Monday, February 28, 2011

कैसे हैं पिताजी?

आज मेरे पापा रिटायर्ड हो रहे हैं, पिछले ३८-४० सालों से कोयले की खदानों में काम करने के बाद. बड़े ही मेहनती व्यक्ति हैं और काम में माहिर. जाने कैसे वो अपना वक़्त बिताएंगे अब? उम्मीद है अच्छे से ही. मेरी शुभकामनाएं उन्हें.

मेरे एक बहुत अच्छा दोस्त है विश्वजीत. जितना अच्छा इंसान है उतना ही अच्छा लिखता है. अकसर बांटता रहता है मुझसे जो लिखता है. 

एक दफा उसने लिखा: 

कई बार जब पेड़ की टहनियां बढ़ जाती हैं तो भूल जाती हैं उस पेड़ को जहाँ से वो पनपी..बड़ी हुई..और फल देने लगी..उन टहनियों को आज भी वो पेड़ अपने सीने पे ढोए खड़ा है..

अक्सर जब वो दफ्तर से आते ,
हम झाडियों में गेंद खोजा करते,
माँ वहीँ दरवाजे पर ओट लगाये,उन्हें निहारती रहती,,,

वो कभी हमे गोद में उठा लेते ,
कभी प्यार से पीठ थपथाते ,,
कभी माँ से शरारत करते ,
तो कभी क्यारियों में पौधों की कुदाई करवाते ,,
कई दफा वो दिन भर के थके हमसे बात न करते,
माँ हमे इशारे से समझती,और हम उन्हें अकेला छोड़ देते,,,

हमारी नयी किताबो पर जिल्द चढाते ,,पहले पन्ने पर हमारा नाम लिखते ,,
अच्छा पढने पर ईनाम का लालच देते,
गलतियों पर डाटते,
बीमारी में माथा चूमते,हथेलियों को सहलाते ,,,,,

हम माँ के साथ उनकी थाली लगाते,
बारी-बारी से हम माँ की सेकी रोटियां उन तक पहुचाते ,,,,
माँ के पल्लू से वो हाथ पोछते ,,,
बिस्तर पर कुछ देर हमसे बातें करते ,,माँ को दफ्तर के कुछ किस्से सुनाते ,,,,
कई साल बीत गए ...........
अब हम झाडियों में गेंद नही खोजा करते,
माँ अब भी दरवाजे पर ओट लगाये ,उन्हें निहारती है,,,

वो आज मिलते....तो, उनसे लिपटकर रोता,
उनकी हथेलिया चूमता ........
पूछता,,,,,,,,,,,"कैसे है पिताजी?"



उसकी इस अभिव्यक्ति ने मेरे भी मन में छुपी यादों को हिलाया.
याद है मुझे वो पापा का चांटा
जब स्कूल से आते वक्त
मैं अपने दोस्त समीर के साथ कहीं घूमने चला गया था
बड़ी देर तक जंगलों में घूमते हुए जब हम रोड पर पहुँचे,
तो सामने ही वो साइकिल पर खड़े थे
बड़ा बुरा लगा था मुझे
उस कदर रोड पर चांटा खाना

याद है वो शाम भी
जब अंधेरे में देर तक क्रिकेट खेलने के कारण
घर से बाहर निकाल दिया था उन्होंने
पडोस के दद्दा ने बड़ी मुश्किल से
घर के अन्दर करवाया था मुझे

याद है मुझे एक बार की बात
कि जब वो नहाने गए थे
और मैंने बाथरूम का दरवाजा धक्का देकर
खोल दिया था
याद नही इस बात पर मुझे मार पड़ी थी या नही

याद है मुझे कैसे एक बार वो दिवाली पर बीमार थे
और हम लोगों ने पटाखे नही फोडे थे
उदास से गुमसुम बैठे हुए थे
तभी उनके दोस्त, कुग्गी चाचा आए थे
और तब हमें लगा था कि आज दिवाली है.

वो इंग्लिश मीडियम स्कूल का टेस्ट
जिसे दिलवाने के लिए
मुझे वो साइकिल पर बैठाकर लेकर गए थे
जब और लोगों की गाड़ियों के बीच अपनी साइकिल खड़ी की उन्होंने
तब उनकी आंखों में आए अजीब से भाव
मुझे अब भी याद है

उस रात मैं उनसे चिपक कर सोया था
कितना अच्छा लगता था मुझे
जब वो मेरे सर पर अपना हाथ फेरते थे.
मेरे कान में अपनी ऊँगलियाँ फिराते थे
मुझे लोरियां सुनाते थे.

