Wednesday, March 16, 2011
Monday, March 7, 2011
क्यूँ?
कितनी आसानी से हम अपने घरों, अपने समाज में महिलाओं की भूमिका भूल जाते हैं. अब देखिये ना, मेरे पिताजी पिछले महीने अपने काम से रिटायर्ड हुए. इस मौके पर उनके सम्मान में बिदाई समारोह का आयोजन किया गया. जिसमें उन्हें बुलाया गया, उनका सम्मान किया गया. वो इस सम्मान के लायक भी हैं. अपना काम जिम्मेदारी से किया उन्होंने. पर एक सवाल जो मेरे दिमाग में आता है वो ये कि क्या मेरी माँ के बिना मेरे पिताजी का उनके काम को जिम्मेदारी से निभा पाना संभव था? अगर मेरे पिता जी निश्चिन्तता के साथ खदानों में अपना काम कर पाते थे तो ज़रूर मेरी माँ ही उसका कारण रहीं होंगी. घर के कामों को, जिन्हें अमूमन काम ही नहीं समझा जाता, मेरी माँ ने बखूबी निभाया. हम ३ भाई बहनों को बड़ा किया, हमारा ख्याल रखा, घर से जुड़ी सारी जिम्मेदारियां निभाईं और अब भी निभा रही हैं. फिर क्यूँ उन्हें और उन जैसी अनेकों महिलाओं को उचित सम्मान नहीं मिलता?
Friday, March 4, 2011
कहने को तो (यादें हॉस्टल की)
मैंने इंजीनियरिंग की पढाई की है, पर पढाई करने भर से तो कोई वो बन नहीं पाता जिसकी पढ़ाई की हो, तो अपने साथ भी वैसा ही है. मुझसे कहीं ज्यादा बेहतर इंजिनियर मेरे पिताजी हैं, जिन्होंने कहने को औपचारिक तौर पर उसकी शिक्षा नहीं ली है.
पर पढ़ाई के अलावा भी बहुत कुछ किया कालेज में. कुछ अच्छे लोगों से मिला. चंद अच्छे दोस्तों से अपनी पोटली भरी. वो कॉलेज के साथी, खासतौर पर उनके साथ बिताया हॉस्टल का समय और उससे जुडी यादें अकसर ही मन को गुदगुदाती हैं.
उन्हीं की याद में ...
कहने को तो
पिछले कई सालों में नही मिला उनसे,
पर याद जब भी आते हैं वो,
तो होठों पर हँसी लौट आती है.
याद आता है मुझे कि
कैसे मैं और बाबा दानिश
साथ मिलकर हिट गानों की
पैरोडी बनाते थे
हँसते थे, हंसाते थे
रात में भुतुआ
कहानी सुनाते थे
आलोक को डर लगता था
उसे ही डराते थे.
कभी किसी की
कम्बल कुटाई करते
तो कभी किसी का
नास्ता चुराते थे.
कहने को तो
पढने के लिए जागते थे
पर इंतज़ार रहता था
शंकर के पराठों का
जिन्हें खा कर बस सो जाते थे.
वो घी का भगोना
जो राजा जी,
गाँव से लेकर आए थे.
वो आचार का डिब्बा
जो आलोक घर से लेकर आया था
दूसरे कमरों के साथियों
से उसे बड़ी मुश्किल से बचाते थे.
कहने को तो
वो डिब्बे कब के खाली हो गए
पर पराठों पर तैर रहे घी की गंध
और आचार का स्वाद,
मुझे अब भी याद है.
वो रेगिंग का मौसम,
चान्टो से लाल हुए गालों के संग,
जब हॉस्टल के साथी सामने आते थे,
हम सब भी हदस जाते थे.
खबर आती जब
रात को दरवाजा खोल कर सोने की
हम कैसे हॉस्टल से बाहर
दोस्तों के रूम पर सो जाते थे.
कहने को तो
वो गाल कब के लाल हो गए
पर उन हाथों की गर्मी
मुझे अब भी याद है.
