"ढ़ाक के तीन पात" बचपन से सुनता आ रहा हूँ ये कहावत और कहिये तो कई बार इसे इस्तेमाल भी किया होगा। कहाँ पर इस्तेमाल करना है इसे ये तो पता था पर इसमें आये शब्दों का मतलब मुझे नहीं पता था या यूं कहूं कि गौर ही नहीं किया कभी कि मतलब क्या है इनका? वैसे भी स्कूलों में जो पढ़ाते हैं, अधिकतर तो रटवा दिया जाता है और मतलब पूछने पर जवाब मिले ना मिले डांट मिलने की संभावनाएं अकसर ही होती हैं। इसीलिए बच्चों को गौर करने से डर लगता है।
खैर अब मुझे मतलब पता है इस कहावत के शब्दों का। "ढ़ाक के तीन पात" मतलब ढ़ाक नाम के पेड़ के तीन पत्ते। पिछले दिनों ही हमारा मंच की मीटिंग के बाद एक साथी ने जो टिपण्णी की अगर उसे इस कहावत का सहारा लेते हुए कहूं तो कुछ ऐसे कहूँगा " कि पिछले 3 सालों से मीटिंग कर रहे हो पर इन मीटिंगों में दिखते वही कुछ चेहरे ही हैं...वही ढ़ाक के तीन पात" क्यूँ सही किया ना उपयोग?
अब बतलाता हूँ कि ये मुझे कैसे समझ आया। असल में पिछले दिनों (सोमवार 14 /02 /2011 ) को हमारी टोली कानपुर देहात जिसका नाम बदलकर अब रमाबाई नगर कर दिया है, के एक गाँव में गयी थी। हमारी टोली में थे हम पांच; कबीर, दीनदयाल, राहुल भाई, मनाली दीदी और मैं और गाँव का नाम था ढ़ाकनपूरवा। इस गाँव और इसके आस पास के गाँवों में हमारा मंच के कई साथी रहते हैं। अजब इत्तेफाक है कि हमारे इन साथियों में से सभी के नामों में एक शब्द समान था; इन साथियों के नाम थे रामकिशन जी, रामबिलाश जी, रामकेश भाई, राजाराम जी और रामशंकर भाई। सभी के नाम में राम। कुछ तो कारण भी होगा इसके पीछे ?
खैर, ये गाँव आई आई टी से तकरीबन 18-19 किलोमीटर दूर है। वैसे तो हम सभी ही इतनी दूर तक साईकलों से गए हुए हैं, पर उस दिन सोचा कि टेम्पो से चला जाए। कारण भी जायज़ था क्यूंकि फिर वहां साथियों के साथ मिल बैठकर बातें भी जो करनी थीं। साईकल से जाते तो थक जाते और वक़्त भी कम मिलता फिर साथियों के साथ। इसीलिए टेम्पो किया जग्गू भाई का। तकरीबन 11:15 पर जग्गू भाई अपनी टेम्पो लेकर आई आई टी पहुंचे और हम निकल पड़े बाघपुर की तरफ। कल्याणपुर क्रोसिंग की चिल्ल-पों से होते हुए हम न्यू शिवली रोड पर आ गए। उस तरफ गाड़ियाँ कम चलती हैं तो शोर भी कम ही था। मकसूदाबाद, टिकरा, पांडू नदी इन सबको पीछे छोड़ते हुए हम बाघपुर की तरफ चले जा रहे थे। यहीं पर कुछ साथियों से मिलने का कार्यक्रम था जो हमें आगे ढ़ाकनपूरवा की तरफ ले जाने वाले थे।
बाघपुर चौकी के सामने हमारी राम-राम हुई रामशंकर भाई और राजाराम जी से। ये दोनों साथी बाघपुर और ढ़ाकनपूरवा के बीच पड़ने वाले एक गाँव में रहते हैं और दोनों ही हम लोगों के पहुँचने का इंतज़ार कर रहे थे। फिर हमारे साथ ही वो टेम्पो में आ गए और हम बढ़े ढ़ाकनपूरवा की तरफ। रास्ता पक्का था, टेम्पो सरपट भागा जा रहा था बिना धूल उड़ाए। पूछने पर साथियों ने बतलाया कि कुछ ही दिनों पहले बना है रास्ता। रास्ते के दोनों और गेहूं और