मुझे याद है वो एक शाम
जब मैं और वो साथ में मिलकर कितना रोये थे
उन्होंने अपने बचपन के दिनों की बात बताईं थी
कि कैसे कभी खाने में सब्जी न होने पर 
नमक वाले पानी के साथ रोटियां खायीं थी
 
मुझे याद है उनकी वो साइकिल
जिसके चैनकवर पर
कर्म ही पूजा है
ऐसा लिखा रहता था

वो हमे अपने हाथों से
ला लाकर रोटियां खिलाते थे
मेरे लिए अपने हाथों से कटोरे में 
दाल-चावल, सब्जी और गर्म घी मिलाते थे.
उस दाल चावल का स्वाद
मुझे अब भी है याद.

Sunday, February 27, 2011

चाँद की नाक बह रही है

शाम को लेटा तो आँख लग गई,
सपने में जब अचानक आसमान की तरफ नज़र गई
तो देखा कि चाँद की नाक बह रही है.
सोचा, पोंछ दूं.

जेब से रूमाल निकाल कर
जैसे ही चाँद की तरह हाथ बढ़ाया,
ना जाने कहाँ से दो पंछियों का एक जोड़ा
आसमान में प्रकट हुआ और
मेरे हाथों से रूमाल लेकर उड़ गया.
उनके इस करतब से मैं अचरज़ में पड़ गया.

पर चाँद की नाक अब भी बह रही थी.
मैंने आसमान में तैर रहे बादलों से कहा
कि वो बारिश कर दें,
पानी से धोकर,
चाँद की नाक साफ़ कर दें.

वो बोले ये चाँद बड़ा बदमाश है.
हमारे मना करने पर भी रात भर,
पेड़ों से कच्चे आम तोड़-तोड़ कर
खाता रहता है.
अब उसकी नाक नही बहेगी तो और क्या होगा?
पहले उससे बोलो कि आज रात आम ना खाए
तब हम उसकी नाक साफ़ कर देंगे.

मैंने चाँद से बादलों की बात कही.
चाँद बोला,
मेरी नाक बहने से तुम क्यों परेशान हो.
बहती है तो बहने दो.

तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई और
मेरी नींद टूट गई,
जो आया था उसे जल्दी से टरका कर,
चाँद और आमों के बारे में सोचते हुए,
दोबारा सोने की कोशिश की,
पर कमबख्त नींद नही आयी.
बेमन से ऊंघते हुए,
कमरे से बाहर निकल कर खड़ा हो गया.

कमरे के पास ही लगे
आमों से लदे पेड़ पर नज़र गई
और उसकी पत्तियों के झुरमुट से झाँक रहे
पंचमी के चाँद पर भी.

मुझे वो मुस्कुराता हुआ सा लगा
और उसकी तीखी नाक भी दिखी.
पर इतनी दूर से पता नही कर पाया कि
वो आम खा रहा था या नही....


ये कविता एकलव्य समूह की बच्चों की मासिक पत्रिका चकमक में "सपने में चाँद" शीर्षक से भी छपी थी पिछले दिनों.

Friday, February 25, 2011

ढ़ाक के तीन पात

"ढ़ाक के तीन पात" बचपन से सुनता रहा हूँ ये कहावत और कहिये तो कई बार इसे इस्तेमाल भी किया होगाकहाँ पर इस्तेमाल करना है इसे ये तो पता था पर इसमें आये शब्दों का मतलब मुझे नहीं पता था या यूं कहूं कि गौर ही नहीं किया कभी कि मतलब क्या है इनका? वैसे भी स्कूलों में जो पढ़ाते हैं, अधिकतर तो रटवा दिया जाता है और मतलब पूछने पर जवाब मिले ना मिले डांट मिलने की संभावनाएं अकसर ही होती हैंइसीलिए बच्चों को गौर करने से डर लगता है

खैर अब मुझे मतलब पता है इस कहावत के शब्दों का। "ढ़ाक के तीन पात" मतलब ढ़ाक नाम के पेड़ के तीन पत्तेपिछले दिनों ही हमारा मंच की मीटिंग के बाद एक साथी ने जो टिपण्णी की अगर उसे इस कहावत का सहारा लेते हुए कहूं तो कुछ ऐसे कहूँगा " कि पिछले 3 सालों से मीटिंग कर रहे हो पर इन मीटिंगों में दिखते वही कुछ चेहरे ही हैं...वही ढ़ाक के तीन पात" क्यूँ सही किया ना उपयोग?

