एक
लोकतांत्रिक व्यवस्था में
किसी नेता को अन्यान्य कारणों
से कई दफे जनता से मुखातिब
होना पड़ता है। जनता अपेक्षा
भी करती है कि उनके नेता उनसे
बात करें, ताकि
वे उनके विचारों को सुन-समझ
सकें। आखिर वे नेता जो हैं
जनता के। नेता जो कि उनके लिये,
उनके नाम पर
देश चला रहे होते हैं,
नीतियां बना
रहे होते हैं। वे नीतियां
जिनका सीधा असर आम जनता के
जीवन पर पड़ता है। नेता जिनसे
यह अपेक्षा भी होती है कि वह
दूरदृष्टा भी होगा और आने वाले
समय की नब्ज मापकर जनता को
चेताए रखेगा। नेता जो उन्हें
एहसास करवाएगा कि एक समाज,
कौम या देश
के रूप में हममें क्या बुराईयां
हैं व उनकी जड़ें कहां हैं और
उनसे कैसे निपटा जाए।
ऐसे
ही एक दफे 15 अगस्त
1960, आज़ादी
के दिन, उस
समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल
नेहरू जनता से मुखातिब होते
हुए अन्य कई बातों के बीच अपने
भाषण में कहते हैं:
याद रखिये दुनिया में बहुत सारे ऎब होते हैं, बहुत सारी खराबियां होती हैं। लेकिन एक ऎब, एक खराबी, एक गुनाह, एक कमजोरी, या जो भी जिसे कहिये - सबसे बड़ी जो है वो डर है। डर से ज्यादा बुरी चीज कोई नहीं। क्योंकि जितनी खराबियां दुनिया में हैं डर की औलाद हैं। एक दफे एक कौम में या एक इंसान में डर आ जायेगा, तो फिर और सब खराबियां उसमें आ जाएंगी।..... और आज के दिन हमें आपको सबों को समझनी है, और इस बात का पक्का इरादा करना है कि हम ऐसी कमजोरियों को हटाएंगे अपने मुल्क से।i
आज के
संदर्भ में जब नेहरू की कही
इस बात पर सोचें तो लगता है कि
नेहरू सच में दूरदृष्टा थे।
और यह बात सिर्फ नेहरू पर ही
लागू नहीं होती - बल्कि
उस हर एक शख्स पर लागू होती है
जिसने आजादी के समय भारत की
कल्पना एक बहुसंख्यक हिंदू-राष्ट्र
के रूप में नही की थी। वे सभी
बहुसंख्यकों के दिमाग में
फैलाए जा सकने वाले उस डर से
वाकिफ थे जो बहुसंख्यकों को
डराकर कहता था कि देखो ये
अल्पसंख्यक तुम्हें,
तुम्हारी
संस्कृति को तबाह कर देंगे।
नेहरू
व उन तमाम अन्य लोगों की यह
चिंता कितनी वाजिब थी या है,
कठुआ मामले
को देखने से समझ आ जानी चाहिए।
जहां एक बहुसंख्यक समाज के
बीच एक घुमंतु अल्पसंख्यक
जनजाति का डर पनपता है या बनाया
जाता है। यह डर जो असुरक्षा
को जन्म देकर ना केवल एक 8
साल की बच्ची
के साथ हुई दरिंदगी को अंजाम
देता है बल्कि आरोपियों के
समर्थन में समाज के एक हिस्से
को तिरंगा लिये खड़ा भी कर
देता है। हाल-फिलहाल
में देश भर में हुई अल्प-संख्यक
वर्ग के प्रति हिंसाओं की
अमानवीय घटनाओं और उसके बाद
भी एक बड़े तबके की चुप्पी की
जड़ में बहुसंख्यक वर्ग के
बीच पनप रहे इस डर और उससे उपजी
असुरक्षा की भावना को साफ देखा
जा सकता है।
हाल
ही में देश के वर्तमान प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने अपने एक भाषण
के दौरान कठुआ व उन्नाव की
घटनाओं पर बोलते हुए कहा:
जिस तरह की घटनाएं हमने बीते दिनों में देखी हैं वो सामाजिक न्याय की अवधारणा को चुनौती देती हैं। पिछले दो दिनों से जो घटनाएं चर्चा में हैं वो निश्चित तौर पर किसी सभ्य समाज को शोभा नहीं देती हैं, ये शर्मनाक हैं। हमारे स्वतंत्रता सेनानिओं ने , जिन्होंने अपनी जिंदगी देश के भविष्य के लिये बलिदान कर दी, ये उनके बलिदान का अपमान हैं। एक समाज के रूप में, एक देश के रूप में हम सब इसके लिये शर्मसार हैं। देश के किसी भी राज्य में, किसी भी क्षेत्र में होने वाली वारदातें हमारी मानवीय संवेदनाओं को झकझोर देती हैं। मैं देश को विश्वास दिलाना चाहता हूं कि कोई अपराधी बचेगा नहीं, न्याय होगा और पूरा होगा। उन बेटियों के साथ जो जुल्म हुआ है, उन बेटियों को न्याय मिलकर रहेगा। हमारे समाज की इस आंतरिक बुराई को खत्म करने का काम हम सब को मिलकर करना होगा।ii
मोदी
की कही तमाम बातों से कोई भी
उदारवादी व्यक्ति सहमत होगा।
लेकिन जैसा कि मोदी आगे अपने
भाषण में कहते हैं कि क्या यह
बुराई सिर्फ अपने घरों के
लड़कों से यह पूछ कर खत्म हो
जायेगी कि वे रात में इतनी देर
से क्यूं आए और कहां थे?
जैसा कि मोदी
के भाषण से समझ आता है वह इन
घटनाओं की जड़ में उस डर को
नहीं देख पा रहे जिसकी चर्चा
नेहरू करते हैं या जिसकी चिंता
उन तमाम स्वतंत्रता सेनानियों
को थी। एक और सवाल उठता है कि
क्या वो सच में नहीं देख पा
रहे या देखना नहीं चाहते। राम
जन्मभूमि आंदोलन, जो
कि बीजेपी की अगुआई में ही
चला, के
बाद से भारतीय राजनीति में
बहुसंख्यक हिंदू वर्ग,
उसकी पहचान
व संस्कृति से जुड़ा डर लगातार
हावी रहा है। पिछले कई चुनावों
से पहले इस डर की आग में घी
डालने का काम कई दफे हुआ है;
आज भी जारी
है।
ऐसे
में क्या इन तमाम बुराईयों
की जड़ में बैठे इस डर को
नजर-अंदाज
करके उन बेटियों को पूरा न्याय
दिलवाया जा सकेगा, जिसकी
पैरवी मोदी कर रहे हैं?
हमारे
समाज में फैला यह डर,
नेहरू के
शब्दों में हमें कहीं का नहीं
छोड़ेगा।
हमारी
असुरक्षा का दायरा लगातार
बढ़ रहा है, क्या
हम एक कौम के रूप में सतर्क
हैं?
क्या
उन राजनैतिक पार्टियों से इस
डर को खत्म करने या उस दिशा
में योगदान देने की उम्मीद
की जा सकती है जो कि येन-केन
प्रकारेण, जिसमें
यह डर भी एक औजार के रूप में
शामिल है, चुनाव
जीतना चाहती हों?
क्या
इस डर को खत्म करने की जिम्मेदारी
सिर्फ नेताओं या राजनैतिक
पार्टियों की ही है?
ihttps://www.youtube.com/watch?v=PXvIzgAzML8
iihttps://www.youtube.com/watch?v=i591DHiOo4g