हमारी असुरक्षा
का दायरा
बढ़ चुका है...
कितना?
इतना कि
समा जाएं उसमें
दो चार बटालियन,
मशीन-गन, टैंक
और अनगिनत
गाड़ियाँ
फर्क कर पाना
मुश्किल है
इंसान और मशीनों
में...
इतना कि
अब हम तक
अपने अलावा किसी
और की आवाज़ नहीं पहुंचती
अपनी ही अनुगूँज
सुनते रहते हैं,
सुनाते रहते
हैं...
इतना कि
हम इस दायरे के
तोड़े जाने
के सवाल से
घबराते हैं
दायरे में आने
वाली देवियों के आगे
सर झुकाते हैं
लेकिन दायरे से
बाहर निकलने के लिए
तड़प रही, लड़ रही आवाजों का
गला घोटते हैं,
दबाते हैं...
इतना कि
अब हमें लगने लगा
है कि ये असुरक्षा का दायरा
सुरक्षा का दायरा
है,
लेकिन हमारी यही
सोच
एक दिन
हमारे पैरों के
नीचे से
जमीं खींच
लेगी...
(In solidarity with friends at BHU)
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