अब बतलाता हूँ कि ये मुझे कैसे समझ आयाअसल में पिछले दिनों (सोमवार 14 /02 /2011 ) को हमारी टोली कानपुर देहात जिसका नाम बदलकर अब रमाबाई नगर कर दिया है, के एक गाँव में गयी थीहमारी टोली में थे हम पांच; कबीर, दीनदयाल, राहुल भाई, मनाली दीदी और मैं और गाँव का नाम था ढ़ाकनपूरवाइस गाँव और इसके आस पास के गाँवों में हमारा मंच के कई साथी रहते हैंअजब इत्तेफाक है कि हमारे इन साथियों में से सभी के नामों में एक शब्द समान था; इन साथियों के नाम थे रामकिशन जी, रामबिलाश जी, रामकेश भाई, राजाराम जी और रामशंकर भाईसभी के नाम में राम कुछ तो कारण भी होगा इसके पीछे ?

खैर, ये गाँव आई आई टी से तकरीबन 18-19 किलोमीटर दूर हैवैसे तो हम सभी ही इतनी दूर तक साईकलों से गए हुए हैं, पर उस दिन सोचा कि टेम्पो से चला जाएकारण भी जायज़ था क्यूंकि फिर वहां साथियों के साथ मिल बैठकर बातें भी जो करनी थींसाईकल से जाते तो थक जाते और वक़्त भी कम मिलता फिर साथियों के साथइसीलिए टेम्पो किया जग्गू भाई कातकरीबन 11:15 पर जग्गू भाई अपनी टेम्पो लेकर आई आई टी पहुंचे और हम निकल पड़े बाघपुर की तरफकल्याणपुर क्रोसिंग की चिल्ल-पों से होते हुए हम न्यू शिवली रोड पर गएउस तरफ गाड़ियाँ कम चलती हैं तो शोर भी कम ही थामकसूदाबाद, टिकरा, पांडू नदी इन सबको पीछे छोड़ते हुए हम बाघपुर की तरफ चले जा रहे थेयहीं पर कुछ साथियों से मिलने का कार्यक्रम था जो हमें आगे ढ़ाकनपूरवा की तरफ ले जाने वाले थे

बाघपुर चौकी के सामने हमारी राम-राम हुई रामशंकर भाई और राजाराम जी सेये दोनों साथी बाघपुर और ढ़ाकनपूरवा के बीच पड़ने वाले एक गाँव में रहते हैं और दोनों ही हम लोगों के पहुँचने का इंतज़ार कर रहे थेफिर हमारे साथ ही वो टेम्पो में गए और हम बढ़े ढ़ाकनपूरवा की तरफरास्ता पक्का था, टेम्पो सरपट भागा जा रहा था बिना धूल उड़ाएपूछने पर साथियों ने बतलाया कि कुछ ही दिनों पहले बना है रास्तारास्ते के दोनों और गेहूं और जौ के खेत लहलहा रहा थे और कहीं कहीं बीच में लाही भीवैसे ये बात कि गेहूं और जौ के खेत, जो कि लगभग एक जैसे ही दिखते हैं, मुझे बाद में साथियों से पता चली वरना मैं तो सभी को गेहूं के खेत ही मान बैठा थासाथियों ने बतलाया के गेहूं की ऊपरी परत आसानी से निकल जाती है पर जौ की नहींदेख लीजिये हमारा ज्ञान, रोज़ गेहूं की रोटी खाते हैं पर ये नहीं पता कि उसके जो खेत होते हैं वो दिखते कैसे हैं? पर चाहे आपको फसलों का पता हो या ना हो हरियाली देखकर आँखों का बड़ी ठंडक मिलती है

