज्यादातर जिम्मेदारी भी महिलाओं की ही है। सारे उपवास, बच्चों के लिये, पति के लिये, घर-द्वार के लिये महिलाएं ही रखती हैं? ऐसा क्यूं भाई? ये सवाल पुरूषवादी सोच नहीं पूछेगी। पुरूषवादी सोच तो पूछेगी "कहां गई थी, इतनी देर कैसे लग गई? बच्चे परेशान हो गये। कोई जिम्मेदारी नहीं है क्या?" ये सवाल सिर्फ पुरुष ही नहींं मां या सास भी पूछ सकती हैं।

पुरूष कभी भी कहीं भी आ जा सकते हैं‌ - बेरोकटोक। अगर कोई पुरुष ऐसा ना करे या कर पाए तो ये पुरूषवादी सोच उसके पुरूष होने पर ही सवाल उठाती है। वहीं पूरे समाज की तमाम तरह की अपेक्षाओं का बोझ अपने कंधों पर ढ़ो रही महिलाओं की आवाजाही पर तमाम पाबंदिया हैं। ऐसे में ये समागम शायद एक तरह की आज़ादी का एहसास करवाते हों, जहां वे अपने घरों व जिम्मेदारियों से दूर निकल आईं हों। एक ऐसी भीड़ में जहां सबके बीच वो अपनी वर्तमान अस्तित्व को कहीं खो देना चाहती हो, कुछ देर के लिये ही सही।  एक ऐसा 'पुरूषवादी' अस्तित्व जो कि उन्हें मात्र किसी की बेटी, किसी की बहन, किसी की बहू, किसी की बीवी या किसी की मां के दायरों में ही कसे रखता है।  आप अपने आस-पास रहने वाले कितनी महिलाओं के नाम जानते हैं? जरा उंगली पर गिनती करके देखिये। मेरी बात समझ में आ जाएगी। हमारे समाज में ये सोच महिलाओं से उनका अपना नाम तक छीन लेती है।

वैसे भी इन समागमों में जाने वाली महिलाओं को हमारा यह पुरुषवादी समाज उन महिलाओं के बनिस्पत तो ज्यादा ही सम्मान देता है जो अपने आप को अभिव्यक्त करने का कोई और जरिया चुन लें।  अब मान लीजिये कि किसी पब में महिलाओं का एक समूह बैठकर चर्चा कर रहा हो तो आप खुद ही सोच लीजिये कि ये सोच उन पर कैसे-कैसे लेबल लगाएगी?


यहां यह कह देना भी शायद सही हो, इस सोच से हम सभी (जिसमें मैं भी शामिल हूं) ग्रसित हैं। और इस सोच से आगे बढ़कर नया समाज बनाने की दिशा में पहला कदम शायद यह पहचानना होगा कि "इस वर्तमान सामाजिक सोच में कुछ गड़बड़ है।" 

चर्चा जारी रहेगी और रहनी भी चाहिये।