जौ के खेत लहलहा रहा थे और कहीं कहीं बीच में लाही भी। वैसे ये बात कि गेहूं और जौ के खेत, जो कि लगभग एक जैसे ही दिखते हैं, मुझे बाद में साथियों से पता चली वरना मैं तो सभी को गेहूं के खेत ही मान बैठा था। साथियों ने बतलाया के गेहूं की ऊपरी परत आसानी से निकल जाती है पर जौ की नहीं। देख लीजिये हमारा ज्ञान, रोज़ गेहूं की रोटी खाते हैं पर ये नहीं पता कि उसके जो खेत होते हैं वो दिखते कैसे हैं? पर चाहे आपको फसलों का पता हो या ना हो हरियाली देखकर आँखों का बड़ी ठंडक मिलती है।
गाँव पहूंचकर सबसे पहले हम गए साथी रामकेश के घर पर। यहीं पर मिलना तय हुआ था। भड़भड़ाती हुई हमारी टेम्पो जैसे ही रामकेश भाई के घर के सामने रुकी, साथियों के चेहरे खिल गए। रामकेश भाई, रामबिलाश जी और रामकिशन जी, और उनके साथ उनके परिवार और गाँव के अन्य साथी लोग, सभी हमारा इंतज़ार कर रहे थे। उस दिन के लिए सभी साथियों ने अपने काम से छुट्टी ले ली थी। रामकेश भाई के घर के सामने की तरफ वाले आँगन पर 4-5 खटिया (चारपाई) सजी हुई थीं। कुछ एक पर उन्होंने हम शहरी लोगों के लिए गद्दे डाल रखे थे। बैठते हुए ख़ास जोर दिया गया कि हम उसी पर बैठें।
रामकेश भाई का घर गाँव के शुरूआती घरों में से ही है इसीलिए उनके आँगन के दो ओर तो गाँव बसा हुआ है पर बाकि ओर खेत हैं। इस समय वही गेहूं ओर जौ के। कुछ किसान साथी अपने खेतों में उस समय दवाई और खाद झिड़क रहे थे। साथियों के साथ यहाँ बैठे बैठे हुई बातचीत से कई बातें जानने को मिलीं। सबसे पहले तो यही कि ढ़ाक नाम का एक पेड़ होता है। वो उस समय पता चला जब एक साथी ने इन पेड़ों के झुरमुट की ओर इशारा करते हुए बतलाया कि उनका खेत उसी के आस पास है। फिर उन्होंने ये भी बतलाया कि इस पेड़ में होली के समय काफी सुन्दर फूल लगते हैं। इसके पत्तों से दोने और पत्तल बनायें जाते हैं और फूलों से प्राकर्तिक रन्ग। इस पेड़ के बारे में उन्होंने जो बतलाया तो मुझे लगा कि शायद मैं भी इस पेड़ को जानता हूँ। मैं जिस स्कूल में पढता था, वहां सर्दियों के अंत के दिनों में अकसर ही हमारी कक्षाएं ऐसे ही एक पेड़ के नीचे लगती थीं। उस पेड़ को वहां छूले का पेड़ कहा जाता है। इसी पेड़ पर वो सुन्दर फूल लगते हैं जिन्हें हम पलाश या टेसू के फूल कहते हैं। चटक नारंगी रंग के ये फूल बहुत ही ज्यादा सुन्दर होते हैं। इसी पेड़ के पत्तों के बने दोनों में मेरे कस्बे में चाट खिलाई जाती है। खैर मेरे कस्बे पर और किसी पोस्ट में, फिलहाल ढ़ाकनपूरवा पर वापिस आते हैं।
खैर अब मुझे मतलब पता है इस कहावत के शब्दों का। "ढ़ाक के तीन पात" मतलब ढ़ाक नाम के पेड़ के तीन पत्ते। पिछले दिनों ही हमारा मंच की मीटिंग के बाद एक साथी ने जो टिपण्णी की अगर उसे इस कहावत का सहारा लेते हुए कहूं तो कुछ ऐसे कहूँगा " कि पिछले 3 सालों से मीटिंग कर रहे हो पर इन मीटिंगों में दिखते वही कुछ चेहरे ही हैं...वही ढ़ाक के तीन पात" क्यूँ सही किया ना उपयोग?
