Thursday, April 28, 2016

अंग्रेजी में डब्बा गुल मेरा . . .

एक फिल्म आई है इन दिनों - निल बटे सन्नाटा। देखी तो नहीं अभी तक पर मन बड़ा है। ट्रेलर देखकर लग रहा है कि फिल्म मजेदार होगी। साथ ही इसकी कहानी हमारे सामाजिक संबंधों व उससे उपजी विषमताओं को उजागर करती प्रतीत होती है। देखते हैं कब मौका मिलता है। 

वैसे इस फिल्म का एक गाना भी काफी हिट हो रहा है - 'Maths में डब्बा गुल मेरा'। सुना है स्कूलों में बच्चे काफी गुनगुना रहे हैं इसे आजकल और कई बड़े अपना बचपना याद कर रहे हैं इसके बहाने। मैं भी उनमें से एक हूं। पर स्कूल में मेरा डब्बा Maths यानी कि गणित में नहीं बल्कि English माने कि अंग्रेजी में गुल था। और ये एहसास हुआ भी तब जब करवाया गया। हमारे अपने मोहल्ले-पड़ोस या घर में अंग्रेजी का कोई माहौल ना था और ना ही जरूरत। हालांकि मोहल्ले के एक-आध बच्चे इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ा करते थे, लेकिन अधिकतर तो कालरी के ही हिंदी मीडियम स्कूल में पढ़ते थे, जिसमें छोटी और बड़ी एबीसीडी कक्षा 5 से पढ़ाई जाती थी। मैं और मेरी छोटी बहन भी उन बच्चों में से ही थे।

नौरोजाबाद नाम के उस छोटे से कस्बे में रहने वाले कोयले की खदान में काम करने वाले कामगारों के बच्चों के अलावा आसपास के गांवों के भी कई बच्चे उस स्कूल में आया करते थे। उन गांवों से आने वाले अधिकतर बच्चों को मास्साब और बहन जी (हां हम अपने शिक्षकों को ऐसे ही पुकारते थे) कमजोर कहते थे। आज सोचता हूं तो लगता है कि अच्छा ही तो था कि अंग्रेजी की अक्षरमाला देर से पढ़ाई जाती थी क्यूंकि उन बच्चों के लिये तो स्कूली हिंदी ही इतनी अजनबी थी कि अगर पढ़ाई अंग्रेजी में होती जाने क्या हाल होता उनका। लेकिन उस स्कूल के मुताबिक मैं पढ़ाई में ठीक-ठाक था।

मेरे चचेरे-भाई वगैरह इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ा करते थे तो परिवार के अन्य लोगों का मेरे मां-पिता जी पर दबाव सा रहता कि वो हम लोगों को भी इंग्लिश मीडियम स्कूल में डालें। जब मैं कक्षा सात ठीक-ठाक नंबरों से पास हो गया तो दबाव बढ़ सा गया। वैसे भी मेरा स्कूल आठवीं तक ही था सो आज नहीं तो कल ये सवाल तो उठना ही था कि आगे कहां पढ़ेगें। मेरे चचेरे बड़े भाई एक दिन इंग्लिश मीडियम स्कूल का फार्म लेकर आ गये। अब फार्म भी अंग्रेजी में ही था सो उन्होंने ही भरा। पिता जी से हस्ताक्षर वगैरह लिये और कहते हुए निकल गये कि वो फार्म स्कूल में जमा कर देंगे और मैं दाखिले के लिये होने वाले टेस्ट की तैयारी शुरु कर दूं। 

याद नहीं मैंने कुछ तैयारी-वैयारी की या नहीं लेकिन कुछ दिनों बाद हमारे भाई साहब फिर आ धमके, इस दफे उनके साथ उनके स्कूल के अंग्रेजी के शिक्षक भी दे। मुझे उनके सामने खड़ा कर दिया गया। उन्होंने वहीं टेस्ट लेना शुरु कर दिया। तमाम सवाल पूछे, अंग्रेजी में, मैं चुप। आखिर में उन्होंने थकहार कर उनके मुताबिक एक सरल अंग्रेजी शब्द के हिज्जे पूछे। शब्द था Bamboo (बैंबू) - और उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ कि मुझे, छठीं क्लास में फस्ट आये एक बच्चे को इतने सरल शब्द के हिज्जे भी नहीं पता। अपना सर हिलाते हुए बिना चाय पिए ही वो ये कह कर गये कि इनका यानी कि मेरा कुछ नहीं होने वाला। 