गाँव पहूंचकर सबसे पहले हम गए साथी रामकेश के घर परयहीं पर मिलना तय हुआ थाभड़भड़ाती हुई हमारी टेम्पो जैसे ही रामकेश भाई के घर के सामने रुकी, साथियों के चेहरे खिल गएरामकेश भाई, रामबिलाश जी और रामकिशन जी, और उनके साथ उनके परिवार और गाँव के अन्य साथी लोग, सभी हमारा इंतज़ार कर रहे थेउस दिन के लिए सभी साथियों ने अपने काम से छुट्टी ले ली थीरामकेश भाई के घर के सामने की तरफ वाले आँगन पर 4-5 खटिया (चारपाई) सजी हुई थींकुछ एक पर उन्होंने हम शहरी लोगों के लिए गद्दे डाल रखे थेबैठते हुए ख़ास जोर दिया गया कि हम उसी पर बैठें

रामकेश भाई का घर गाँव के शुरूआती घरों में से ही है इसीलिए उनके आँगन के दो ओर तो गाँव बसा हुआ है पर बाकि ओर खेत हैंइस समय वही गेहूं ओर जौ केकुछ किसान साथी अपने खेतों में उस समय दवाई और खाद झिड़क रहे थेसाथियों के साथ यहाँ बैठे बैठे हुई बातचीत से कई बातें जानने को मिलींसबसे पहले तो यही कि ढ़ाक नाम का एक पेड़ होता हैवो उस समय पता चला जब एक साथी ने इन पेड़ों के झुरमुट की ओर इशारा करते हुए बतलाया कि उनका खेत उसी के आस पास हैफिर उन्होंने ये भी बतलाया कि इस पेड़ में होली के समय काफी सुन्दर फूल लगते हैंइसके पत्तों से दोने और पत्तल बनायें जाते हैं और फूलों से प्राकर्तिक रन्गइस पेड़ के बारे में उन्होंने जो बतलाया तो मुझे लगा कि शायद मैं भी इस पेड़ को जानता हूँमैं जिस स्कूल में पढता था, वहां सर्दियों के अंत के दिनों में अकसर ही हमारी कक्षाएं ऐसे ही एक पेड़ के नीचे लगती थींउस पेड़ को वहां छूले का पेड़ कहा जाता है इसी पेड़ पर वो सुन्दर फूल लगते हैं जिन्हें हम पलाश या टेसू के फूल कहते हैंचटक नारंगी रंग के ये फूल बहुत ही ज्यादा सुन्दर होते हैंइसी पेड़ के पत्तों के बने दोनों में मेरे कस्बे में चाट खिलाई जाती हैखैर मेरे कस्बे पर और किसी पोस्ट में, फिलहाल ढ़ाकनपूरवा पर वापिस आते हैं

साथियों ने बतलाया कि इस गाँव में तकरीबन 100 परिवार हैं जिनमे से 1 को छोड़कर बाकि सभी कोरी (जुलाहा) कास्ट से आते हैंपिछली पीढ़ी तक तो हमारे साथियों में से कईयों के घरों में हाथ से ही कपड़ा बनाया जाता थाआज भी इनमे से कुछ के घरों में उसके औज़ार रखे हुए हैंबाकि बचा एक परिवार कठारिया कास्ट से है जिनका काम सूअर पालने का हैपर ये जो हमारे साथी हैं ये सभी राजमिस्त्री हैं. आई आई टी की तमाम इमारतें इनके और इन जैसे ही साथियों के गुणी हाथों ने बनाईं हैंउस दिन की हुई बातों के दौरान इनके काम के बारे में जानने को मिला कि कितना बारीक काम होता है एक राजमिस्त्री काआई आई टी में सारी पुरानी इमारतों की दीवारों पर बाहरी प्लास्टर नहीं है जिस कारण ईंटे साफ़ दिखाई देती हैंऐसी दीवारों की चुनाई करना बहुत ही बारीक काम हैहमारे साथियों ने बतलाया कि साथी रामविलास इस काम में माहिर हैंखैर माहिर तो ये साथी और भी कई कामों में हैंसाथ मिलकर आई आई टी प्रशासन की जो खटिया खड़ी की इन लोगों ने वो कहानी भी कभी और बाटूंगाअभी कुछ खाने पीने की बात हो जाए जो पिछले पैराग्राफ में चाट पर छूट गयी थी। :)

