Saturday, November 19, 2011

बोगनबेलिया


जब पहुंचा साइकिल तक
माथे पर शिकन थी
दिमाग में उलझाते से ख्याल.
पर नज़र पड़ते ही डलिया पर,
दोनों ही गायब हो गए,
आँखों में चमक और
होठों पर हल्की सी मुस्कराहट ने
घर कर लिया...


जाने कौन रख गया था
मेरी साइकिल की डलिया में,
एक गुच्छा गुलाबी बोगनबेलिया का... 

कौन था वो? या थी?
गलती से या जान बूझकर,
या कोई ऐसे ही रख गया?
कुछ देर ये सवाल मन को गुदगुदाते रहे...


कोई पुराना ख़त जैसे
दोबारा पढ़ते हुए लगता है.
किसी पुराने दोस्त का ख्याल
जैसा असर करता है.
जैसे किसी के साथ होने की,
भविष्य की कल्पनाएँ
गुदगुदातीं  हैं.
कुछ वैसा ही लगा 
मैं खुश हुआ..


अजीब सा हल्कापन लगा,
देखकर उन्हें.
लगा कि ज़िन्दगी,
खूबसूरत है...


आज भी वो गुच्छा
मेरी साइकिल की डलिया में
रखा हुआ है,
सूख रहा है.
पर देखता हूँ जब भी उसे
अच्छा लगता है...


शुक्रिया मेरे दोस्त,
तुम जो भी हो.. 

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