हमारे बड़े भाई काफी शर्मिंदा हुए, शायद उन्हें लगा हो कि मैंने उनके शिक्षक के सामने उनकी नाक कटा दी। पिताजी अलग से नाराज। खैर, दाखिला के लिये होने वाले टेस्ट का दिन भी आ ही गया। मैं घबराया हुआ था। मां ने दही-शक्कर खिलाकर माथे पर तिलक लगा घर से विदा किया, मानों किसी युद्ध में भाग लेने जा रहे हों। पिता जी साईकिल पर बैठाकर स्कूल लेकर गये। एक सीमा के बाद पिताजी पीछे ही रह गये और मुझे दूसरे बच्चों के साथ उस कमरे में ले जाया गया जहां टेस्ट होना था। मेरे स्कूल में कक्षा 7 तक के बच्चे नीचे ज़मीन पर टाट -पट्टी बिछाकर आलथी-पालथी मारकर बैठा करते थे, पर यहां तो बैंच पर बैठकर टेस्ट देना था। टेस्ट शुरु हुआ और जाने कब खत्म भी हो गया। अंग्रेजी के सवाल छोड़ ही दीजिये, जो विषय मुझे सबसे अच्छा लगता था, गणित, घबराहट में मैं उसके सवाल भी हल नहीं कर पाया था। 

जिसकी आशंका थी वही हुआ, मेरा सिलेक्शन नहीं हुआ। आठवीं कक्षा मुझे अपने पुराने स्कूल में कुछ शिक्षकों से यह सुनते हुए पढ़नी पढ़ी कि 'ये तो अंधों में काना राजा है'। लेकिन जब आठवीं भी ठीक-ठाक निकल गई तो वही कोशिश दोबारा शुरु हुई। इस बार पिता जी ने ठान लिया था कि 'कुछ ना कुछ करके' दाखिला करवा ही देंगे। और दाखिला हो ही गया।

नया स्कूल, नई ड्रेस, नये चेहरे और नया घर। नया घर इसलिये कि इंग्लिश मीडियम स्कूल में दाखिला मिलने के साथ ही घर पर लोगों को यह मेहसूस हुआ कि अब पढ़ाई अंग्रेजी में होगी तो जरूरत होगी कि ट्यूशन लगवा दी जाये। घर पर तो किसी के भी अंग्रेजी में‌ पढ़ाना मुमकिन नहीं। फिर यह भी समझ आया कि जिस जगह पर मैं रहता हूं, वहां ऐसा कोई टीचर ही नही था। सो मैं अनमने अपना बोरिया-बिस्तर बांधकर अपनी बुआ जी के यहां शिफ्ट हो गया। तय हुआ कि मैं वहीं से बस से स्कूल आ जाया करूंगा जो ठीक मेरे अपने घर और बुआ जी के घर के बीचो-बीच पड़ने वाली एक जगह पर था। 

एक शिक्षक भी ढ़ूंढ लिये गये। उन्हें कम सुनाई देता था और वो थोड़ा तुतलाते भी थे। अच्छा ये था कि वो सभी 'जरूरी' विषय पढ़ा सकते थे - अंग्रेजी, विज्ञान व गणित।  यही वो तीन विषय थे जो अंग्रेजी में पढ़ाये जाते थे बाकी बचे हिंदी, संस्क्र्त और सामाजिक अध्ययन।  इन छ: विषयों में से दो ऐसे थे जिनमें मेरा डब्बा गुल रहता था - अंग्रेजी और विज्ञान। मेरी अंग्रेजी भाषाज्ञान का उदाहरण तो आप देख ही चुके हैं जिसके चलते अंग्रेजी में‌ पढ़ाया जाने वाला विज्ञान भी मेरे एकदम पल्ले नहीं पड़ता था। कक्षा में शिक्षक जाने क्या अंग्रेजी में बोलकर निकल जाते और मैं अपनी किताब में उकरे अक्षर ही निहारता रहता। हर महिने होने वाले यूनिट टेस्ट की जब कापिया बांटी जातीं तो इन विषयों में कभी ज़ीरो या कभी एक-आधा नंबर पा कर कुछ अन्य छात्रों के साथ मैं भी खड़ा होता - सर झुकाये, शर्मिंदा।  बस एक विषय था - गणित, जिसकी कक्षा में आस बंधती कि नहीं मैं खाली डिब्बा नहीं हूं। जो मैडम हमें गणित पढ़ाया करती थीं वो काफी मेहनत करतीं और मैं भी। 

