Saturday, April 14, 2018

हमारी असुरक्षा का दायरा लगातार बढ़ रहा है


एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी नेता को अन्यान्य कारणों से कई दफे जनता से मुखातिब होना पड़ता है। जनता अपेक्षा भी करती है कि उनके नेता उनसे बात करें, ताकि वे उनके विचारों को सुन-समझ सकें। आखिर वे नेता जो हैं जनता के। नेता जो कि उनके लिये, उनके नाम पर देश चला रहे होते हैं, नीतियां बना रहे होते हैं। वे नीतियां जिनका सीधा असर आम जनता के जीवन पर पड़ता है। नेता जिनसे यह अपेक्षा भी होती है कि वह दूरदृष्टा भी होगा और आने वाले समय की नब्ज मापकर जनता को चेताए रखेगा। नेता जो उन्हें एहसास करवाएगा कि एक समाज, कौम या देश के रूप में हममें क्या बुराईयां हैं व उनकी जड़ें कहां हैं और उनसे कैसे निपटा जाए।

ऐसे ही एक दफे 15 अगस्त 1960, आज़ादी के दिन, उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जनता से मुखातिब होते हुए अन्य कई बातों के बीच अपने भाषण में कहते हैं:
याद रखिये दुनिया में बहुत सारे ऎब होते हैं, बहुत सारी खराबियां होती हैं। लेकिन एक ऎब, एक खराबी, एक गुनाह, एक कमजोरी, या जो भी जिसे कहिये - सबसे बड़ी जो है वो डर है। डर से ज्यादा बुरी चीज कोई नहीं। क्योंकि जितनी खराबियां दुनिया में हैं डर की औलाद हैं। एक दफे एक कौम में या एक इंसान में डर आ जायेगा, तो फिर और सब खराबियां उसमें आ जाएंगी।..... और आज के दिन हमें आपको सबों को समझनी है, और इस बात का पक्का इरादा करना है कि हम ऐसी कमजोरियों को हटाएंगे अपने मुल्क से।i

आज के संदर्भ में जब नेहरू की कही इस बात पर सोचें तो लगता है कि नेहरू सच में दूरदृष्टा थे। और यह बात सिर्फ नेहरू पर ही लागू नहीं होती - बल्कि उस हर एक शख्स पर लागू होती है जिसने आजादी के समय भारत की कल्पना एक बहुसंख्यक हिंदू-राष्ट्र के रूप में नही की थी। वे सभी बहुसंख्यकों के दिमाग में‌ फैलाए जा सकने वाले उस डर से वाकिफ थे जो बहुसंख्यकों को डराकर कहता था कि देखो ये अल्पसंख्यक तुम्हें, तुम्हारी संस्कृति को तबाह कर देंगे।

नेहरू व उन तमाम अन्य लोगों की यह चिंता कितनी वाजिब थी या है, कठुआ मामले को देखने से समझ आ जानी चाहिए। जहां एक बहुसंख्यक समाज के बीच एक घुमंतु अल्पसंख्यक जनजाति का डर पनपता है या बनाया जाता है। यह डर जो असुरक्षा को जन्म देकर ना केवल एक 8 साल की बच्ची के साथ हुई दरिंदगी को अंजाम देता है बल्कि आरोपियों के समर्थन में समाज के एक हिस्से को तिरंगा लिये खड़ा भी कर देता है। हाल-फिलहाल में देश भर में हुई अल्प-संख्यक वर्ग के प्रति हिंसाओं की अमानवीय घटनाओं और उसके बाद भी एक बड़े तबके की चुप्पी की जड़ में बहुसंख्यक वर्ग के बीच पनप रहे इस डर और उससे उपजी असुरक्षा की भावना को साफ देखा जा सकता है।

हाल ही में देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने एक भाषण के दौरान कठुआ व उन्नाव की घटनाओं पर बोलते हुए कहा:
जिस तरह की घटनाएं हमने बीते दिनों में देखी हैं वो सामाजिक न्याय की अवधारणा को चुनौती देती हैं। पिछले दो दिनों से जो घटनाएं चर्चा में हैं वो निश्चित तौर पर किसी सभ्य समाज को शोभा नहीं देती हैं, ये शर्मनाक हैं। हमारे स्वतंत्रता सेनानिओं ने , जिन्होंने अपनी जिंदगी देश के भविष्य के लिये बलिदान कर दी, ये उनके बलिदान का अपमान हैं। एक समाज के रूप में, एक देश के रूप में हम सब इसके लिये शर्मसार हैं। देश के किसी भी राज्य में, किसी भी क्षेत्र में होने वाली वारदातें हमारी मानवीय संवेदनाओं को झकझोर देती हैं। मैं देश को विश्वास दिलाना चाहता हूं कि कोई अपराधी बचेगा नहीं, न्याय होगा और पूरा होगा। उन बेटियों के साथ जो जुल्म हुआ है, उन बेटियों को न्याय मिलकर रहेगा। हमारे समाज की इस आंतरिक बुराई को खत्म करने का काम हम सब को मिलकर करना होगा।ii