अब बतलाता हूँ कि ये मुझे कैसे समझ आया। असल में पिछले दिनों (सोमवार 14 /02 /2011 ) को हमारी टोली कानपुर देहात जिसका नाम बदलकर अब रमाबाई नगर कर दिया है, के एक गाँव में गयी थी। हमारी टोली में थे हम पांच; कबीर, दीनदयाल, राहुल भाई, मनाली दीदी और मैं और गाँव का नाम था ढ़ाकनपूरवा। इस गाँव और इसके आस पास के गाँवों में हमारा मंच के कई साथी रहते हैं। अजब इत्तेफाक है कि हमारे इन साथियों में से सभी के नामों में एक शब्द समान था; इन साथियों के नाम थे रामकिशन जी, रामबिलाश जी, रामकेश भाई, राजाराम जी और रामशंकर भाई। सभी के नाम में राम। कुछ तो कारण भी होगा इसके पीछे ?
खैर, ये गाँव आई आई टी से तकरीबन 18-19 किलोमीटर दूर है। वैसे तो हम सभी ही इतनी दूर तक साईकलों से गए हुए हैं, पर उस दिन सोचा कि टेम्पो से चला जाए। कारण भी जायज़ था क्यूंकि फिर वहां साथियों के साथ मिल बैठकर बातें भी जो करनी थीं। साईकल से जाते तो थक जाते और वक़्त भी कम मिलता फिर साथियों के साथ। इसीलिए टेम्पो किया जग्गू भाई का। तकरीबन 11:15 पर जग्गू भाई अपनी टेम्पो लेकर आई आई टी पहुंचे और हम निकल पड़े बाघपुर की तरफ। कल्याणपुर क्रोसिंग की चिल्ल-पों से होते हुए हम न्यू शिवली रोड पर आ गए। उस तरफ गाड़ियाँ कम चलती हैं तो शोर भी कम ही था। मकसूदाबाद, टिकरा, पांडू नदी इन सबको पीछे छोड़ते हुए हम बाघपुर की तरफ चले जा रहे थे। यहीं पर कुछ साथियों से मिलने का कार्यक्रम था जो हमें आगे ढ़ाकनपूरवा की तरफ ले जाने वाले थे।
बाघपुर चौकी के सामने हमारी राम-राम हुई रामशंकर भाई और राजाराम जी से। ये दोनों साथी बाघपुर और ढ़ाकनपूरवा के बीच पड़ने वाले एक गाँव में रहते हैं और दोनों ही हम लोगों के पहुँचने का इंतज़ार कर रहे थे। फिर हमारे साथ ही वो टेम्पो में आ गए और हम बढ़े ढ़ाकनपूरवा की तरफ। रास्ता पक्का था, टेम्पो सरपट भागा जा रहा था बिना धूल उड़ाए। पूछने पर साथियों ने बतलाया कि कुछ ही दिनों पहले बना है रास्ता। रास्ते के दोनों और गेहूं और जौ के खेत लहलहा रहा थे और कहीं कहीं बीच में लाही भी। वैसे ये बात कि गेहूं और जौ के खेत, जो कि लगभग एक जैसे ही दिखते हैं, मुझे बाद में साथियों से पता चली वरना मैं तो सभी को गेहूं के खेत ही मान बैठा था। साथियों ने बतलाया के गेहूं की ऊपरी परत आसानी से निकल जाती है पर जौ की नहीं। देख लीजिये हमारा ज्ञान, रोज़ गेहूं की रोटी खाते हैं पर ये नहीं पता कि उसके जो खेत होते हैं वो दिखते कैसे हैं? पर चाहे आपको फसलों का पता हो या ना हो हरियाली देखकर आँखों का बड़ी ठंडक मिलती है।
गाँव पहूंचकर सबसे पहले हम गए साथी रामकेश के घर पर। यहीं पर मिलना तय हुआ था। भड़भड़ाती हुई हमारी टेम्पो जैसे ही रामकेश भाई के घर के सामने रुकी, साथियों के चेहरे खिल गए। रामकेश भाई, रामबिलाश जी और रामकिशन जी, और उनके साथ उनके परिवार और गाँव के अन्य साथी लोग, सभी हमारा इंतज़ार कर रहे थे। उस दिन के लिए सभी साथियों ने अपने काम से छुट्टी ले ली थी। रामकेश भाई के घर के सामने की तरफ वाले आँगन पर 4-5 खटिया (चारपाई) सजी हुई थीं। कुछ एक पर उन्होंने हम शहरी लोगों के लिए गद्दे डाल रखे थे। बैठते हुए ख़ास जोर दिया गया कि हम उसी पर बैठें।