हमारी बात-चीत का दौर चल ही रहा था कि रामकेश जी घर के अन्दर से जहाँ इन सभी साथियों कि पत्नियाँ जमा थीं, हाथों में मिठाई और पानी लेकर आयेमिठाई शहरी थीशहरी संस्कृति अपने साथ गाँवों में एक बहुत ही खराब चीज़ ले गई है और वो है पन्नी (polythene)। ये मिठाई भी पन्नी में ही लिपटी हुई थी पर स्वादिष्ट थीऔर उसके थोड़ी देर बाद चाय और चबेना सबने मिल बांटकर खायाचाय और पानी के लिए कोई अलग प्रबंध नहीं, दोनों ही स्टील के गिलासों मेंइस समय तक गाँव के और साथी भी हमारी बीच गए थेश्रीकांत भाई (हमारा मंच के एक और साथी) अपने काम के खाने के समय में हम लोगों से मिलने चले आये थेवो पास ही में शोभन मंदिर के पास बन रही एक ईमारत में काम कर रहे थे

बात-चीत में साथियों ने बतलाया कि उनके गाँव में लाइट अभी 6 महीने पहले आई है और दिन में 5-6 घंटे ही आती है। हमारी ये बात चल ही रही थी कि रामकेश भाई के सामने वाले घर के किसी नवयुवक ने बिजली होने का सुबूत बड़ी ही तेज़ आवाज़ में म्यूजिक प्लेएर पर एक गाना चलाकर दिया

थोड़ी देर बात हम लोगों ने सोचा कि थोड़ा घूम फिर कर गाँव देखा जाए तो हम लोग सभी साथियों के साथ रामकेश भाई के घर से निकलने को हुएइससे पहले कि हम चल पाते, रामकेश भाई गिलासों में फिर कुछ लेकर चले आयेइस बार उनमें दूध था और ये खालिस गाँव का था इसीलिए मैंने तो शर्म को एक किनारे रखते हुए उसे गटक लियाबढ़िया था

हम आगे बढ़े गाँव का चक्कर लगाने के लिए तो सबसे पहले घर पड़ा रामकिशन भाई कारामकिशन भाई अपने आप में एक अनोखे ही व्यक्ति हैंमैं उनके साथ ही आगे आगे चल रहा थाअपने घर के सामने पहूंचकर उन्होंने मुझसे पूछा कि "मेरे एक दोस्त से मिलोगे?" मैंने कहा कि "हाँ, मिलवाइए"। मुझे लगा कि शायद कोई छोटा बच्चा होगा या किसी जानवर से मिलवाएंगेपर मैं अचरज़ में पड़ गया जब वो मुझे अपने घर के अन्दर ले गएउनके घर के एक कमरे के बीचों-बींच एक आदम कद सीमेंट की प्रतिमा खड़ी हुई थीउन्होंने बतलाया के वो उन्होंने कुछ सालों पहले अपने हाथों से बनाई हैअजीब लगा मुझे, एक घर के छोटे से कमरे और चलते-फिरते इंसानों के बीचों-बींच उस बुत का खड़ा होनापर वो दोस्त था रामकिशन भाई काहमारी टोली के दूसरे साथी भी रामकिशन भाई के दोस्त को देखने अन्दर गए

वहां से निकले तो गाँव का एक चक्कर काटकर रामबिलाश भाई के घर की तरफ आयेउनका घर मिट्टी से बना हुआ है और पिछले 100 सालों से खड़ा हुआ हैसाथियों ने बतलाया कि गर्मी के दिनों में मिट्टी के कमरों से अच्छा कुछ भी नहीं

रामबिलाश भाई के घर से आगे बढ़े तो साथियों ने बतलाया कि शोभन मंदिर के महंत एक बहुत बड़ा तालाब बनवा रहे हैं और फिलहाल यहाँ के खेतों के लिए कुछ पानी वहां से भी मिल जाता हैहम लोगों ने तय किया कि वो तालाब देखा जाएगाँव से तकरीबन 500 -700 मीटर दूर उस तालाब की तरफ जाने वाली पगडण्डी हम लोगों ने पकड़ लीरास्ते में साथियों ने बतलाया कि शोभन सरकार (शोभन मंदिर के महंत) का आस पास की बहुत बड़ी ज़मीन पर कब्ज़ा है और ये बढ़ता ही जा रहा हैहाल ही में तालाब बनवाने के लिए ढ़ाकनपूरवा के पड़ोसी गाँव की कितनी ही ज़मीन ले ली गई हैसाथियों ने ये भी बतलाया कि आई आई टी से आने वाले भक्तों की बाबा जी बड़ी पूछ करते हैं और आस पास के गाँव के लोगों को तो पास भटकने भी नहीं देतेखैर जो भी हो, तालाब देखकर तो मुझे बड़ी चिंता हुईक्यूंकि उसे पांडू नदी (जो टिकरा के बाद रास्ते में पड़ी थी ) से पानी खींच-खींचकर भरा जा रहा थावैसे ही उत्तर भारत में आने वाले सालों में पानी का संकट गहराने वाला है, और पानी एक बहुमूल्य वस्तु बनने वाला है, ऐसे में सामूहिक जल भण्डार पर किसी एक ब्यक्ति या संस्था विशेष का कब्ज़ा होना चिंताजनक बात है हीइन सबके बावजूद गाँव के कुछ साथी जोर दे रहे थे कि हम बाबा जी के दर्शन कर लें पर हम लोग वापिस गए