मुझे सुबह जल्दी उठकर पढ़ने की आदत थी। हर रोज सोचकर उठता कि आज अंग्रेजी या विज्ञान पढ़ूंगा लेकिन हर रोज बस अपने आप को गणित के प्रश्न हल करते हुए पाता। मेरी शिक्षिका भी मुझे प्रोत्साहन देती। गणित में‌ मेहनत के नतीजे यूनिट टेस्ट में भी दिखाई देते। पर अंग्रेजी और विज्ञान में जो हालत थी तो उसके चलते बड़ी मुश्किल से रट्टा मार-मारकर अर्ध-वार्षिक और वार्षिक परिक्षाएं पास की। विज्ञान की एक परिभाषा जो मेरे ट्यूशन वाले तोतरे सर ने मुझे हिज्जों समेत रटवाई थी, वो आज भी याद है "Spontaneous emission of radiation through heavy metal nucleus is called radioactivity"। बाप रे, इतनी heavy परिभाषा जिसका मुझे ना सिर पता था ना पैर, बस इतना पता था कि अगर परीक्षा में सवाल आये कि - व्हाट इज़ रेडियोएक्टिविटी - तो याद किया हुआ यही जवाब जस का तस लिखना है। बिना समझे रट्टा मारकर परिक्षाएं पास करने की आदत कालेज जाने के बाद भी कई दिनों‌ तक छूटी नहीं।    

खैर वापिस आते हैं अंग्रेजी पर जिस पर हमारा कोई जोर ना था और ना ही हम कोशिश ही कर रहे थे। जब दसवीं में गये तो थोड़ा बेशर्म हो गये। English की हमारी एक नई शिक्षिका आईं। कई दिनों तक तो हमने उन्हें अपनी शक्ल ही नही दिखाई। उनकी क्लास के समय 11वीं के बच्चों का खेल का पीरियड होता था। मेरे कई दोस्त थे उस क्लास में तो मैं उनके साथ क्रिकेट खेलता रहता अंग्रेजी की कक्षा बंक मार के। कई दिनों बाद जब पहली बार अंग्रेजी की क्लास में बैठे तो उस दिन मैडम जी ही नहीं आईं। मालूम हुआ कि चलते हुए उनकी हाई हील की चप्पल टूट गई और उनके पैर में मोच आ गई। और कुछ भी जानने को मिला उस दिन नई शिक्षिका के बारे में कि वो हर रोज अलग साड़ी और चप्पल पहन कर आती हैं। बाद में कभी किसी कारण से अपने एक मित्र के साथ उनके घर जाने का मौका मिला तो सच में उनके घर चप्पलों की भरमार देखकर मैं दंग रह गया था।

दसवीं बोर्ड थी। जिन्होंने ये परिक्षाएं दी हैं वो ही समझ सकते हैं कि कितना दबाव और डर होता है इन परिक्षाओं के चलते। हमारे स्कूल में ये डर और भी बढ़ जाता क्यूंकि 11वीं में आगे गणित की पढ़ाई के लिये ये जरूरी था कि विज्ञान और गणित के कुल अंक 130 से ज्यादा हों। अगर पास होने की स्थिति में इतने अंक नहीं आये तो आगे बायो लेकर पढ़िये या फिर नया स्कूल तलाशिये। और कोई विकल्प नहीं। अंग्रेजी के मामले में तो हम हाथ खड़े कर ही चुके थे, विज्ञान रटते रहते पर मन लगाकर गणित करते।  बोर्ड परीक्षा के नतीजों को देखकर कोई हैरानी नही हुई , अंग्रेजी - 40/100, विज्ञान - 52/100 व गणित - 80/100 - और कुल मिलाकर 59.6 प्रतिशत।