मोदी की कही तमाम बातों से कोई भी उदारवादी व्यक्ति सहमत होगा। लेकिन जैसा कि मोदी आगे अपने भाषण में कहते हैं कि क्या यह बुराई सिर्फ अपने घरों के लड़कों से यह पूछ कर खत्म हो जायेगी कि वे रात में इतनी देर से क्यूं आए और कहां थे? जैसा कि मोदी के भाषण से समझ आता है वह इन घटनाओं की जड़ में उस डर को नहीं देख पा रहे जिसकी चर्चा नेहरू करते हैं या जिसकी चिंता उन तमाम स्वतंत्रता सेनानियों को थी। एक और सवाल उठता है कि क्या वो सच में नहीं देख पा रहे या देखना नहीं चाहते। राम जन्मभूमि आंदोलन, जो कि बीजेपी की अगुआई में ही चला, के बाद से भारतीय राजनीति में बहुसंख्यक हिंदू वर्ग, उसकी पहचान व संस्कृति से जुड़ा डर लगातार हावी रहा है। पिछले कई चुनावों से पहले इस डर की आग में घी डालने का काम कई दफे हुआ है; आज भी जारी है।

ऐसे में क्या इन तमाम बुराईयों की जड़ में बैठे इस डर को नजर-अंदाज करके उन बेटियों को पूरा न्याय दिलवाया जा सकेगा, जिसकी पैरवी मोदी कर रहे हैं?

हमारे समाज में फैला यह डर, नेहरू के शब्दों में हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा।

हमारी असुरक्षा का दायरा लगातार बढ़ रहा है, क्या हम एक कौम के रूप में सतर्क हैं?

क्या उन राजनैतिक पार्टियों से इस डर को खत्म करने या उस दिशा में योगदान देने की उम्मीद की जा सकती है जो कि येन-केन प्रकारेण, जिसमें यह डर भी एक औजार के रूप में शामिल है, चुनाव जीतना चाहती हों?

क्या इस डर को खत्म करने की जिम्मेदारी सिर्फ नेताओं या राजनैतिक पार्टियों की ही है?




ihttps://www.youtube.com/watch?v=PXvIzgAzML8
iihttps://www.youtube.com/watch?v=i591DHiOo4g

Friday, April 13, 2018

क्या हमारा बचपन भी मर गया है?

मीठी
मेरी बेटी है,
डेढ़ साल की -

उसे जब पहली बार
अपने हाथों में लिया था मैंने
तो लगा था
दुनिया की सबसे खूबसूरत
चीज को निहार रहा हूं मैं।

चेहरे के बनिस्पत
उसकी बड़ी-बड़ी
चमकती आंखों में एक
चमत्कार सा देखा था मैंने।

एक चमत्कार जिसमें एक कतरा
एक जीते-जागते इंसान में बदल गया था।

जब मीठी अपनी मां के पेट में थी,
तो उस समय बस एक चिंता रहती थी
कि वो ठीक-ठाक हो,
अपने ठिकाने में।

एक दफा
जब चल नहीं पाती थी वो,
तब मैं फंस गया था उसके साथ
एक लिफ्ट में;
मैं हड़बड़ा गया था,
सांसे फूलने लगी थीं,
किसी दुर्घटना के होने के एहसास मात्र से।

फिर जब लिफ्ट से निकल
उसे लेकर वापिस घर आ रहा था
तब सुबह पढ़ी सीरिया से जुड़ी एक खबर और
उसके साथ छपी एक फोटो पर सहसा
ध्यान चला गया।

तब मुझे एहसास हुआ
उस पिता की बैचेनी का
जो ऊपर से हो रही बमबारी के बीच
अपने बच्चे को गोद में उठाए
भाग रहा था,
तलाश रहा था एक सुरक्षित ठिकाना।

रोहंगिया के उस नवजात बच्चे
का ख्याल भी दिमाग में तैर गया
जिसे उसकी मां की छाती से
खींच अलग कर मार डाला गया था।

और वो बच्चा भी याद आ गया,
जो मध्य-प्रदेश के किसी रेल्वे-स्टेशन
की पटरियों के पास मरी हुई
अपनी मां की छाती पकड़कर रो रहा था।

हमारी तरह,
उन बच्चों के मां-बाप ने भी तो
उनके लिये,उनके साथ सपने देखे होंगे,
बिताए होंगे कुछ ऐसे बेशकीमती पल
जो उन्हें सच्ची खुशी दे गये होंगे।

लेकिन उनका बचपन मर गया,
और कई मामलों में तो वो खुद भी
मर गये।

आज जब कठुआ और उन्नाव की बेटियों
के बारे में जो कुछ भी पढ़-सुन रहा हूं
तो सोचता हूं
कैसी दुनियां में लेकर
आए हैं हम मीठी को?

जहां 8 साल की एक अबोध बच्ची के
साथ कई पुरुष मिलकर कई दिनों तक
बलात्कार करते हैं और फिर एक दिन मार
डालते हैं उसे पत्थरों से कुचलकर।

वहीं दूसरी तरफ सत्ता और ताकत से नशे में
मदहोश लोग करते हैं  एक नाबालिग के साथ
बलात्कार
और संस्थाएं पीड़ितों के साथ खड़े होने के
बजाए पक्ष लेती हैं आरोपियों का;
और उसी बीच खबर आती है
न्याय की गुहार लगाते
लड़की के पिता की मौत की
पुलिस हिरासत में।

पर बात सिर्फ हत्याओं या बलात्कार की नहीं है।
बात है हमारे समाज की,
समाज के उस वर्ग की
जो इन घटनाओं को
धर्म, जाति या देश के नाम पर
जायज ठहरा रहा है;
बात है उन सत्ता-लोभियों की
जो यहां भी वोटों की राजनीति कर रहे हैं‌;
बात है उन लोगों की
जो अंगूठे की एक फिल्प के साथ
कठुआ और उन्नाव की खबरों से
आगे बढ़ जाते हैं;
बात है उस वर्ग की भी जो
शाम टीवी पर प्राईम टाईम देखने के बाद
टीवी बंदकर यह समझ लेता है कि सब ठीक हो गया है
या अपने आप हो जायेगा।