अप्रैल 2016, सूखे की मार झेल रहे मध्य भारत के एक विशाल प्रांत का एक बड़ा शहर। इस बड़े शहर के एक पुराने रिहायशी इलाके में बना एक बड़ा कारपोरेट अस्पताल। इस अस्पताल के गेट के ठीक बगल में एक छोटी कबाड़ सी वर्कशाप। इस वर्कशाप में सड़क की तरफ पीठ कर ज़मीन पर ऊखरू बैठ काम कर रहा छोटी कद-काठी का एक साठ वर्षीय बुजुर्ग - इफ्तेकार उर्फ बब्बू।
पहले तो लगा कि वर्कशाप उन्हीं की है, लेकिन फिर पता चला कि किसी पटेल की है। इफ्तेकार तो सिर्फ वहां दिहाड़ी पर काम करते हैं पिछले दसियों सालों से और वो भी अकेले। लोहे के टेबल, स्टैंड, गेट वगैरह बनाने/बेचने के इस वर्कशाप में होने वाले सभी काम ये शख्स अकेला ही करता है; नापना, काटना, जोड़ना, रंग करना, सामान उठाना-रखना सब कुछ अकेले ही, बिना रूके, लगातार अपने आप से बातें करते हुए। उन्हें काम करते देख बार-बार एहसास होता है कि उस्तादी इसी को कहते हैं। बमुश्किल दो मिनट की बातचीत में ही उस्ताद बब्बू अपनी आखिरी इच्छा ज़ाहिर कर देते हैं कि वो मर जाना चाहते हैं बस एक बार बेटी की शादी में लिया कर्ज उतर जाये। आज उनके पेट में दर्द है, लेकिन काम तो करना है वरना पटेल गाली देगा।
रोजाना दस-बारह किलोमीटर साईकिल चलाकर काम पर आने वाले इफ्तेकार 11 बजे वर्कशाप खोलते हैं, रात 8 बजे तक लगातार काम करते हैं - बिना कुछ खाये, और फिर उतनी ही दूरी साईकिल चलाकर घर पहुंचते हैं। सुबह का खाना घर से खाकर आते हैं और फिर दिनभर काम के दौरान कुछ भी नहीं खाते। कारण पूछने पर बतलाते हैं कि यहां आसपास कोई टायलेट की व्यवस्था नहीं। हां, बड़े अस्पताल का एक आसरा है कि अप्रैल के महिने में ही हो रही 45 डिग्री की तपिश में पीने के लिये ठंडा पानी मिल जाता है। वैसे ठीक उनकी वर्कशाप के सामने सत्तारूढ़ दल की एक नेता का जनसंपर्क कार्यालय है। लेकिन इफ्तेकार भाई की हालत देखकर तो लगता नहीं कि उन मोहतरमा ने कभी उनसे संपर्क साधने की ज़हमत उठाई होगी।
दिनभर की कड़ी मेहनत के इफ्तेकार भाई को मिलते हैं 300 रुपये। पूछने पर पता चला कि काम लगातार आता रहता है और वो औसतन एक दिन में 1500-2000 रुपये की कीमत का सामान बना देते हैं जिसमें इस कीमत की लगभग एक-तिहाई का साजो-सामान लग जाता है। इस हिसाब से देखें तो इफ्तेकार भाई पटेल को कारखाने के रोजाना दो चक्कर मारने भर के लगभग 700-1000 रुपये कमाकर देते हैं, हिसाब दुरूस्त। कमाल के उस्ताद हैं इफ्तेकार भाई, अपने श्रम से सामान बनाकर ना केवल अपनी दिहाड़ी निकाली बल्कि बनाने के लिये जरूरी साजो-सामान की कीमत भी और अपने मालिक के लिये मुनाफा।
अगर अपनी गाढ़ी मेहनत के बाकी रुपये भी इफ्तेकार भाई की जेब में जाते तो शायद वो अपना कर्ज तेजी से उतार पाते। खैर अभी की परिस्थितियों में तो ये बात ही सपना ही लगती है कि मुनाफा उसका जिसकी मेहनत तो फिर उस समाज की कल्पना और भी मुश्किल है जिसमें काम 'मुनाफे' के लिये ना हो।
जाने कब तक इस उस्ताद को अपनी इच्छा पूरी होने तक दिहाड़ी पर काम करना पड़े।