मुझे तो गणित ने बचा लिया लेकिन पुरानी कक्षा के लगभग दो-तिहाई बच्चे नई कक्षा में‌ नहीं‌ पहुंच पाए। उनमें से कई मेरे बहुत अच्छे दोस्त भी थे। सच कहूं तो मेरे ज्यादातर दोस्त उन्हीं में थे। बाद में कभी-कभार ही उनसे मुलाकात हो पाती। कुछ दूर से ही चिठ्ठियां लिखकर भेजते, उस जमाने में ना तो मोबाईल थे, ना कम्प्यूटर और ना ही ईमेल। 

आज तकरीबन 20 साल हो गये इस बात को। स्कूल छूटने के बाद भी पढ़ता ही रहा मैं - इंजीनियरिंग, मास्टर्स और फिर पीएचडी भी की।  इन सबके बीच कहीं ये एहसास लगातार था कि अगर दसवीं में गणित ने ना बचाया होता तो जाने क्या होता। साथ ही यह भी एहसास था कि मैं अगर आगे पढ़ पाया तो तमाम लोगों के अलावा उन शिक्षिका का भी बहुत बड़ा योगदान है।  मन करता था उनसे जाकर मिलूं और एक दिन मैं पहुंच भी गया उनसे मिलने - केरल। ना मुझे यकीन हो रहा था कि मैं उनसे मिलने पहुंचा और ना उन्हें। वैसे वो तो मुझे पहचान भी काफी देर से पाईं। मुझे और मेरे साथ गये दोस्तों को बस अड्डे तक छोड़ते जाते वक्त उनकी आंखें भरी हुई थीं और मेरी भी। 

उस स्कूल के एक और भी शिक्षक थे जिनसे मिलने का मन है - गुरु जी। वो हमें हिंदी पढ़ाया करते। पढ़ाने का उनका अंदाज निराला था और साथ ही सजा देने का भी।  कक्षा में जब वो हमारी कापियां चेक करते तो एक-एक करके हमें उनकी टेबल तक जाना होता था। अक्सर ही वो छात्रों को लेख सुधारने की हिदायत देते - कक्षा की लड़कियों तो ये हिदायत सिर्फ मुंह जबानी ही दी जाती लेकिन लड़कों के लिये उनके पास एक और भी तरीका था। हमें अपनी कुर्सी के पास बुलाकर वो हमारी कोहनी के ऊपर अंदर की तरफ की चमड़ी पकड़ लेते और फिर बड़ी धीमी शुरुआत करते चमड़ी को भीचते हुए ये सवाल करते जाते कि 'बताओ कब तक लेख सुधारोगे?'। जब तक आंखों से पानी या मुंह से चीख ना निकले ये क्रम चलता रहता। अपनी दो बातों के लिये वो हमेशा मुझे याद रहते हैं - पहली तो एक दफे उन्होंने जमकर मेरी कुटाई की थी और दूसरी बात ये कि वो हमेशा स्वयं का कुछ लिखने के लिये प्रोत्साहित करते। अक्सर ही वो हमें कहानी, कवितायें वगैरह लिखकर लाने के assignments देते। शायद इसी के चलते ही मुझे लिखने की आदत लगी। 

इफ्तेकार

अप्रैल 2016, सूखे की मार झेल रहे मध्य भारत के एक विशाल प्रांत का एक बड़ा शहर। इस बड़े शहर के एक पुराने रिहायशी इलाके में बना एक बड़ा कारपोरेट अस्पताल। इस अस्पताल के गेट के ठीक बगल में एक छोटी कबाड़ सी वर्कशाप। इस वर्कशाप में सड़क की तरफ पीठ कर ज़मीन पर ऊखरू बैठ काम कर रहा छोटी कद-काठी का एक साठ वर्षीय बुजुर्ग - इफ्तेकार उर्फ बब्बू। 