समय भी काफी हो चुका था शाम ढ़लने वाली थीसाथियों से विदा लेकर हम ढ़ाकनपूरवा से निकल पड़ेबाघपुर तक हमे साथी रामकेश, राजाराम जी, उनकी पत्नी सावित्री और रामशंकर भाई छोड़ने आयेबीच में हम राजाराम जी के घर पर भी गएवहां उनके परिवार से मुलाक़ात हुई और हमें एक कटोरी दहीं खाने को मिला

जग्गू भाई तो बस हमें छोड़ने आये थे इसीलिए बाघपुर से सवारी गाड़ी पकडनी थी, जिसके लिए काफी मशक्कत करनी पड़ीअंत में जिस टेम्पो में हम लौटे, अमूमन उसमे 10 लोग बैठते हैं, पर उस दिन उसमें कई लोग सवार थे, 4 आगे, और पीछे कितने और कैसे बैठे थे मैं ये नहीं बता सकता, क्यूंकि समझ में नहीं रहा था कि कौन, कहाँ और कैसे बैठा या खड़ा है। मैं और दीनदयाल आगे बैठे हुए थे ड्राईवर के बगल में और राहुल, मनाली, कबीर पीछेउतरकर उन लोगों ने बतलाया कि पीछे 16 लोग थे जिसमें से 5 बाहर लटके हुए थे

सच में इस टेम्पो की तरह ही कितने कम में जीतें हैं, गाँव के हमारे ये साथीचाय, पानी, दूध सभी के लिए एक ही बर्तन, स्टील का गिलास, 2-3 कमरों का घर वो भी कच्चा, हर घर में 9-10 लोग, फर्नीचर के नाम पर चारपाई या तखत, गाड़ी के नाम पर साईकल

सोचता हूँ उस ट्रिप के बारे में तो एक दोहा याद आता है निदा फ़ाज़ली साहब का

छोटा करके देखिये, जीवन का विस्तार
आँखों भर आकाश है, बाँहों भर संसार

यादें पुराने घर की

मेरा जन्म नौरोजाबाद नाम के एक छोटे से कस्बे में हुआ था. ये क़स्बा मध्य प्रदेश के उमरिया जिले में पड़ता है. मेरे पिता जी आज भी यहीं कोयले की खदानों में काम करते हैं. जिस घर में मैं पैदा और बड़ा हुआ, उसे याद कर रहा था एक दिन. वैसे तो उस घर को छोड़कर हम लोग कई सालों पहले उसी मोहल्ले के थोड़े बड़े घर में शिफ्ट हो गए थे, पर उस घर की कई यादें हैं जो कभी कभी मेरे दिमाग पर दस्तक देती हैं.


याद है मुझे वो घर,
जिसके आँगन में, ठण्ड के मौसम में
गुनगुनी धूप बिखरी रहती थी,
जो सरकती रहती थी पल-पल,
और साथ उसके खटिया भी
जिस पर मैं लेटा रहता था..
वो धूप जब दीवार पर टंग जाती,
तो सोचा करता,
काश मैं भी दीवार पर खटिया डालकर सो सकता..और कुछ देर...