रामकेश भाई का घर गाँव के शुरूआती घरों में से ही है इसीलिए उनके आँगन के दो ओर तो गाँव बसा हुआ है पर बाकि ओर खेत हैं। इस समय वही गेहूं ओर जौ के। कुछ किसान साथी अपने खेतों में उस समय दवाई और खाद झिड़क रहे थे। साथियों के साथ यहाँ बैठे बैठे हुई बातचीत से कई बातें जानने को मिलीं। सबसे पहले तो यही कि ढ़ाक नाम का एक पेड़ होता है। वो उस समय पता चला जब एक साथी ने इन पेड़ों के झुरमुट की ओर इशारा करते हुए बतलाया कि उनका खेत उसी के आस पास है। फिर उन्होंने ये भी बतलाया कि इस पेड़ में होली के समय काफी सुन्दर फूल लगते हैं। इसके पत्तों से दोने और पत्तल बनायें जाते हैं और फूलों से प्राकर्तिक रन्ग। इस पेड़ के बारे में उन्होंने जो बतलाया तो मुझे लगा कि शायद मैं भी इस पेड़ को जानता हूँ। मैं जिस स्कूल में पढता था, वहां सर्दियों के अंत के दिनों में अकसर ही हमारी कक्षाएं ऐसे ही एक पेड़ के नीचे लगती थीं। उस पेड़ को वहां छूले का पेड़ कहा जाता है। इसी पेड़ पर वो सुन्दर फूल लगते हैं जिन्हें हम पलाश या टेसू के फूल कहते हैं। चटक नारंगी रंग के ये फूल बहुत ही ज्यादा सुन्दर होते हैं। इसी पेड़ के पत्तों के बने दोनों में मेरे कस्बे में चाट खिलाई जाती है। खैर मेरे कस्बे पर और किसी पोस्ट में, फिलहाल ढ़ाकनपूरवा पर वापिस आते हैं।
साथियों ने बतलाया कि इस गाँव में तकरीबन 100 परिवार हैं जिनमे से 1 को छोड़कर बाकि सभी कोरी (जुलाहा) कास्ट से आते हैं। पिछली पीढ़ी तक तो हमारे साथियों में से कईयों के घरों में हाथ से ही कपड़ा बनाया जाता था। आज भी इनमे से कुछ के घरों में उसके औज़ार रखे हुए हैं। बाकि बचा एक परिवार कठारिया कास्ट से है जिनका काम सूअर पालने का है। पर ये जो हमारे साथी हैं ये सभी राजमिस्त्री हैं. आई आई टी की तमाम इमारतें इनके और इन जैसे ही साथियों के गुणी हाथों ने बनाईं हैं। उस दिन की हुई बातों के दौरान इनके काम के बारे में जानने को मिला कि कितना बारीक काम होता है एक राजमिस्त्री का। आई आई टी में सारी पुरानी इमारतों की दीवारों पर बाहरी प्लास्टर नहीं है जिस कारण ईंटे साफ़ दिखाई देती हैं। ऐसी दीवारों की चुनाई करना बहुत ही बारीक काम है। हमारे साथियों ने बतलाया कि साथी रामविलास इस काम में माहिर हैं। खैर माहिर तो ये साथी और भी कई कामों में हैं। साथ मिलकर आई आई टी प्रशासन की जो खटिया खड़ी की इन लोगों ने वो कहानी भी कभी और बाटूंगा। अभी कुछ खाने पीने की बात हो जाए जो पिछले पैराग्राफ में चाट पर छूट गयी थी। :)
