१५ अगस्त २०१२ की सुबह
आज़ाद भारत की ६५वी सालगिरह. देश के प्रधानमंत्री ने लाल-किले पर तिरंगा लहरा दिया है, देश के नाम सन्देश भी ज़ारी कर दिया है. टीवी पर आजादी से जुड़े कई कार्यक्रम आ रहे हैं. घर के पास ही सरकारी स्कूल के बच्चे में सुबह की प्रभात फेरी निकालने निकल गए हैं. सुबह से ही स्कूल में लाउड स्पीकर पर एक गीत बज रहा है जो मैंने बचपन से १५ अगस्त और २६ जनवरी के दिन ही सुना है:
"ऐ मेरे वतन के लोगों......जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुर्बानी."
अब जब यहाँ लोगों से मिलता हूँ या सड़कों पर उन्हें देखता हूँ तो महसूस होता है कि उनमे से कईओं की शक्ल तो ज़हन में छपी हुई है पर उनके नाम भूल गया हूँ. बस थोड़ी देर पहले ही अखबार बांटने वाले एक बुजुर्ग अखबार देकर गए हैं. उनकी शक्ल देखकर भी ऐसा ही लगा. शायद कई दिनों बाद आये थे वो अखबार डालने. बीच में उनकी तबियत नासाज़ थी और कोई और दे जा रहा था अखबार उनकी जगह. माँ ने उनकी तबियत पूछी तो बतलाया कि बहुत दिनों तक मलेरिया का तेज़ बुखार आता रहा. अभी भी ज्यादा बेहतर नहीं है पर पहले से ठीक हैं और लौट आये हैं काम पर वरना दिक्कत हो जायेगी घर चलाने में.
मैं सोच रहा था उनके जाने के बाद उनके बारे में. पिता जी से पूछा तो पता चला कि वो कई सालों से अखबार बाँटते हैं. बचपन में हमारे मोहल्ले में भी बांटते थे. इसीलिए मेरे ज़हन में उनकी तस्वीर थी. सोच रहा था मैं, कि मेरे बचपन से अब तक तो बहुत कुछ बदल गया, पिताजी रिटायर हो गए. हमारा अपना घर हो गया. उनके बच्चे पढ़-लिखकर अच्छी स्थिति में हैं. पर उन अखबार वाले साथी के लिए क्या बदला. शायद बस यही कि वो जवान से बूढ़े हो गए. अभी भी वही काम कर रहे हैं. रिटायर होने की विलासिता का सुख वो शायद कभी नहीं भोग पायेंगे. मैं उनके बच्चों के बारे में नहीं जानता. पर शायद वो भी इतनी अच्छी स्थिति में नहीं, वरना उन्हें बुढापे में क्यों काम करना पड़ता और वो भी बीमारी के दौरान.
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