पहले तो लगा कि वर्कशाप उन्हीं की है, लेकिन फिर पता चला कि किसी पटेल की है। इफ्तेकार तो सिर्फ वहां दिहाड़ी पर काम करते हैं‌ पिछले दसियों सालों से और वो भी अकेले। लोहे के टेबल, स्टैंड, गेट वगैरह बनाने/बेचने के इस वर्कशाप में होने वाले सभी काम ये शख्स अकेला ही करता है; नापना, काटना, जोड़ना, रंग करना, सामान उठाना-रखना सब कुछ अकेले ही, बिना रूके, लगातार अपने आप से बातें करते हुए। उन्हें काम करते देख बार-बार एहसास होता है कि उस्तादी इसी को कहते हैं। बमुश्किल दो मिनट की बातचीत में ही उस्ताद बब्बू अपनी आखिरी इच्छा ज़ाहिर कर देते हैं कि वो मर जाना चाहते हैं बस एक बार बेटी की शादी में लिया कर्ज उतर जाये। आज उनके पेट में दर्द है, लेकिन काम तो करना है वरना पटेल गाली देगा।

रोजाना दस-बारह किलोमीटर साईकिल चलाकर काम पर आने वाले इफ्तेकार 11 बजे वर्कशाप खोलते हैं, रात 8 बजे तक लगातार काम करते हैं - बिना कुछ खाये, और फिर उतनी ही दूरी साईकिल चलाकर घर पहुंचते हैं। सुबह का खाना घर से खाकर आते हैं और फिर दिनभर काम के दौरान कुछ भी नहीं खाते। कारण पूछने पर बतलाते हैं‌ कि यहां आसपास कोई टायलेट की व्यवस्था नहीं। हां, बड़े अस्पताल का एक आसरा है कि अप्रैल के महिने में ही हो रही 45 डिग्री की तपिश में‌ पीने के लिये ठंडा पानी मिल जाता है। वैसे ठीक उनकी वर्कशाप के सामने सत्तारूढ़ दल की एक नेता का जनसंपर्क कार्यालय है। लेकिन इफ्तेकार भाई की हालत देखकर तो लगता नहीं कि उन मोहतरमा ने कभी उनसे संपर्क साधने की ज़हमत उठाई होगी।

दिनभर की कड़ी मेहनत के इफ्तेकार भाई को मिलते हैं 300 रुपये। पूछने पर पता चला कि काम लगातार आता रहता है और वो औसतन एक दिन में 1500-2000 रुपये की कीमत का सामान बना देते हैं जिसमें इस कीमत की लगभग एक-तिहाई का साजो-सामान लग जाता है। इस हिसाब से देखें तो इफ्तेकार भाई पटेल को कारखाने के रोजाना दो चक्कर मारने भर के लगभग 700-1000 रुपये कमाकर देते हैं, हिसाब दुरूस्त।  कमाल के उस्ताद हैं इफ्तेकार भाई, अपने श्रम से सामान बनाकर ना केवल अपनी दिहाड़ी निकाली बल्कि बनाने के लिये जरूरी साजो-सामान की कीमत भी और अपने मालिक के लिये मुनाफा।  

अगर अपनी गाढ़ी मेहनत के बाकी रुपये भी इफ्तेकार भाई की जेब में‌ जाते तो शायद वो अपना कर्ज तेजी से उतार पाते। खैर अभी की परिस्थितियों में तो ये बात ही सपना ही लगती है कि मुनाफा उसका जिसकी मेहनत तो फिर उस समाज की कल्पना और भी मुश्किल है जिसमें काम 'मुनाफे' के लिये ना हो।

जाने कब तक इस उस्ताद को अपनी इच्छा पूरी होने तक दिहाड़ी पर काम करना पड़े।

वैसे इफ्तेकार भाई के पास कम से कम दो जून रोटी का आसरा तो है वरना इस बड़े शहर में कुछ लोग तो भूख से ही मरे जा रहे हैं। मुझे आश्चर्य हुआ ये सुनकर जब अस्पताल के रिसेप्शन पर रविन्द्र घोरे ने मुझे उनके घर के पास ही की एक मां और उसकी बेटी के बारे में बतलाया, जिनकी लाश कई दिनों के बाद उनके घर से मिली थी। रविन्द्र कहते हैं कि काश उन्हें उन दोनों की स्थिति के बारे में‌ कुछ पता चल जाता तो जितना भी बन पड़ता वो मदद करने की कोशिश करते। लेकिन अफसोस कि लोक-लाज के चलते उन मां-बेटी ने ये बात किसी को नहीं‌ बतलाई कि उनके घर खाने को कुछ नहीं।