वैसे इफ्तेकार भाई के पास कम से कम दो जून रोटी का आसरा तो है वरना इस बड़े शहर में कुछ लोग तो भूख से ही मरे जा रहे हैं। मुझे आश्चर्य हुआ ये सुनकर जब अस्पताल के रिसेप्शन पर रविन्द्र घोरे ने मुझे उनके घर के पास ही की एक मां और उसकी बेटी के बारे में बतलाया, जिनकी लाश कई दिनों के बाद उनके घर से मिली थी। रविन्द्र कहते हैं कि काश उन्हें उन दोनों की स्थिति के बारे में कुछ पता चल जाता तो जितना भी बन पड़ता वो मदद करने की कोशिश करते। लेकिन अफसोस कि लोक-लाज के चलते उन मां-बेटी ने ये बात किसी को नहीं बतलाई कि उनके घर खाने को कुछ नहीं।
रविन्द्र भाई से बातचीत अचानक ही शुरु हुई। मैं रिसेप्शन डेस्क के सामने लगी कुर्सियों पर बैठा हुआ था और रविन्द्र सामने किसी बीमारी के ईलाज में होने वाले खर्च का अंदाज़ा लेने आये थे। एक हाथ में हेलमेट और दूसरे में एक छोटा पर भारी-सा बैग लटकाये रविन्द्र को देखकर लगा कि वो अपने काम के बीच में ये सब पता करने आये हैं। जैसे ही वो मुड़कर चलने को हुए कि सामने से आ रहे अस्पताल के ही एक डाक्टर ने अपना हेलमेट उतारते हुए उनसे पूछा कि कहीं हेलमेट पहनने से उनका चश्मा टेढ़ा तो नहीं हो रहा। ध्यान नहीं कि इस बात का रविन्द्र ने कुछ जवाब दिया या नहीं। लेकिन डाक्टर की इस बात पर कि हेलमेट की वजह से उनका साढ़े आठ हजार रुपये का चश्मा खराब हो रहा है रविन्द्र जरूर बुदबुदाये थे कि "कहां तो हमारे जैसे लोग साढ़े आठ-नौ हजार में महिना चलाते हैं, परिवार पालते हैं और एक ये हैं; इतना भेद तो नहीं होना चाहिये देश में"। बात सही लगी मुझे तो मैं उनके पीछे हो लिया।
सच ही तो कह रहे थे रविन्द्र भाई कि इस देश में कितनी विषमता है। जहां एक ओर हजारों-करोड़ों का बैंकों का कर्ज डूबाकर बड़े-बड़े पूंजीपति ऐशो-आराम से जी रहे हैं, वहीं इफ्तेकार जैसे मेहनतकश अपना एक-आध लाख रूपये का कर्ज उतारने के लिये दिनभर खटते हुए गुजारे लायक एक जिंदगी काट रहे हैं।
पहले तो लगा कि वर्कशाप उन्हीं की है, लेकिन फिर पता चला कि किसी पटेल की है। इफ्तेकार तो सिर्फ वहां दिहाड़ी पर काम करते हैं पिछले दसियों सालों से और वो भी अकेले। लोहे के टेबल, स्टैंड, गेट वगैरह बनाने/बेचने के इस वर्कशाप में होने वाले सभी काम ये शख्स अकेला ही करता है; नापना, काटना, जोड़ना, रंग करना, सामान उठाना-रखना सब कुछ अकेले ही, बिना रूके, लगातार अपने आप से बातें करते हुए। उन्हें काम करते देख बार-बार एहसास होता है कि उस्तादी इसी को कहते हैं। बमुश्किल दो मिनट की बातचीत में ही उस्ताद बब्बू अपनी आखिरी इच्छा ज़ाहिर कर देते हैं कि वो मर जाना चाहते हैं बस एक बार बेटी की शादी में लिया कर्ज उतर जाये। आज उनके पेट में दर्द है, लेकिन काम तो करना है वरना पटेल गाली देगा।
रोजाना दस-बारह किलोमीटर साईकिल चलाकर काम पर आने वाले इफ्तेकार 11 बजे वर्कशाप खोलते हैं, रात 8 बजे तक लगातार काम करते हैं - बिना कुछ खाये, और फिर उतनी ही दूरी साईकिल चलाकर घर पहुंचते हैं। सुबह का खाना घर से खाकर आते हैं और फिर दिनभर काम के दौरान कुछ भी नहीं खाते। कारण पूछने पर बतलाते हैं कि यहां आसपास कोई टायलेट की व्यवस्था नहीं। हां, बड़े अस्पताल का एक आसरा है कि अप्रैल के महिने में ही हो रही 45 डिग्री की तपिश में पीने के लिये ठंडा पानी मिल जाता है। वैसे ठीक उनकी वर्कशाप के सामने सत्तारूढ़ दल की एक नेता का जनसंपर्क कार्यालय है। लेकिन इफ्तेकार भाई की हालत देखकर तो लगता नहीं कि उन मोहतरमा ने कभी उनसे संपर्क साधने की ज़हमत उठाई होगी।
दिनभर की कड़ी मेहनत के इफ्तेकार भाई को मिलते हैं 300 रुपये। पूछने पर पता चला कि काम लगातार आता रहता है और वो औसतन एक दिन में 1500-2000 रुपये की कीमत का सामान बना देते हैं जिसमें इस कीमत की लगभग एक-तिहाई का साजो-सामान लग जाता है। इस हिसाब से देखें तो इफ्तेकार भाई पटेल को कारखाने के रोजाना दो चक्कर मारने भर के लगभग 700-1000 रुपये कमाकर देते हैं, हिसाब दुरूस्त। कमाल के उस्ताद हैं इफ्तेकार भाई, अपने श्रम से सामान बनाकर ना केवल अपनी दिहाड़ी निकाली बल्कि बनाने के लिये जरूरी साजो-सामान की कीमत भी और अपने मालिक के लिये मुनाफा।
अगर अपनी गाढ़ी मेहनत के बाकी रुपये भी इफ्तेकार भाई की जेब में जाते तो शायद वो अपना कर्ज तेजी से उतार पाते। खैर अभी की परिस्थितियों में तो ये बात ही सपना ही लगती है कि मुनाफा उसका जिसकी मेहनत तो फिर उस समाज की कल्पना और भी मुश्किल है जिसमें काम 'मुनाफे' के लिये ना हो।
जाने कब तक इस उस्ताद को अपनी इच्छा पूरी होने तक दिहाड़ी पर काम करना पड़े।
वैसे इफ्तेकार भाई के पास कम से कम दो जून रोटी का आसरा तो है वरना इस बड़े शहर में कुछ लोग तो भूख से ही मरे जा रहे हैं। मुझे आश्चर्य हुआ ये सुनकर जब अस्पताल के रिसेप्शन पर रविन्द्र घोरे ने मुझे उनके घर के पास ही की एक मां और उसकी बेटी के बारे में बतलाया, जिनकी लाश कई दिनों के बाद उनके घर से मिली थी। रविन्द्र कहते हैं कि काश उन्हें उन दोनों की स्थिति के बारे में कुछ पता चल जाता तो जितना भी बन पड़ता वो मदद करने की कोशिश करते। लेकिन अफसोस कि लोक-लाज के चलते उन मां-बेटी ने ये बात किसी को नहीं बतलाई कि उनके घर खाने को कुछ नहीं।
रविन्द्र भाई से बातचीत अचानक ही शुरु हुई। मैं रिसेप्शन डेस्क के सामने लगी कुर्सियों पर बैठा हुआ था और रविन्द्र सामने किसी बीमारी के ईलाज में होने वाले खर्च का अंदाज़ा लेने आये थे। एक हाथ में हेलमेट और दूसरे में एक छोटा पर भारी-सा बैग लटकाये रविन्द्र को देखकर लगा कि वो अपने काम के बीच में ये सब पता करने आये हैं। जैसे ही वो मुड़कर चलने को हुए कि सामने से आ रहे अस्पताल के ही एक डाक्टर ने अपना हेलमेट उतारते हुए उनसे पूछा कि कहीं हेलमेट पहनने से उनका चश्मा टेढ़ा तो नहीं हो रहा। ध्यान नहीं कि इस बात का रविन्द्र ने कुछ जवाब दिया या नहीं। लेकिन डाक्टर की इस बात पर कि हेलमेट की वजह से उनका साढ़े आठ हजार रुपये का चश्मा खराब हो रहा है रविन्द्र जरूर बुदबुदाये थे कि "कहां तो हमारे जैसे लोग साढ़े आठ-नौ हजार में महिना चलाते हैं, परिवार पालते हैं और एक ये हैं; इतना भेद तो नहीं होना चाहिये देश में"। बात सही लगी मुझे तो मैं उनके पीछे हो लिया।
सच ही तो कह रहे थे रविन्द्र भाई कि इस देश में कितनी विषमता है। जहां एक ओर हजारों-करोड़ों का बैंकों का कर्ज डूबाकर बड़े-बड़े पूंजीपति ऐशो-आराम से जी रहे हैं, वहीं इफ्तेकार जैसे मेहनतकश अपना एक-आध लाख रूपये का कर्ज उतारने के लिये दिनभर खटते हुए गुजारे लायक एक जिंदगी काट रहे हैं।
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