एक कहावत बचपन से ही सुनी है कि "जेब में नहीं है धेला और भरने चले हैं थैला!"। लेकिन पिछले साल मुंबई नगरिया में जो हमारे साथ हुआ उसके बाद इस कहावत को कुछ बदलकर ऐसा लिखने का मन कर रहा है कि "जेब में लेकर गये थे धेला, फिर भी खाली लाए थैला!"
अब हुआ यूं कि हम कसबट्टू पहुंचे महानगरी मुंबई। शिक्षा में कंप्यूटर और उससे जुड़ी तकनीक के इस्तेमाल पर कुछ दिनों का एक आयोजन था। हम भी गये थे शिरकत करने। कार्यक्रम की आखिरी शाम हमारे मित्र हिमांशु ने कहा कि भाई इतनी दूर से आये हो, भाभी जी के लिये कुछ मिठाई-विठाई ले जाओ। एक दुकान है यहां चेम्बूर में। वर्ल्ड फेमस है मैसूर-पाक उनके यहां की। ले जाओ भाभी के लिये, उन्हें भी अच्छा लगेगा। हमें ख्याल आया कि हमारी श्रीमति जी को मिठाई पसंद भी है तो आईडिया बुरा नहीं। और चल दिये हम दोनों मुंबई की वर्ल्ड फेमस मिठाई लेने।
शाम का वक्त। खचाखच भरा मार्केट। पैदल अपनी राह बनाते हम पहुंचे मिठाई की दुकान पर। अपने कसबे के पंचू हलवाई से लगभग चार गुना बड़ी दुकान थी। ग्लास का बड़ा भारी दरवाजा - अलग-अलग शेल्फ में रखी तरह-तरह की रंगीन मिठाईयां बाहर से ही दर्शनीय थीं। हम दरवाजा धकेलते हुए अंदर घुसे। सामने काऊंटर पर तीन लोग थे। हिमांशु ने उनसे पूछा मैसूर-पाक के होने के बारे में और पता चला कि एक खेप बस अभी-अभी तैयार होकर शेल्फ पर लगी है। हिमांशु का तो पता नहीं लेकिन हमारे मुंह में पानी आ रहा था। लगा कि बस जल्दी से आर्डर करें और खाएं। हमने कहा भी यही कि जल्दी से आधा-आधा किलो के दो पैकेट तैयार कर दीजिये। लेकिन काऊंटर पर खड़े लोग अपनी जगह से हिले नहीं। हमें आश्चर्य हुआ तो हमने पूछा कि क्या हुआ भईया? तो उनमें से एक ने कहा कि बिजली नहीं है। पहले तो हमें हमारे सवाल व उनके जवाब के बीच कोई कनेक्शन ही समझ नहीं आया। आखिर मिठाई सामने तैयार थी, बेचने वाले काऊंटर पर थे, खरीददार भी दुकान पर थे और उनकी जेब में पैसे भी थे फिर ये कम्बख्त बिजली बीच में कहां से आ गई या फिर ये कहें कि कहां चली गई।
फिर बात समझ में आई कि बिजली नहीं है तो काऊंटर पर खड़े लोग मिठाई तौल नहीं सकते क्यूंकि उनका तराजू इलेक्ट्रानिक था जोकि बिजली से चलता है। वहीं बिल बनाने के लिये एकमात्र हथियार कंप्यूटर भी बिजली के अभाव में बंद पड़ा हुआ था। अब बिल नहीं निकलेगा तो मालिक को कैसे पता चलेगा कि कितना माल बिका। कुल-मिलाकर उनकी मजबूरी और अपनी परिस्थिति पर थोड़ा गुस्सा भी आया और तरस भी।
सोचा कि थोड़ी देर बाज़ार घूमकर दोबारा आकर देख जाएंगे। कुछ देर यूं ही भटकते हुए जब दुकान पर पहुंचे, बिजली आ चुकी थी, लेकिन समस्या नये अवतार में सामने खड़ी हुई थी। इस दफे काऊंटर के तीनों साथी कंप्यूटर के साथ उलझे हुए थे। मानीटर पर झुके हुए वो उस खाली स्क्रीन पर जाने क्या खोज रहे थे। पता चला कि जिस वक्त बिजली गई तब कंप्यूटर अचानक से बंद हुआ और बिजली के आने के बाद कंप्यूटर महोदय चलने का नाम ही नहीं ले रहे थे। मैंने सोचा कि इस दफे फिर खाली हाथ लौटना पड़ेगा। लेकिन हिमांशु ने कुछ जुगत लगाकर कम्प्यूटर स्टार्ट कर दिया। हम लोगों ने राहत की सांस ली और मिठाई लेकर बाहर आ गये। मिठाई सच में बहुत बढ़िया थी।
रात में बिस्तर पर लेटे-लेटे एक और ख्याल था दिमाग में कि जब मुंबई जैसे बड़े शहर में बिजली के अभाव में काम रूक जाता है तो दूर-दराज के गांव के स्कूलों में कंप्यूटर और उससे जुड़ी तकनीक का इस्तेमाल कर शिक्षा कैसे दी जा सकेगी?
अभी हाल ही में जब आधार कार्ड के मार्फत बायोमेट्रिक जानकारी लेकर "सही" लोगों की पहचान कर राशन बांटने वाली एक दुकान की मशीन को गुस्साये लोगों ने इसलिये तोड़ दिया क्यूंकि वो मशीन उन्हें "सही-सही" नही पहचान रही थी तो ऐसे सवाल अलग रूप में ही सामने आते हैं कि आखिर ये तकनीक किसके लिये है? जो बात समझ आती है वो ये कि उन मेहनतकशों के लिये तो नहीं जो जिनके हाथों-उंगलियों के निशान मिट चुके हैं। लेकिन क्यूं - क्या ये तकनीक का दोष है या व्यवस्था का?
