Monday, November 18, 2013
Wednesday, October 16, 2013
Tuesday, October 8, 2013
सुबह ऐसी भी होती है?
ज़रा सोचिये, रात में भूकंप के झटकों ने आपकी नींद खराब की हो और फ़िर सुबह-सुबह आपका साथी आपको टहलने की लिये कहे। आप बेमन से उठें और घर से बाहर निकलें। निकलते ही आप देखते हैं कि आपका रास्ता सुंदर फ़ूलों से सजा हुआ है, हवा में एक हल्की सी पर बहुत अच्छी गंध है, गुनगुनी धूप सुबह की ठंड को काट रही है, तमाम पक्षी चहचहाकर आपका स्वागत कर रहे हैं। और अपने घर से कुछ आगे बढ़ते ही आपको ऐसा कुछ दिखता है जिसे देखकर आपको लगता है कि आप किसी और ही दुनियां में हैं। देखिये जरा इन तस्वीरों को, ये उसी नजारे की हैं जिसने आज मेरा और ना जाने मेरे जैसे कितनों का ही दिन बना दिया।
सच ही कहा है किसी ने...
उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई,
अब रैन कहां जो सोवत है,
जो सोवत है सो खोवत है,
जो जागत है सो पावत है।
Tuesday, September 17, 2013
विश्वकर्मा पूजा: किसकी पूजा और क्यूं?
16/09/2013, रात 8:00 बजे
इन दिनो असम के एक शहर तेजपुर के विश्वविद्यालय में मैकेनिकल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट में पढ़ा रहा हूं। आज सुबह जब क्लास की तैयारी कर रहा था तो कुछ बच्चे बड़े उत्साह के साथ आये एक न्यौता लेकर। पता चला कि कल विश्वकर्मा पूजा है और वो स्कूल आफ़ इंजीनियरिंग के द्वारा मनाई जाती है। मैंने बच्चों से पूछा कि अगर कोई पूजा-पाठ में विश्वास ना करता हो तो। उनमें से एक का जवाब था कि ये तो व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है। मैंने उन्हें न्यौते के लिये धन्यवाद दिया और कहा कि मैं ऐसा ही व्यक्ति हूं। खैर वो न्यौता देकर चले गये और मैं अपनी क्लास की तैयारी में जुट गया। क्लास के अंत में जब मैंने अगले दिन पढ़ाये जाने वाले विषय के बारे में बात रखी तो बच्चों ने कहना शुरू किया कि "पर कल तो क्लास नहीं होगी, क्यूंकि विश्वकर्मा पूजा है"। इस पर मेरा जवाब था "कि मेरे पास इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि कल क्लास की छुट्टी है और पूजा तो होती रहती है, इससे क्लास का क्या लेना-देना? मेरी क्लास तो कल होगी।"
इन दिनो असम के एक शहर तेजपुर के विश्वविद्यालय में मैकेनिकल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट में पढ़ा रहा हूं। आज सुबह जब क्लास की तैयारी कर रहा था तो कुछ बच्चे बड़े उत्साह के साथ आये एक न्यौता लेकर। पता चला कि कल विश्वकर्मा पूजा है और वो स्कूल आफ़ इंजीनियरिंग के द्वारा मनाई जाती है। मैंने बच्चों से पूछा कि अगर कोई पूजा-पाठ में विश्वास ना करता हो तो। उनमें से एक का जवाब था कि ये तो व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है। मैंने उन्हें न्यौते के लिये धन्यवाद दिया और कहा कि मैं ऐसा ही व्यक्ति हूं। खैर वो न्यौता देकर चले गये और मैं अपनी क्लास की तैयारी में जुट गया। क्लास के अंत में जब मैंने अगले दिन पढ़ाये जाने वाले विषय के बारे में बात रखी तो बच्चों ने कहना शुरू किया कि "पर कल तो क्लास नहीं होगी, क्यूंकि विश्वकर्मा पूजा है"। इस पर मेरा जवाब था "कि मेरे पास इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि कल क्लास की छुट्टी है और पूजा तो होती रहती है, इससे क्लास का क्या लेना-देना? मेरी क्लास तो कल होगी।"
