समन्दर के किनारे चुपचाप खड़े होकर उसे आंखों में भरते हुए ना जाने क्या कुछ ज़हन में आता है। सबसे पहले तो उसकी विशालता के सामने अपने अस्तित्व के छोटे और क्षणिक होने का एहसास होता है। और फ़िर समन्दर की आती जाती लहरें पैरों को कभी प्यार से सहलाते तो कभी जोरों से हिलाते ये कह जाती हैं कि जो आया है उसका जाना निश्चित है और इस क्रम में सुख और दुख दोनों ही मिलेंगे। वापिस जाती लहरों के साथ पैरों के नीचे से सरकती हुई रेत को चाहे जितनी भी मजबूती से खड़े रहकर पकड़ने की कोशिश करो वो उतनी ही ज्यादा और तेजी से सरकती है।
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