अब हुआ यूं कि हम कसबट्टू पहुंचे महानगरी मुंबई। शिक्षा में कंप्यूटर और उससे जुड़ी तकनीक के इस्तेमाल पर कुछ दिनों का एक आयोजन था। हम भी गये थे शिरकत करने। कार्यक्रम की आखिरी शाम हमारे मित्र हिमांशु ने कहा कि भाई इतनी दूर से आये हो, भाभी जी के लिये कुछ मिठाई-विठाई ले जाओ। एक दुकान है यहां चेम्बूर में। वर्ल्ड फेमस है मैसूर-पाक उनके यहां की। ले जाओ भाभी के लिये, उन्हें भी अच्छा लगेगा। हमें ख्याल आया कि हमारी श्रीमति जी को मिठाई पसंद भी है तो आईडिया बुरा नहीं। और चल दिये हम दोनों मुंबई की वर्ल्ड फेमस मिठाई लेने।
शाम का वक्त। खचाखच भरा मार्केट। पैदल अपनी राह बनाते हम पहुंचे मिठाई की दुकान पर। अपने कसबे के पंचू हलवाई से लगभग चार गुना बड़ी दुकान थी। ग्लास का बड़ा भारी दरवाजा - अलग-अलग शेल्फ में रखी तरह-तरह की रंगीन मिठाईयां बाहर से ही दर्शनीय थीं। हम दरवाजा धकेलते हुए अंदर घुसे। सामने काऊंटर पर तीन लोग थे। हिमांशु ने उनसे पूछा मैसूर-पाक के होने के बारे में और पता चला कि एक खेप बस अभी-अभी तैयार होकर शेल्फ पर लगी है। हिमांशु का तो पता नहीं लेकिन हमारे मुंह में पानी आ रहा था। लगा कि बस जल्दी से आर्डर करें और खाएं। हमने कहा भी यही कि जल्दी से आधा-आधा किलो के दो पैकेट तैयार कर दीजिये। लेकिन काऊंटर पर खड़े लोग अपनी जगह से हिले नहीं। हमें आश्चर्य हुआ तो हमने पूछा कि क्या हुआ भईया? तो उनमें से एक ने कहा कि बिजली नहीं है। पहले तो हमें हमारे सवाल व उनके जवाब के बीच कोई कनेक्शन ही समझ नहीं आया। आखिर मिठाई सामने तैयार थी, बेचने वाले काऊंटर पर थे, खरीददार भी दुकान पर थे और उनकी जेब में पैसे भी थे फिर ये कम्बख्त बिजली बीच में कहां से आ गई या फिर ये कहें कि कहां चली गई।
फिर बात समझ में आई कि बिजली नहीं है तो काऊंटर पर खड़े लोग मिठाई तौल नहीं सकते क्यूंकि उनका तराजू इलेक्ट्रानिक था जोकि बिजली से चलता है। वहीं बिल बनाने के लिये एकमात्र हथियार कंप्यूटर भी बिजली के अभाव में बंद पड़ा हुआ था। अब बिल नहीं निकलेगा तो मालिक को कैसे पता चलेगा कि कितना माल बिका। कुल-मिलाकर उनकी मजबूरी और अपनी परिस्थिति पर थोड़ा गुस्सा भी आया और तरस भी।
सोचा कि थोड़ी देर बाज़ार घूमकर दोबारा आकर देख जाएंगे। कुछ देर यूं ही भटकते हुए जब दुकान पर पहुंचे, बिजली आ चुकी थी, लेकिन समस्या नये अवतार में सामने खड़ी हुई थी। इस दफे काऊंटर के तीनों साथी कंप्यूटर के साथ उलझे हुए थे। मानीटर पर झुके हुए वो उस खाली स्क्रीन पर जाने क्या खोज रहे थे। पता चला कि जिस वक्त बिजली गई तब कंप्यूटर अचानक से बंद हुआ और बिजली के आने के बाद कंप्यूटर महोदय चलने का नाम ही नहीं ले रहे थे। मैंने सोचा कि इस दफे फिर खाली हाथ लौटना पड़ेगा। लेकिन हिमांशु ने कुछ जुगत लगाकर कम्प्यूटर स्टार्ट कर दिया। हम लोगों ने राहत की सांस ली और मिठाई लेकर बाहर आ गये। मिठाई सच में बहुत बढ़िया थी।
रात में बिस्तर पर लेटे-लेटे एक और ख्याल था दिमाग में कि जब मुंबई जैसे बड़े शहर में बिजली के अभाव में काम रूक जाता है तो दूर-दराज के गांव के स्कूलों में कंप्यूटर और उससे जुड़ी तकनीक का इस्तेमाल कर शिक्षा कैसे दी जा सकेगी?
अभी हाल ही में जब आधार कार्ड के मार्फत बायोमेट्रिक जानकारी लेकर "सही" लोगों की पहचान कर राशन बांटने वाली एक दुकान की मशीन को गुस्साये लोगों ने इसलिये तोड़ दिया क्यूंकि वो मशीन उन्हें "सही-सही" नही पहचान रही थी तो ऐसे सवाल अलग रूप में ही सामने आते हैं कि आखिर ये तकनीक किसके लिये है? जो बात समझ आती है वो ये कि उन मेहनतकशों के लिये तो नहीं जो जिनके हाथों-उंगलियों के निशान मिट चुके हैं। लेकिन क्यूं - क्या ये तकनीक का दोष है या व्यवस्था का?
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