दोपहर बाद मेरी एक लैब की क्लास थी। वहां पहुंचा तो लैब इंजार्च ने भी कहा कि कल तो क्लास नहीं होगी। उनसे भी मेरा यही कहना था कि मेरी तो होगी। इस पर उन्होंने पूछा कि जहां से आप आये हैं क्या वहां पूजा नहीं होती थी। मैंने कहा कि होती थी, पर उसके लिये क्लास तो बंद नही होती थी। लैब खत्म हुई और मैं जब अपने कमरे पर आया तो देखा कि पूजा की तैयारियां चल रही हैं। एक कामगार बड़ी शिद्दत से वर्कशाप की रेलिंग साफ़ कर रहा है। साथ ही कई और कामगार उसके सामने की घास साफ़ करने में लगे हुए हैं।
सुबह से तीन-चार बार विश्वकर्मा पूजा के बारे में बातचीत के चलते डिपार्टमेंट से घर आते हुए भी उससे जुड़े ख्याल ही दिमाग में थे। मुझे ध्यान आया कि मेरे पिताजी जिन कोयले की खदानों में काम करते थे, उनमें भी विश्वकर्मा पूजा मनाई जाती थी और उनके साथ काम करने वाले हर धर्म सम्प्रदाय के लोग उसमें हिस्सा लेते थे। तो ये शायद एक मौका भी है अलग-अलग सम्प्रदाय और धर्मों को मानने वाले लोगों के साथ में आने का। फ़िर इसमें किसी को क्या दिक्कत हो सकती है? पर दिमाग में कहीं ये ख्याल भी चल रहे थे कि आखिर क्यूं एक public funded institution में एक धर्म विशेष से जुड़ी पूजा रखी जाये? अगर ऐसे ही पूजा-पाठ होते रहे तो हर दिन किसी ना किसी धर्म या मान्यता से जुड़ा कुछ ना कुछ तो जरूर होता है फ़िर तो हर दिन क्लास की छुट्टी होगी। इस ख्याल के पीछे कहीं मेरी यह समझ थी कि व्यक्तिगत तौर पर तो ठीक है, पर सार्वजनिक तौर पर (publicly) एक state और उससे जुड़े संस्थानों व लोगों को किसी धर्म-विशेष की मान्यताओं को बढ़ावा नहीं देना चाहिये। धर्म एक निजी मामला है और उसे निजी ही रहने दिया जाना चाहिये, वरना तो वही मान्याताएं और प्रतीक (symbols) प्रभावी होंगे जिसके मानने वाले ज्यादा हों याकि शाषक वर्ग जिन्हें मानता हो।
ऐसे ही अलग-अलग तरह की सोचों से जुड़े सवालों से जूझता हुआ मैं अपने घर की तरफ़ बढ़ा जा रहा था। एक और सवाल दिमाग में जागा कि आखिर इस पूजा में लोग करते क्या हैं? बचपन से ही मुझे ये बतलाया गया है और मैंने देखा भी है कि लोग इस दिन भगवान विश्वकर्मा की पूजा करते हैं। विश्वकर्मा जिन्हें पौराणिक काल से ही हिंदु धर्म के मुताबिक एक ऐसा दैविय इंजीनियर माना गया है जिन्होंने देवताओं के लिये ना केवल कई सुंदर नगर बनाये बल्कि श्रेष्ठ अस्त्र-शस्त्र भी बनाये। इस दिन लोग अपने औजारों की पूजा करते हैं। उन औज़ारों या मशीनों की जिन्हें वो अपने रोजमर्रा के कामों या व्यवसाय में इस्तेमाल करते हैं, उनके सुचारु रुप से चलने की कामना करते हैं। इसके बाद इन सवालों की कड़ी में एक और सवाल जुड़ गया। वो सवाल जो शायद सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण था क्यूंकि उसी सवाल के चलते मेरे दिमाग और समझ में थोड़ी सफ़ाई आई। वो सवाल था कि "औज़ारों की पूजा तो ठीक है। पर उन हाथों का क्या जो उन औज़ारों का इस्तेमाल करते हैं? औजारों का इस्तेमाल करने वाले हाथ तो उनकी पूजा वैसे भी रोज ही करते हैं उनके इस्तेमाल के दौरान। पर क्या उन हाथों की पूजा होती है, जो अगर ना हो तो औज़ार बेजान हैं? और फ़िर औज़ार भी तो उन्हीं हाथों ने ही बनाये हैं।"
17/09/2013, सुबह 6:00 बजे
एक बारगी मुझे लगा कि इस मौके में शामिल ना होकर कहीं मैं उन हाथों का या उन लोगों का अपमान तो नहीं कर रहा जो हाथों से काम करते हैं। पर फ़िर लगा कि क्या ये उत्सव सच में उन हाथों या लोगों के सम्मान करने लिये मनाया जाता है?
और इस बात का जवाब तो साफ़ है। हमारे संस्थानों, समाज या देश में हाथों से काम करने वाले लोगों की दशा क्या है, ये किसी से छुपी नही है या ये कहें कि जिनकी आखें खुली हुई हैं, उन्हें तो कम से कम उनके हालात पता होंगे। अभी कुछ ही दिनों पहले एक सिक्योरिटी गार्ड मुझसे मिला। उसे काम से निकाल दिया गया था। उससे मेरी बात-चीत कई दिनों से हो रही थी। 20-22 साल का वो नौजवान अकसर गुस्से में रहता। कभी अपने साथियों पर तो कभी अपने अधिकारियों पर। कारण था कि उसे PF नहीं मिल रहा था जबकि उसके पैसे काटे जा रहे थे। उसके अपने साथी कभी साथ मिलकर कुछ बोलते नहीं थे, उल्टा अधिकारियों से उसकी चुगली लगा आते थे और अधिकारी तो ऐसा दर्शाते थे जैसे PF मांगकर वो कोई गलती कर रहा हो। वो मुझसे कहता कि "सर जब मैं अपने प्रदेश के बाहर काम करता था तो मुझे PF मिला करता था, आज जब मैं अपने घर के पास ही काम कर रहा हूं तो मुझे क्यूं नहीं मिल रहा?" शायद ऐसे ही कुछ सवाल उसने अपने अधिकारियों से भी पूछ लिये होंगे और जवाब में उसकी नौकरी चली गई।
पता नहीं एक सिक्योरिटी गार्ड का काम उत्पादन से किस तरह से जुड़ा हुआ है पर फ़िर भी वो इस असुरक्षित समाज की एक तरह की जरूरत तो पूरी कर ही रहा है। ठीक वैसे ही जैसे एक बिल्डिंग बनाने वाला मजदूर, कारखानों में काम करते कामगार, खेत में काम करने वाले किसान, सफ़ाई के काम में लगे सफ़ाई कर्मचारी, घरों में काम करने वाले लोग वगैरह वगैरह। हमारे समाज में अगर किसी की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है और जिनके लिये किसी भी तरह की व्यवस्था का अभाव है वो ऐसे ही तो लोग हैं जो हाथों का काम करते हैं। यहां मैं यह बात साफ़ कर दूं कि मैं कतई ये बंटवारा नहीं कर रहा कि कुछ काम सिर्फ़ हाथों से होते हैं और कुछ पूरी तरह दिमाग से। हर एक उत्पादक काम में हाथों और दिमाग दोनों का ही इस्तेमाल होता है। पर ये बंटवारा हमारे समाज में पहले से ही है जिसमें कामगारों को हाथों से या दिमाग से काम करने वाले 2 गुटों में बांट दिया गया है। अगर मैं एक यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हूं तो मुझे एक तरह की सुविधायें मिलेंगी और अगर मैं एक technician हूं तो दूसरी तरह की। और अगर कहीं मैं एक ठेका कामगार हूं तो सुविधायें तो भूल जाइये, मुझे ये भी उम्मीद नहीं होगी कि इस महिने का पूरा वेतन मिलेगा भी या नहीं या ये कि अगले महिनें मैं ये काम कर भी रहा हूंगा या नहीं?
अब अगर समाज की स्थिति यह है तो ये पूजा या पर्व या उत्सव इन हाथों का सम्मान करने के लिये तो नही ही मनाया जा रहा होगा। वो कामगार जो बड़ी शिद्दत से वर्कशाप की रेलिंग साफ़ कर रहा था वो इस पूजा के बाद भी उतना ही सम्मानीय (या असम्मानीय) होगा जितना पहले था।
मेरी समझ से तो जरूरत शायद इन उत्सवों को नये मायने देने की है या एकदम ही नये किस्म के उत्सवों की, जिनमें सही मायनों में उन हाथों को इज्जत दी जाये जो इज्जत के हकदार हैं और अगर एक दिन के लिये भी रुक जायें तो यह व्यवस्था ठप्प हो जाये। और ये नये उत्सव या नये मायने खोजने की जिम्मेदारी भी हम पर ही है, चाहे वो हाथों का काम करने वाले कामगार हों या बौद्धिक कामगार। ये नये मायने ही शायद एक नये समाज को भी जन्म दें।
Tuesday, July 30, 2013
बारिश
बारिश भेज रहा है वो,
एक लिफ़ाफ़े में बंद करके।
डर है मुझे कहीं लिफ़ाफ़ा ना सील जाये।
बारिश जो मेरे लिये है,
वो कहीं और किसी और को ना भिगो जाये।
एक लिफ़ाफ़े में बंद करके।
डर है मुझे कहीं लिफ़ाफ़ा ना सील जाये।
बारिश जो मेरे लिये है,
वो कहीं और किसी और को ना भिगो जाये।
Friday, May 3, 2013
काश...
पाकिस्तानी जेल में हुए सरबजीत पर हमले और फ़िर उनकी मौत के बाद बहुत कुछ है कहने, सुनने, समझने और करने को। बहुत सारे लोग बहुत कुछ कह भी रहे है और सुन भी रहे, पर शोर इतना ज्यादा है कि समझ हाशिये पर खड़ी दिखाई देती है।
मौत की खबर तो हमेशा ही दुखद होती है और फ़िर उस परिवार के दुख का क्या अन्दाज़ा लगाया जाये जो अपने परिवार के एक सदस्य से मिलने की आस जाने कब से लगाये बैठा था पर आई भी तो उसकी मौत की खबर और फ़िर उसकी लाश। सरबजीत क्यूं जेल में थे? उनका गुनाह क्या था? इन जैसे सारे प्रश्नों को एक किनारे भी कर दिया जाये तो भी उनके साथ जो जेल में हुआ वो नहीं होना चाहिये था। कोई भी सभ्य समाज भीड़ के न्याय आधारित व्यवस्था पर नहीं टिका रह सकता। और अगर पाकिस्तान एक सभ्य देश है या बनने का सपना देखता है और अपने पड़ोसी मुल्क हिन्दुस्तान से बेहतर संबंध बनाना चाहता है तो उसे इस दुर्घटना के बाद अपनी व्यवस्था पर कड़े सवाल उठाने होंगे।
पर ये हमारे लिये भी तो एक मौका है अपने गिरेबां में झांकनें का। अगर सिर्फ़ जेलों और न्याय व्यवस्था की ही बात करें तो क्या हम अपने आप को एक सभ्य समाज का हिस्सा पाते हैं। हाल ही में दामिनी बलात्कार कांड के मुख्य आरोपी राम सिंह पर तिहाड़ जेल में हमला हुआ और फ़िर जाने किन परिस्थितियों में उसने फ़ांसी लगा ली। पिछले दिनों उसी मामले में एक और आरोपी की भी जेल में पिटाई होने की खबर आई थी। साफ़ ज़ाहिर है कि हमारी अपनी जेलों की हालत कुछ खास अच्छी नहीं। उनका अपराध घिनौना था, मगर जेल में उनके साथ हुए इन सुलुकों की क्या हम पैरवी करेंगे? अगर हां तो फ़िर हमें सरबजीत के साथ जो कुछ भी हुआ उस पर कुछ कहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं।
एक और मामले की बात करें तो हमारे देश की न्याय व्यवस्था के हाल बयां हो जाता है। हाल ही में अफ़ज़ल गुरू को फ़ांसी दी गई। अपनी बात कहूं तो मैं मानता हूं कि एक निर्दोष को मात्र इसलिये फ़ांसी पर चढ़ा दिया गया क्यूंकि हमारी पूरी राजनीति और समाज की सोच की दिशा दक्शिनपंथी हो गई है। खैर बात करते हैं अफ़ज़ल गुरु की फ़ांसी की। सोचिये उस परिवार का हाल जिसे अपने परिवार के उस सदस्य से आखिरी बार मिलने नहीं दिया गया जिसे फ़ांसी होने वाली थी। उन्हें बतलाया भी नहीं गया कि ऐसा कुछ घटने वाला है। और फ़िर फ़ांसी के बाद अफ़ज़ल गुरू का शरीर उनके परिवार को दिया तक नहीं गया। ध्यान रहे अफ़ज़ल गुरू किसी और देश का बाशिंदा नहीं, हमारे अपने ही मुल्क का था। पर सरबजीत का शरीर उसके परिवार वालों तक पहुंच गया, कोमा में ही सही पाकिस्तान सरकार ने उनके परिवार को उनसे मिलने की ईज़ाजत दी। सोचिये ज़रा इस मामले में कौन सा देश ज्यादा सभ्य है?
वैसे इस पूरे मामले के बाद सियासत गर्म है, लगातार बयानबाज़ी हो रही है, लोग सड़कों पर हैं। पता नहीं ये सब कुछ अच्छे के लिये है या बुरे के लिये। काश के लोग सिर्फ़ पाकिस्तान को गाली देने के लिये सड़कों पर ना उतरें। काश के वो उन और भी सरबजीत जैसे कैदियों के लिये सड़कों पर उतरें जो ना केवल पाकिस्तान में बल्कि हमारी अपनी जेलों में भी बंद हैं। काश के वो भीड़ आधारित न्याय व्यवस्था के खिलाफ़ सड़कों पर उतरें। काश के वो सरबजीत के साथ-साथ अफ़जल गुरू के परिवार को भी न्याय दिलवाने के लिये सड़को पर उतरें।
Monday, February 4, 2013
Saturday, January 19, 2013
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