वो सिंह का गाना,
४ दिनों से भिगोये कपडों
को रात में धोना,
१२ बजे उठ के,
शेव बनाना.
उसकी वो दानिश से लडाई,
और वो अलार्म वाली घड़ी भाई,
जिसे गौरव ने उठा कर पटक दिया था.
कहने को तो
वो फिर कभी नही बजी,
पर वो सिंह का बचपना
मुझे अब भी याद है.
वो फर्स्ट इयर के पेपर
वो जैन का आना,
पेपर लीक हो गया है,
ये हॉस्टल में फैलाना.
वो पेपर का मिलना
पर एक्साम में उसके प्रश्नों का न आना
कहने को तो
उन परीक्षायों के रिजल्ट
कब के आ गए
पर उन परीक्षायों की तैयारी
मुझे अब भी याद है.
वो क्रिकेट का सीज़न
वो गौरव और सिंह
दोनों ही थे
अपनी टीमों के कैप्टेन
वो दिन भर का क्रिकेट
वो सिंह की बदबू मारती जुराबें
वो गौरव का टेम्पर
वो बड़ी-बड़ी बातें
फंस गए थे
बीच में
मैं और राजा जी
कहने को तो
वो मैच कब के ओवर हो गए
पर वो सिंह और गौरव की बैटिंग
मुझे अब भी याद है.
वो शनिवार की क्लास
वो गौरव का नहाना
वो सिंह का गुस्से में दरवाजा पीटना
और चिल्लाना
वो राजा जी का शाही अंदाज़
वो सलीके से रखी हुई बात
वो गौरव का बिस्तर पर लेटकर पढ़ना
वो और लोगों को पढाना
वो सिंह का नंगे पाव घूम कर आना
और सीधे बिस्तर पर चढ़ जाना
वो गौरव का गुस्सा होना
और अपना अलग बिस्तर लगाना
कहने को तो
अब सब अलग हो गए
पर
वो सबका साथ
मुझे अब भी याद है..
Wednesday, March 2, 2011
मेरा दोस्त OP
OP उन लड़को में से नहीं (जिनमे मैं भी आता हूँ) जो खाना बनाने का शौक तो रखते हैं पर कुकर की सीटी भी नहीं लगा सकते, उसे खाना बनाकर औरों को खिलाने से प्यार था (उम्मीद है अब भी होगा)...मेरी आज तक उससे ऐसी कोई भी बात-चीत नहीं हुई जिसमें खाना बनाने का जिक्र ना आया हो..
उसके बचपन का नाम गोपी था, बड़ा मस्त हसमुख बच्चा था वो, मोटा ताजा...पिता जी किसी दूसरे शहर में काम करते, और वो अपनी डॉक्टर माँ, छोटी बहन और दादा जी के साथ ही रहता...बैठना और चलना शुरू करते ही उसमे एक अच्छे कुक होने के गुण नज़र आने लगे थे...माँ जब भी रसोई में होती तो पास जाकर खडा हो जाता; खाना बनते बनते ही चखने की जिद करता, बोल तो पाता नहीं था तो अजीब से मुंह बनाकर अच्छा या खराब बना है, ये अपनी माँ को बताता...थोडा बड़ा हुआ तो माँ की सब्जी, वगैरह काटने में मदद भी करने लगा...
उस समय गैस चूल्हे का इस्तेमाल नहीं होता था, तो कोयले की सिगडी इस्तेमाल की जाती थी; माँ जब रोटी बना रही होती तो उसके पास बैठकर, आटा मांगकर, कभी उस आटे से कछुआ बनाता और कभी चिडिया; फिर उसे सेंकने के लिए माँ से कहकर सिगडी के निचले हिस्से में रखवाता...जब वो सिक जाती तो अपनी बहन को खिलाता और पूछता कि कैसा बना है?
