Tuesday, September 15, 2015

ना जाने कैसे दिन बीते जाते हैं?

नहीं!
हम अंदाजा नहीं लगा सकते,
कि क्यों तुम विकास के खिलाफ हो!
अंदाजा लगाने के लिये समय चाहिये,
ताकि थमकर-ठहरकर सोच सके कुछ देर।
लेकिन इस व्यवस्था में
समय कहां,
फुर्सत कहां,
वो तसल्ली कहां,
कि आराम से सोचा जा सकें।

वैसे बता दें,
हम भी तुम्हारी ही तरह जंगलों में रहते हैं,
हां ये बात और है
कि हमारे जंगल ईमारती है
और हमारे लिये इनसे ठंडी छांह की उम्मीद करना
नादानी है।

हमारे आस-पास भी पहाड़ हैं,
उनसे भी बू आती है,
लेकिन बॉक्साइट की नहीं,
इस व्यवस्था से उपजी गंदगी की,
सड़ांध,
जिसे हटा पाना इसी व्यवस्था से उपजे
किसी भी स्वच्छ अभियान के बूते से बाहर की बात है।

जिस विकास का झांसा देकर
तुम्हें वो सुंदर भविष्य का सपना दिखा रहे हैं,
उसी विकास की एक तस्वीर है वो शहर
वो शहर से सटा कस्बा,
जहां हम रहते हैं
और जहां
जंगलराज ने लोकतंत्र की चादर ओड़ रखी है।।

तुम्हारे पास तो अब भी बहुत कुछ है अपना कहने को
जो तुम्हें प्रिय है - तुम्हारा जंगल, तुम्हारा गांव, तुम्हारी धरती!
हमारा ना जाने क्या अपना है?
हम तो उस चीज को भी अपना नहीं‌ कग सकते,
जिसे हम अपने हाथों से बनाते हैं।
शायद ये शरीर ही बस अपना है,
या शायद वो भी नही,
जिसे जिंदा रखने की ज़रूरत के चलते,
रोज चंद सिक्कों की खातिर,
बाज़ार में खुद को बेचते हैं हम।

खुद को जिंदा रखने की
इस जद्दोजहद में,
इस जूझ में,
ना जाने कैसे दिन बीते जाते हैं?

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