हमारी बात-चीत का दौर चल ही रहा था कि रामकेश जी घर के अन्दर से जहाँ इन सभी साथियों कि पत्नियाँ जमा थीं, हाथों में मिठाई और पानी लेकर आये। मिठाई शहरी थी। शहरी संस्कृति अपने साथ गाँवों में एक बहुत ही खराब चीज़ ले गई है और वो है पन्नी (polythene)। ये मिठाई भी पन्नी में ही लिपटी हुई थी पर स्वादिष्ट थी। और उसके थोड़ी देर बाद चाय और चबेना सबने मिल बांटकर खाया। चाय और पानी के लिए कोई अलग प्रबंध नहीं, दोनों ही स्टील के गिलासों में। इस समय तक गाँव के और साथी भी हमारी बीच आ गए थे। श्रीकांत भाई (हमारा मंच के एक और साथी) अपने काम के खाने के समय में हम लोगों से मिलने चले आये थे। वो पास ही में शोभन मंदिर के पास बन रही एक ईमारत में काम कर रहे थे।
बात-चीत में साथियों ने बतलाया कि उनके गाँव में लाइट अभी 6 महीने पहले आई है और दिन में 5-6 घंटे ही आती है। हमारी ये बात चल ही रही थी कि रामकेश भाई के सामने वाले घर के किसी नवयुवक ने बिजली होने का सुबूत बड़ी ही तेज़ आवाज़ में म्यूजिक प्लेएर पर एक गाना चलाकर दिया।
थोड़ी देर बात हम लोगों ने सोचा कि थोड़ा घूम फिर कर गाँव देखा जाए तो हम लोग सभी साथियों के साथ रामकेश भाई के घर से निकलने को हुए। इससे पहले कि हम चल पाते, रामकेश भाई गिलासों में फिर कुछ लेकर चले आये। इस बार उनमें दूध था और ये खालिस गाँव का था इसीलिए मैंने तो शर्म को एक किनारे रखते हुए उसे गटक लिया। बढ़िया था।
हम आगे बढ़े गाँव का चक्कर लगाने के लिए तो सबसे पहले घर पड़ा रामकिशन भाई का। रामकिशन भाई अपने आप में एक अनोखे ही व्यक्ति हैं। मैं उनके साथ ही आगे आगे चल रहा था। अपने घर के सामने पहूंचकर उन्होंने मुझसे पूछा कि "मेरे एक दोस्त से मिलोगे?" मैंने कहा कि "हाँ, मिलवाइए"। मुझे लगा कि शायद कोई छोटा बच्चा होगा या किसी जानवर से मिलवाएंगे। पर मैं अचरज़ में पड़ गया जब वो मुझे अपने घर के अन्दर ले गए। उनके घर के एक कमरे के बीचों-बींच एक आदम कद सीमेंट की प्रतिमा खड़ी हुई थी। उन्होंने बतलाया के वो उन्होंने कुछ सालों पहले अपने हाथों से बनाई है। अजीब लगा मुझे, एक घर के छोटे से कमरे और चलते-फिरते इंसानों के बीचों-बींच उस बुत का खड़ा होना। पर वो दोस्त था रामकिशन भाई का। हमारी टोली के दूसरे साथी भी रामकिशन भाई के दोस्त को देखने अन्दर गए।
वहां से निकले तो गाँव का एक चक्कर काटकर रामबिलाश भाई के घर की तरफ आये। उनका घर मिट्टी से बना हुआ है और पिछले 100 सालों से खड़ा हुआ है। साथियों ने बतलाया कि गर्मी के दिनों में मिट्टी के कमरों से अच्छा कुछ भी नहीं।
रामबिलाश भाई के घर से आगे बढ़े तो साथियों ने बतलाया कि शोभन मंदिर के महंत एक बहुत बड़ा तालाब बनवा रहे हैं और फिलहाल यहाँ के खेतों के लिए कुछ पानी वहां से भी मिल जाता है। हम लोगों ने तय किया कि वो तालाब देखा जाए। गाँव से तकरीबन 500 -700 मीटर दूर उस तालाब की तरफ जाने वाली पगडण्डी हम लोगों ने पकड़ ली। रास्ते में साथियों ने बतलाया कि शोभन सरकार (शोभन मंदिर के महंत) का आस पास की बहुत बड़ी ज़मीन पर कब्ज़ा है और ये बढ़ता ही जा रहा है। हाल ही में तालाब बनवाने के लिए ढ़ाकनपूरवा के पड़ोसी गाँव की कितनी ही ज़मीन ले ली गई है। साथियों ने ये भी बतलाया कि आई आई टी से आने वाले भक्तों की बाबा जी बड़ी पूछ करते हैं और आस पास के गाँव के लोगों को तो पास भटकने भी नहीं देते। खैर जो भी हो, तालाब देखकर तो मुझे बड़ी चिंता हुई। क्यूंकि उसे पांडू नदी (जो टिकरा के बाद रास्ते में पड़ी थी ) से पानी खींच-खींचकर भरा जा रहा था। वैसे ही उत्तर भारत में आने वाले सालों में पानी का संकट गहराने वाला है, और पानी एक बहुमूल्य वस्तु बनने वाला है, ऐसे में सामूहिक जल भण्डार पर किसी एक ब्यक्ति या संस्था विशेष का कब्ज़ा होना चिंताजनक बात है ही। इन सबके बावजूद गाँव के कुछ साथी जोर दे रहे थे कि हम बाबा जी के दर्शन कर लें पर हम लोग वापिस आ गए।
समय भी काफी हो चुका था शाम ढ़लने वाली थी। साथियों से विदा लेकर हम ढ़ाकनपूरवा से निकल पड़े। बाघपुर तक हमे साथी रामकेश, राजाराम जी, उनकी पत्नी सावित्री और रामशंकर भाई छोड़ने आये। बीच में हम राजाराम जी के घर पर भी गए। वहां उनके परिवार से मुलाक़ात हुई और हमें एक कटोरी दहीं खाने को मिला।
जग्गू भाई तो बस हमें छोड़ने आये थे इसीलिए बाघपुर से सवारी गाड़ी पकडनी थी, जिसके लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी। अंत में जिस टेम्पो में हम लौटे, अमूमन उसमे 10 लोग बैठते हैं, पर उस दिन उसमें कई लोग सवार थे, 4 आगे, और पीछे कितने और कैसे बैठे थे मैं ये नहीं बता सकता, क्यूंकि समझ में नहीं आ रहा था कि कौन, कहाँ और कैसे बैठा या खड़ा है। मैं और दीनदयाल आगे बैठे हुए थे ड्राईवर के बगल में और राहुल, मनाली, कबीर पीछे। उतरकर उन लोगों ने बतलाया कि पीछे 16 लोग थे जिसमें से 5 बाहर लटके हुए थे।
सच में इस टेम्पो की तरह ही कितने कम में जीतें हैं, गाँव के हमारे ये साथी। चाय, पानी, दूध सभी के लिए एक ही बर्तन, स्टील का गिलास, 2-3 कमरों का घर वो भी कच्चा, हर घर में 9-10 लोग, फर्नीचर के नाम पर चारपाई या तखत, गाड़ी के नाम पर साईकल।
सोचता हूँ उस ट्रिप के बारे में तो एक दोहा याद आता है निदा फ़ाज़ली साहब का
हमारी बात-चीत का दौर चल ही रहा था कि रामकेश जी घर के अन्दर से जहाँ इन सभी साथियों कि पत्नियाँ जमा थीं, हाथों में मिठाई और पानी लेकर आये। मिठाई शहरी थी। शहरी संस्कृति अपने साथ गाँवों में एक बहुत ही खराब चीज़ ले गई है और वो है पन्नी (polythene)। ये मिठाई भी पन्नी में ही लिपटी हुई थी पर स्वादिष्ट थी। और उसके थोड़ी देर बाद चाय और चबेना सबने मिल बांटकर खाया। चाय और पानी के लिए कोई अलग प्रबंध नहीं, दोनों ही स्टील के गिलासों में। इस समय तक गाँव के और साथी भी हमारी बीच आ गए थे। श्रीकांत भाई (हमारा मंच के एक और साथी) अपने काम के खाने के समय में हम लोगों से मिलने चले आये थे। वो पास ही में शोभन मंदिर के पास बन रही एक ईमारत में काम कर रहे थे।
बात-चीत में साथियों ने बतलाया कि उनके गाँव में लाइट अभी 6 महीने पहले आई है और दिन में 5-6 घंटे ही आती है। हमारी ये बात चल ही रही थी कि रामकेश भाई के सामने वाले घर के किसी नवयुवक ने बिजली होने का सुबूत बड़ी ही तेज़ आवाज़ में म्यूजिक प्लेएर पर एक गाना चलाकर दिया।
थोड़ी देर बात हम लोगों ने सोचा कि थोड़ा घूम फिर कर गाँव देखा जाए तो हम लोग सभी साथियों के साथ रामकेश भाई के घर से निकलने को हुए। इससे पहले कि हम चल पाते, रामकेश भाई गिलासों में फिर कुछ लेकर चले आये। इस बार उनमें दूध था और ये खालिस गाँव का था इसीलिए मैंने तो शर्म को एक किनारे रखते हुए उसे गटक लिया। बढ़िया था।
हम आगे बढ़े गाँव का चक्कर लगाने के लिए तो सबसे पहले घर पड़ा रामकिशन भाई का। रामकिशन भाई अपने आप में एक अनोखे ही व्यक्ति हैं। मैं उनके साथ ही आगे आगे चल रहा था। अपने घर के सामने पहूंचकर उन्होंने मुझसे पूछा कि "मेरे एक दोस्त से मिलोगे?" मैंने कहा कि "हाँ, मिलवाइए"। मुझे लगा कि शायद कोई छोटा बच्चा होगा या किसी जानवर से मिलवाएंगे। पर मैं अचरज़ में पड़ गया जब वो मुझे अपने घर के अन्दर ले गए। उनके घर के एक कमरे के बीचों-बींच एक आदम कद सीमेंट की प्रतिमा खड़ी हुई थी। उन्होंने बतलाया के वो उन्होंने कुछ सालों पहले अपने हाथों से बनाई है। अजीब लगा मुझे, एक घर के छोटे से कमरे और चलते-फिरते इंसानों के बीचों-बींच उस बुत का खड़ा होना। पर वो दोस्त था रामकिशन भाई का। हमारी टोली के दूसरे साथी भी रामकिशन भाई के दोस्त को देखने अन्दर गए।
वहां से निकले तो गाँव का एक चक्कर काटकर रामबिलाश भाई के घर की तरफ आये। उनका घर मिट्टी से बना हुआ है और पिछले 100 सालों से खड़ा हुआ है। साथियों ने बतलाया कि गर्मी के दिनों में मिट्टी के कमरों से अच्छा कुछ भी नहीं।
रामबिलाश भाई के घर से आगे बढ़े तो साथियों ने बतलाया कि शोभन मंदिर के महंत एक बहुत बड़ा तालाब बनवा रहे हैं और फिलहाल यहाँ के खेतों के लिए कुछ पानी वहां से भी मिल जाता है। हम लोगों ने तय किया कि वो तालाब देखा जाए। गाँव से तकरीबन 500 -700 मीटर दूर उस तालाब की तरफ जाने वाली पगडण्डी हम लोगों ने पकड़ ली। रास्ते में साथियों ने बतलाया कि शोभन सरकार (शोभन मंदिर के महंत) का आस पास की बहुत बड़ी ज़मीन पर कब्ज़ा है और ये बढ़ता ही जा रहा है। हाल ही में तालाब बनवाने के लिए ढ़ाकनपूरवा के पड़ोसी गाँव की कितनी ही ज़मीन ले ली गई है। साथियों ने ये भी बतलाया कि आई आई टी से आने वाले भक्तों की बाबा जी बड़ी पूछ करते हैं और आस पास के गाँव के लोगों को तो पास भटकने भी नहीं देते। खैर जो भी हो, तालाब देखकर तो मुझे बड़ी चिंता हुई। क्यूंकि उसे पांडू नदी (जो टिकरा के बाद रास्ते में पड़ी थी ) से पानी खींच-खींचकर भरा जा रहा था। वैसे ही उत्तर भारत में आने वाले सालों में पानी का संकट गहराने वाला है, और पानी एक बहुमूल्य वस्तु बनने वाला है, ऐसे में सामूहिक जल भण्डार पर किसी एक ब्यक्ति या संस्था विशेष का कब्ज़ा होना चिंताजनक बात है ही। इन सबके बावजूद गाँव के कुछ साथी जोर दे रहे थे कि हम बाबा जी के दर्शन कर लें पर हम लोग वापिस आ गए।
समय भी काफी हो चुका था शाम ढ़लने वाली थी। साथियों से विदा लेकर हम ढ़ाकनपूरवा से निकल पड़े। बाघपुर तक हमे साथी रामकेश, राजाराम जी, उनकी पत्नी सावित्री और रामशंकर भाई छोड़ने आये। बीच में हम राजाराम जी के घर पर भी गए। वहां उनके परिवार से मुलाक़ात हुई और हमें एक कटोरी दहीं खाने को मिला।
जग्गू भाई तो बस हमें छोड़ने आये थे इसीलिए बाघपुर से सवारी गाड़ी पकडनी थी, जिसके लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी। अंत में जिस टेम्पो में हम लौटे, अमूमन उसमे 10 लोग बैठते हैं, पर उस दिन उसमें कई लोग सवार थे, 4 आगे, और पीछे कितने और कैसे बैठे थे मैं ये नहीं बता सकता, क्यूंकि समझ में नहीं आ रहा था कि कौन, कहाँ और कैसे बैठा या खड़ा है। मैं और दीनदयाल आगे बैठे हुए थे ड्राईवर के बगल में और राहुल, मनाली, कबीर पीछे। उतरकर उन लोगों ने बतलाया कि पीछे 16 लोग थे जिसमें से 5 बाहर लटके हुए थे।
सच में इस टेम्पो की तरह ही कितने कम में जीतें हैं, गाँव के हमारे ये साथी। चाय, पानी, दूध सभी के लिए एक ही बर्तन, स्टील का गिलास, 2-3 कमरों का घर वो भी कच्चा, हर घर में 9-10 लोग, फर्नीचर के नाम पर चारपाई या तखत, गाड़ी के नाम पर साईकल।
सोचता हूँ उस ट्रिप के बारे में तो एक दोहा याद आता है निदा फ़ाज़ली साहब का
छोटा करके देखिये, जीवन का विस्तार
आँखों भर आकाश है, बाँहों भर संसार
आँखों भर आकाश है, बाँहों भर संसार
It was nice to read this piece...'love of the country side / nature' juxtaposed with the fast encroaching consumerist life style that threatens to pollute it...a slightly unrelated thought: Are you aware whether every house there has a toilet, or at least enough community toilets?...Would love to read more such pieces...Keep writing, Vivek.
ReplyDelete@Amar: Here is what we have found (from a note prepared by Rahul-Manali)
ReplyDeleteOne could see standalone very small toilets around many houses, we were told that they have been constructed under some govt. scheme and households had to pay Rs. 500/ for it. But they are not used at all as they are too small and also their pits are very small and get choked quickly.
@ Vivek
ReplyDeletewhat does this note tell us? about toilets? their availability? government schemes?
I am not surprised that women are almost absent from the account of scenic and an otherwise content village apart from handing over the nice 'pure' consumables invisibly.
@ Nirmali
ReplyDelete:) ये मैं कैसे बताऊँ कि ये नोट तुम्हें क्या बतलाता है? तुम पर है कि तुम क्या निकालो इस से.
हाँ ये बात तो तुमने सही कही कि इस नोट में मुख्यतः बात पुरुषों या उनसे जुड़ें मुद्दों के आस पास घूम रही है महिलाओं का जिक्र कम है या ये कहूं के नहीं ही है. ये मेरी कमी है. स्वीकार करता हूँ.
@ Nirmali
ReplyDeleteपिछले जवाब में मैंने जो लिखा वो भी सही नहीं है कई मायनों में. जैसे कि मैंने लिखा "पुरुषों से जुड़े मुद्दे". असल में ये मुद्दे शायद सबसे ज्यादा असर महिलाओं पर ही डालते होंगे.
समझ की कमी है. उम्मीद है ऐसे प्रयासों से थोड़ा बढ़ने में मदद मिलेगी.