उस घर के आँगन में
एक पेड़ था, हरा, कटहल का..
माँ बताती कि किसी ने उस पेड़ में
लोहे की कील ठोक दी है
जो फलता नहीं वो..
फिर भी
आँगन के एक कोने में खड़ा वो पेड़
बहुत सुन्दर था..
मुझे हमेशा लगता
उस पेड़ की जड़ों के पास साँपों की बाम्बी है
और उसमें रहने वाले सांप मेरे रक्षक हैं..
उस पेड़ की जड़ों के पास ही हम नारियल फोड़ते,
सफ़ेद रसगुल्लों से भरे वो टिन के डिब्बे खोलते
जो शायद अब बाज़ार में नहीं मिलते..
दिवाली के दिन पूजी गई मिट्टी की मूर्तियाँ
नदी में सिराने से पहले
कई दिनों तक उसी पेड़ की
जड़ों के पास पड़ी रहतीं..गलती रहतीं...

उस आँगन में पापा ने
एक झूला भी लगवाया था,
जिस पर मैं, मेरी बहन और मोहल्ले के दोस्त
अकसर ही चढ़े रहते थे..
मैं उस पर बैठ कर झूलता तो मुझे चक्कर आता...

उस आँगन से सटे दो कमरे थे,
जिनमें से एक रसोई थी..
दूसरा कमरा मुझे डरावना लगता,
इतना कि दिन में भी मुझे उसमे अकेले जाते डर लगता..
पर रसोई,
वो तो केंद्र थी घर का..
स्कूल से लौटते ही
हम घर में फ़ैली गंध पहचनाने की कोशिश करते..
कि माँ ने आज क्या पकाया होगा..
माँ जब शाम को रसोई में
कोयले की सिगड़ी पर रोटियां सेंकती..
तो हम उसके साथ रसोई में ही बैठकर
स्कूल का काम कर लेते..
फिर माँ से आटा मांगकर,
कभी उससे कछुआ बनाते तो कभी चिड़िया,
और फिर रख देते उन्हें सिगड़ी के अन्दर,
पकने के लिए..
अकसर ही कच्चे रह जाते थे वो..भीतर से...

रसोई से संटा हुआ था
सोने का कमरा..
हम सभी साथ ही सोते वहां..
मैं और मेरी बहन,
दोनों ही पापा के बगल में सोना चाहते..
वो हमें अपने दोनों और लिटा लेते और
कहानियां सुनाते..
ऊपर छत को देखते हुए..
क्यूंकि हम दोनों ही जिद्द करते
हमारी ओर देखकर कहानी सुनाने की..
मेरी बहन ने मुझे याद दिलाया
कैसे वो एक दफा भोपाल गए थे..
और हम दोनों ही
उनका तकिया पकड़ कर सोये थे..
शायद रोये भी थे...

और मुझे याद है एक वाकया,
जब मैं घर पर अकेला था..
दरवाज़े के ऊपर टंगी
भगवान् की फोटो के सामने
हाथ जोड़कर रो रहा था..
एक टीचर ने परीक्षा के दौरान
मेरी कॉपी से देखकर किसी बच्चे को
कुछ उत्तर बताये थे..
मैं भगवान् से मना रहा था
उस बच्चे के मुझसे ज्यादा नंबर ना आयें...

कितना अजीब था बचपन..मेरा..
शायद हर किसी का होता है..
अनोखा...

मन के किसी कोने में
ना जाने कहाँ छुपकर
यादें रहती हैं..
कभी जब मन भारी होता है..
तो बरसने लगती हैं......

ये ब्लॉग क्यूँ ?

कभी कभी कुछ लिख लेता हूँ...वही बांटने के लिए ये ब्लॉग बनाया है...उम्मीद है इस ब्लॉग के चलते मेरे दिमाग और साथ ही मेरे जीवन में क्या चल रहा है साथियों तक पहूँचता रहेगा...

अब प्रश्न ये कि ये नाम क्यूँ , पोटली बाबा की ?

वो इसलिए कि मुझे लगता है कि हम सभी का जीवन एक पोटली है...असल ये पूरी दुनियां, ये पूरी सृष्टी ही पोटली है बाबा की...जो कुछ भी मिला है...वो इसी पोटली से...जो कुछ भी जान समझ पायें हैं...वो इसी पोटली के ज़रिये...इसीलिए ये नाम ताकि हमेशा ये बात याद रहे कि मैंने जो लिखा या मुझसे जो लिखा गया वो इस पोटली का ही दिया हुआ है...मेरी तो बस अभिव्यक्ति है...साहिर का एक शेर इस बात को बहुत ही सुन्दर तरीके से रखता है...

दुनियां ने तजुरबातो-हवादीस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं