मीठी
मेरी बेटी है,
डेढ़ साल की -
उसे जब पहली बार
अपने हाथों में लिया था मैंने
तो लगा था
दुनिया की सबसे खूबसूरत
चीज को निहार रहा हूं मैं।
चेहरे के बनिस्पत
उसकी बड़ी-बड़ी
चमकती आंखों में एक
चमत्कार सा देखा था मैंने।
एक चमत्कार जिसमें एक कतरा
एक जीते-जागते इंसान में बदल गया था।
जब मीठी अपनी मां के पेट में थी,
तो उस समय बस एक चिंता रहती थी
कि वो ठीक-ठाक हो,
अपने ठिकाने में।
एक दफा
जब चल नहीं पाती थी वो,
तब मैं फंस गया था उसके साथ
एक लिफ्ट में;
मैं हड़बड़ा गया था,
सांसे फूलने लगी थीं,
किसी दुर्घटना के होने के एहसास मात्र से।
फिर जब लिफ्ट से निकल
उसे लेकर वापिस घर आ रहा था
तब सुबह पढ़ी सीरिया से जुड़ी एक खबर और
उसके साथ छपी एक फोटो पर सहसा
ध्यान चला गया।
तब मुझे एहसास हुआ
उस पिता की बैचेनी का
जो ऊपर से हो रही बमबारी के बीच
अपने बच्चे को गोद में उठाए
भाग रहा था,
तलाश रहा था एक सुरक्षित ठिकाना।
रोहंगिया के उस नवजात बच्चे
का ख्याल भी दिमाग में तैर गया
जिसे उसकी मां की छाती से
खींच अलग कर मार डाला गया था।
और वो बच्चा भी याद आ गया,
जो मध्य-प्रदेश के किसी रेल्वे-स्टेशन
की पटरियों के पास मरी हुई
अपनी मां की छाती पकड़कर रो रहा था।
हमारी तरह,
उन बच्चों के मां-बाप ने भी तो
उनके लिये,उनके साथ सपने देखे होंगे,
बिताए होंगे कुछ ऐसे बेशकीमती पल
जो उन्हें सच्ची खुशी दे गये होंगे।
लेकिन उनका बचपन मर गया,
और कई मामलों में तो वो खुद भी
मर गये।
आज जब कठुआ और उन्नाव की बेटियों
के बारे में जो कुछ भी पढ़-सुन रहा हूं
तो सोचता हूं
कैसी दुनियां में लेकर
आए हैं हम मीठी को?
जहां 8 साल की एक अबोध बच्ची के
साथ कई पुरुष मिलकर कई दिनों तक
बलात्कार करते हैं और फिर एक दिन मार
डालते हैं उसे पत्थरों से कुचलकर।
वहीं दूसरी तरफ सत्ता और ताकत से नशे में
मदहोश लोग करते हैं एक नाबालिग के साथ
बलात्कार
और संस्थाएं पीड़ितों के साथ खड़े होने के
बजाए पक्ष लेती हैं आरोपियों का;
और उसी बीच खबर आती है
न्याय की गुहार लगाते
लड़की के पिता की मौत की
पुलिस हिरासत में।
पर बात सिर्फ हत्याओं या बलात्कार की नहीं है।
बात है हमारे समाज की,
समाज के उस वर्ग की
जो इन घटनाओं को
धर्म, जाति या देश के नाम पर
जायज ठहरा रहा है;
बात है उन सत्ता-लोभियों की
जो यहां भी वोटों की राजनीति कर रहे हैं;
बात है उन लोगों की
जो अंगूठे की एक फिल्प के साथ
कठुआ और उन्नाव की खबरों से
आगे बढ़ जाते हैं;
बात है उस वर्ग की भी जो
शाम टीवी पर प्राईम टाईम देखने के बाद
टीवी बंदकर यह समझ लेता है कि सब ठीक हो गया है
या अपने आप हो जायेगा।
मेरी बेटी है,
डेढ़ साल की -
उसे जब पहली बार
अपने हाथों में लिया था मैंने
तो लगा था
दुनिया की सबसे खूबसूरत
चीज को निहार रहा हूं मैं।
चेहरे के बनिस्पत
उसकी बड़ी-बड़ी
चमकती आंखों में एक
चमत्कार सा देखा था मैंने।
एक चमत्कार जिसमें एक कतरा
एक जीते-जागते इंसान में बदल गया था।
जब मीठी अपनी मां के पेट में थी,
तो उस समय बस एक चिंता रहती थी
कि वो ठीक-ठाक हो,
अपने ठिकाने में।
एक दफा
जब चल नहीं पाती थी वो,
तब मैं फंस गया था उसके साथ
एक लिफ्ट में;
मैं हड़बड़ा गया था,
सांसे फूलने लगी थीं,
किसी दुर्घटना के होने के एहसास मात्र से।
फिर जब लिफ्ट से निकल
उसे लेकर वापिस घर आ रहा था
तब सुबह पढ़ी सीरिया से जुड़ी एक खबर और
उसके साथ छपी एक फोटो पर सहसा
ध्यान चला गया।
तब मुझे एहसास हुआ
उस पिता की बैचेनी का
जो ऊपर से हो रही बमबारी के बीच
अपने बच्चे को गोद में उठाए
भाग रहा था,
तलाश रहा था एक सुरक्षित ठिकाना।
रोहंगिया के उस नवजात बच्चे
का ख्याल भी दिमाग में तैर गया
जिसे उसकी मां की छाती से
खींच अलग कर मार डाला गया था।
और वो बच्चा भी याद आ गया,
जो मध्य-प्रदेश के किसी रेल्वे-स्टेशन
की पटरियों के पास मरी हुई
अपनी मां की छाती पकड़कर रो रहा था।
हमारी तरह,
उन बच्चों के मां-बाप ने भी तो
उनके लिये,उनके साथ सपने देखे होंगे,
बिताए होंगे कुछ ऐसे बेशकीमती पल
जो उन्हें सच्ची खुशी दे गये होंगे।
लेकिन उनका बचपन मर गया,
और कई मामलों में तो वो खुद भी
मर गये।
आज जब कठुआ और उन्नाव की बेटियों
के बारे में जो कुछ भी पढ़-सुन रहा हूं
तो सोचता हूं
कैसी दुनियां में लेकर
आए हैं हम मीठी को?
जहां 8 साल की एक अबोध बच्ची के
साथ कई पुरुष मिलकर कई दिनों तक
बलात्कार करते हैं और फिर एक दिन मार
डालते हैं उसे पत्थरों से कुचलकर।
वहीं दूसरी तरफ सत्ता और ताकत से नशे में
मदहोश लोग करते हैं एक नाबालिग के साथ
बलात्कार
और संस्थाएं पीड़ितों के साथ खड़े होने के
बजाए पक्ष लेती हैं आरोपियों का;
और उसी बीच खबर आती है
न्याय की गुहार लगाते
लड़की के पिता की मौत की
पुलिस हिरासत में।
पर बात सिर्फ हत्याओं या बलात्कार की नहीं है।
बात है हमारे समाज की,
समाज के उस वर्ग की
जो इन घटनाओं को
धर्म, जाति या देश के नाम पर
जायज ठहरा रहा है;
बात है उन सत्ता-लोभियों की
जो यहां भी वोटों की राजनीति कर रहे हैं;
बात है उन लोगों की
जो अंगूठे की एक फिल्प के साथ
कठुआ और उन्नाव की खबरों से
आगे बढ़ जाते हैं;
बात है उस वर्ग की भी जो
शाम टीवी पर प्राईम टाईम देखने के बाद
टीवी बंदकर यह समझ लेता है कि सब ठीक हो गया है
या अपने आप हो जायेगा।
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