रविन्द्र भाई से बातचीत अचानक ही शुरु हुई। मैं रिसेप्शन डेस्क के सामने लगी कुर्सियों पर बैठा हुआ था और रविन्द्र सामने किसी बीमारी के ईलाज में होने वाले खर्च का अंदाज़ा लेने आये थे। एक हाथ में हेलमेट और दूसरे में एक छोटा पर भारी-सा बैग लटकाये रविन्द्र को देखकर लगा कि वो अपने काम के बीच में ये सब पता करने आये हैं। जैसे ही वो मुड़कर चलने को हुए कि सामने से आ रहे अस्पताल के ही एक डाक्टर ने अपना हेलमेट उतारते हुए उनसे पूछा कि कहीं हेलमेट पहनने से उनका चश्मा टेढ़ा तो नहीं हो रहा। ध्यान नहीं कि इस बात का रविन्द्र ने कुछ जवाब दिया या नहीं। लेकिन डाक्टर की इस बात पर कि हेलमेट की वजह से उनका साढ़े आठ हजार रुपये का चश्मा खराब हो रहा है रविन्द्र जरूर बुदबुदाये थे कि "कहां तो हमारे जैसे लोग साढ़े आठ-नौ हजार में महिना चलाते हैं, परिवार पालते हैं और एक ये हैं; इतना भेद तो नहीं होना चाहिये देश में"। बात सही लगी मुझे तो मैं उनके पीछे हो लिया।

सच ही तो कह रहे थे रविन्द्र भाई कि इस देश में कितनी विषमता है। जहां एक ओर हजारों-करोड़ों का बैंकों का कर्ज डूबाकर बड़े-बड़े पूंजीपति ऐशो-आराम से जी रहे हैं,  वहीं इफ्तेकार जैसे मेहनतकश अपना एक-आध लाख रूपये का कर्ज उतारने के लिये दिनभर खटते हुए गुजारे लायक एक जिंदगी काट रहे हैं।


Thursday, April 7, 2016

तकनीक

एक कहावत बचपन से ही सुनी है कि "जेब में नहीं है धेला और भरने चले हैं थैला!"। लेकिन पिछले साल मुंबई नगरिया में जो हमारे साथ हुआ उसके बाद इस कहावत को कुछ बदलकर ऐसा लिखने का मन कर रहा है कि "जेब में‌ लेकर गये थे धेला, फिर भी खाली लाए थैला!"

अब हुआ यूं कि हम कसबट्टू पहुंचे महानगरी मुंबई। शिक्षा में कंप्यूटर और उससे जुड़ी तकनीक के इस्तेमाल पर कुछ दिनों का एक आयोजन था। हम भी गये थे शिरकत करने।  कार्यक्रम की आखिरी शाम हमारे मित्र हिमांशु ने कहा कि भाई इतनी दूर से आये हो, भाभी जी के लिये कुछ मिठाई-विठाई ले जाओ। एक दुकान है यहां चेम्बूर में। वर्ल्ड फेमस है मैसूर-पाक उनके यहां की। ले जाओ भाभी के लिये, उन्हें भी अच्छा लगेगा। हमें ख्याल आया कि हमारी श्रीमति जी को मिठाई पसंद भी है तो आईडिया बुरा नहीं। और चल दिये हम दोनों मुंबई की वर्ल्ड फेमस मिठाई लेने।

शाम का वक्त। खचाखच भरा मार्केट। पैदल अपनी राह बनाते हम पहुंचे मिठाई की दुकान पर। अपने कसबे के पंचू हलवाई से लगभग चार गुना बड़ी दुकान थी। ग्लास का बड़ा भारी दरवाजा - अलग-अलग शेल्फ में रखी तरह-तरह की रंगीन मिठाईयां बाहर से ही दर्शनीय थीं। हम दरवाजा धकेलते हुए अंदर घुसे। सामने काऊंटर पर तीन लोग थे। हिमांशु ने उनसे पूछा मैसूर-पाक के होने के बारे में और पता चला कि एक खेप बस अभी-अभी तैयार होकर शेल्फ पर लगी है। हिमांशु का तो पता नहीं लेकिन हमारे मुंह में पानी आ रहा था। लगा कि बस जल्दी से आर्डर करें और खाएं। हमने कहा भी यही कि जल्दी से आधा-आधा किलो के दो पैकेट तैयार कर दीजिये। लेकिन काऊंटर पर खड़े लोग अपनी जगह से हिले नहीं। हमें आश्चर्य हुआ तो हमने पूछा कि क्या हुआ भईया? तो उनमें से एक ने कहा कि बिजली नहीं है। पहले तो हमें हमारे सवाल व उनके जवाब के बीच कोई कनेक्शन ही समझ नहीं आया। आखिर मिठाई सामने तैयार थी, बेचने वाले काऊंटर पर थे, खरीददार भी दुकान पर थे और उनकी जेब में पैसे भी थे फिर ये कम्बख्त बिजली बीच में‌ कहां से आ गई या फिर ये कहें कि कहां चली गई।

फिर बात समझ में आई कि बिजली नहीं है तो काऊंटर पर खड़े लोग मिठाई तौल नहीं सकते क्यूंकि उनका तराजू इलेक्ट्रानिक था जोकि बिजली से चलता है। वहीं बिल बनाने के लिये एकमात्र हथियार कंप्यूटर भी बिजली के अभाव में बंद पड़ा हुआ था। अब बिल नहीं निकलेगा तो मालिक को कैसे पता चलेगा कि कितना माल बिका। कुल-मिलाकर उनकी मजबूरी और अपनी परिस्थिति पर थोड़ा गुस्सा भी आया और तरस भी।

सोचा कि थोड़ी देर बाज़ार घूमकर दोबारा आकर देख जाएंगे। कुछ देर यूं ही भटकते हुए जब दुकान पर पहुंचे, बिजली आ चुकी थी, लेकिन समस्या नये अवतार में सामने खड़ी हुई थी। इस दफे काऊंटर के तीनों साथी कंप्यूटर के साथ उलझे हुए थे। मानीटर पर झुके हुए वो उस खाली स्क्रीन पर जाने क्या खोज रहे थे। पता चला कि जिस वक्त बिजली गई तब कंप्यूटर अचानक से बंद हुआ और बिजली के आने के बाद कंप्यूटर महोदय चलने का नाम ही नहीं ले रहे थे। मैंने सोचा कि इस दफे फिर खाली हाथ लौटना पड़ेगा। लेकिन हिमांशु ने कुछ जुगत लगाकर कम्प्यूटर स्टार्ट कर दिया। हम लोगों ने राहत की सांस ली और मिठाई लेकर बाहर आ गये। मिठाई सच में बहुत बढ़िया थी।

रात में बिस्तर पर लेटे-लेटे एक और ख्याल था दिमाग में कि जब मुंबई जैसे बड़े शहर में बिजली के अभाव में काम रूक जाता है तो दूर-दराज के गांव के स्कूलों में कंप्यूटर और उससे जुड़ी तकनीक का इस्तेमाल कर शिक्षा कैसे दी जा सकेगी?

अभी हाल ही में जब आधार कार्ड के मार्फत बायोमेट्रिक जानकारी लेकर "सही" लोगों की पहचान कर राशन बांटने वाली एक दुकान की मशीन को गुस्साये लोगों ने इसलिये तोड़ दिया क्यूंकि वो मशीन उन्हें "सही-सही" नही पहचान रही थी तो ऐसे सवाल अलग रूप में‌ ही सामने आते हैं कि आखिर ये तकनीक किसके लिये है? जो बात समझ आती है वो ये कि उन मेहनतकशों के लिये तो नहीं जो जिनके हाथों-उंगलियों के निशान मिट चुके हैं। लेकिन क्यूं - क्या ये तकनीक का दोष है या व्यवस्था का?