दादा जी के साथ बाज़ार से सब्जी भाजी खरीदने के लिए साथ जाने की जिद करता...ऐसे ही एक बार वो 4 साल की उम्र में वो उनके साथ हाट बाज़ार गया; दादा जी ने खाने के लिए समोसा खरीद कर दे दिया; जिसे हाथ में लिए वो घूम रहा था...उसके हाथ में समोसा देखकर एक कुत्ता उसके पीछे पड़ गया, कुत्ते को पास आता देखकर, वो डर गया और समोसा हाथ से झूट गया...कुत्ते ने समोसा तो गपक लिया पर जाने क्यों OP साथ छोड़ने का उसका मन नहीं हुआ; और उसके पीछे-पीछे हो लिया...दादा जी को ये साथ कुछ पसंद नहीं आया इसलिए उन्होंने कुत्ते को छड़ी से भगाना चाहा; और एक छड़ी रसीद भी कर दी, बस कुत्ता तो जैसे पागल ही हो गया; दादा जी का तो वो कुछ बिगाड़ नहीं पाया, पर बेचारे OP की छोटी-छोटे टांगो में अपने दांत गडा दिए;
ह्म्म्म्म, सारे बाज़ार में हल्ला हो गया, डॉक्टर दीदी के बच्चे को कुत्ते ने काट खाया, वगैरह वगैरह...खैर दादा जी उसे लेकर घर पहुंचे, माँ को पता चला तो परेशान हो गयी...उस समय कुत्ते के काटे पर १४ इंजेक्शन लगते थे और वो भी पेट पर...मुझे तो सोचकर ही डर लगता है, पर बेचारे OP को तो सच में लगे...
इस दौरान किसी पडोसी ने दादा जी को समझा दिया कि इस इंजेक्शन वगैरह से कुछ नहीं होने वाला; और सुना है कि वो कुत्ता पागल हो गया है, और अगर वो कुत्ता कहीं 10 दिन में मर जाए तो OP को कोई नहीं बचा सकता ..इतना सुनकर दादा जी सकते में आ गए और फिर कवायत शुरू हुई, OP को छोड़ कुत्ते का हाल- चाल लेने की...
सारा मोहल्ला उस कुत्ते की खोजबीन में लग गया...बड़ी मुश्किल से पता चला कि OP को काट खाने के बाद वो जनाब, पास वाली नदी के पास नहाते देखे गए हैं, जैसे किसी पार्टी में जाने की तैयारी हो...बस फिर क्या था...पूरा दल कुत्ते को पकड़ने के लिए चल पडा...खैर बड़ी मुश्किल से उसे पकड़ भी लिया गया...अब जद्दोजहद ये थी कि कुत्ते को कम से कम १० दिन तो ज़िंदा रखा जाए...लोगों ने सलाह दी कि दादा जी कुत्ते को घर ले जाएँ ताकि वो नज़रों के सामने रहे..वहां उसकी अच्छे तरीके से खिलाई पिलाई हो और उसका ख्याल रखा जा सके...
कुत्ते को घर लाया गया..आँगन में ही बाँध दिया गया...OP के कमरे की खिड़की से वो नीचे आराम से दिखाई दे जाता..OP बिस्तर पर पड़े-पड़े अपनी बहन से कुत्ते के हाल-चाल लेता...उसका बस चलता तो वो भी कुत्ते की टांग काट कर आता; पर ये उस समय तो मुमकिन ना था...उसे दादा जी पर भी बड़ा गुस्सा आ रहा था कि एक तो कुत्ते ने उसकी टांग काट खाई और एक वो हैं कि रोज़ उसे, दूध, अंडा, हड्डी खिला रहे हैं...और उसे खाने को खिचडी दी जाती है...OP ने मन ही मन कसम खाई एक बार ठीक हो गया तो रोज़ अच्छा अच्छा बनाऊंगा और खाऊँगा..
उस दिन का गुस्सा OP आज भी निकालता है, हाँ ये बात और है कि अब उसे गुस्सा नहीं प्यार आता है, और अब उसे खुद के लिए पकाने से ज्यादा मज़ा आता है किसी और के लिए पकाने में और उन्हें खिलाने में...
OP
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