मेरा जन्म नौरोजाबाद नाम के एक छोटे से कस्बे में हुआ था. ये क़स्बा मध्य प्रदेश के उमरिया जिले में पड़ता है. मेरे पिता जी आज भी यहीं कोयले की खदानों में काम करते हैं. जिस घर में मैं पैदा और बड़ा हुआ, उसे याद कर रहा था एक दिन. वैसे तो उस घर को छोड़कर हम लोग कई सालों पहले उसी मोहल्ले के थोड़े बड़े घर में शिफ्ट हो गए थे, पर उस घर की कई यादें हैं जो कभी कभी मेरे दिमाग पर दस्तक देती हैं.
याद है मुझे वो घर,
जिसके आँगन में, ठण्ड के मौसम में
गुनगुनी धूप बिखरी रहती थी,
जो सरकती रहती थी पल-पल,
और साथ उसके खटिया भी
जिस पर मैं लेटा रहता था..
वो धूप जब दीवार पर टंग जाती,
तो सोचा करता,
काश मैं भी दीवार पर खटिया डालकर सो सकता..और कुछ देर...
उस घर के आँगन में
एक पेड़ था, हरा, कटहल का..
माँ बताती कि किसी ने उस पेड़ में
लोहे की कील ठोक दी है
जो फलता नहीं वो..
फिर भी
आँगन के एक कोने में खड़ा वो पेड़
बहुत सुन्दर था..
मुझे हमेशा लगता
उस पेड़ की जड़ों के पास साँपों की बाम्बी है
और उसमें रहने वाले सांप मेरे रक्षक हैं..
उस पेड़ की जड़ों के पास ही हम नारियल फोड़ते,
सफ़ेद रसगुल्लों से भरे वो टिन के डिब्बे खोलते
जो शायद अब बाज़ार में नहीं मिलते..
दिवाली के दिन पूजी गई मिट्टी की मूर्तियाँ
नदी में सिराने से पहले
कई दिनों तक उसी पेड़ की
जड़ों के पास पड़ी रहतीं..गलती रहतीं...
उस आँगन में पापा ने
एक झूला भी लगवाया था,
जिस पर मैं, मेरी बहन और मोहल्ले के दोस्त
अकसर ही चढ़े रहते थे..
मैं उस पर बैठ कर झूलता तो मुझे चक्कर आता...
उस आँगन से सटे दो कमरे थे,
जिनमें से एक रसोई थी..
दूसरा कमरा मुझे डरावना लगता,
इतना कि दिन में भी मुझे उसमे अकेले जाते डर लगता..
पर रसोई,
वो तो केंद्र थी घर का..
स्कूल से लौटते ही
हम घर में फ़ैली गंध पहचनाने की कोशिश करते..
कि माँ ने आज क्या पकाया होगा..
माँ जब शाम को रसोई में
कोयले की सिगड़ी पर रोटियां सेंकती..
तो हम उसके साथ रसोई में ही बैठकर
स्कूल का काम कर लेते..
फिर माँ से आटा मांगकर,
कभी उससे कछुआ बनाते तो कभी चिड़िया,
और फिर रख देते उन्हें सिगड़ी के अन्दर,
पकने के लिए..
अकसर ही कच्चे रह जाते थे वो..भीतर से...
रसोई से संटा हुआ था
सोने का कमरा..
हम सभी साथ ही सोते वहां..
मैं और मेरी बहन,
दोनों ही पापा के बगल में सोना चाहते..
वो हमें अपने दोनों और लिटा लेते और
कहानियां सुनाते..
ऊपर छत को देखते हुए..
क्यूंकि हम दोनों ही जिद्द करते
हमारी ओर देखकर कहानी सुनाने की..
मेरी बहन ने मुझे याद दिलाया
कैसे वो एक दफा भोपाल गए थे..
और हम दोनों ही
उनका तकिया पकड़ कर सोये थे..
शायद रोये भी थे...
और मुझे याद है एक वाकया,
जब मैं घर पर अकेला था..
दरवाज़े के ऊपर टंगी
भगवान् की फोटो के सामने
हाथ जोड़कर रो रहा था..
एक टीचर ने परीक्षा के दौरान
मेरी कॉपी से देखकर किसी बच्चे को
कुछ उत्तर बताये थे..
मैं भगवान् से मना रहा था
उस बच्चे के मुझसे ज्यादा नंबर ना आयें...
कितना अजीब था बचपन..मेरा..
शायद हर किसी का होता है..
अनोखा...
मन के किसी कोने में
ना जाने कहाँ छुपकर
यादें रहती हैं..
कभी जब मन भारी होता है..
तो बरसने लगती हैं......
जिसके आँगन में, ठण्ड के मौसम में
गुनगुनी धूप बिखरी रहती थी,
जो सरकती रहती थी पल-पल,
और साथ उसके खटिया भी
जिस पर मैं लेटा रहता था..
वो धूप जब दीवार पर टंग जाती,
तो सोचा करता,
काश मैं भी दीवार पर खटिया डालकर सो सकता..और कुछ देर...
उस घर के आँगन में
एक पेड़ था, हरा, कटहल का..
माँ बताती कि किसी ने उस पेड़ में
लोहे की कील ठोक दी है
जो फलता नहीं वो..
फिर भी
आँगन के एक कोने में खड़ा वो पेड़
बहुत सुन्दर था..
मुझे हमेशा लगता
उस पेड़ की जड़ों के पास साँपों की बाम्बी है
और उसमें रहने वाले सांप मेरे रक्षक हैं..
उस पेड़ की जड़ों के पास ही हम नारियल फोड़ते,
सफ़ेद रसगुल्लों से भरे वो टिन के डिब्बे खोलते
जो शायद अब बाज़ार में नहीं मिलते..
दिवाली के दिन पूजी गई मिट्टी की मूर्तियाँ
नदी में सिराने से पहले
कई दिनों तक उसी पेड़ की
जड़ों के पास पड़ी रहतीं..गलती रहतीं...
उस आँगन में पापा ने
एक झूला भी लगवाया था,
जिस पर मैं, मेरी बहन और मोहल्ले के दोस्त
अकसर ही चढ़े रहते थे..
मैं उस पर बैठ कर झूलता तो मुझे चक्कर आता...
उस आँगन से सटे दो कमरे थे,
जिनमें से एक रसोई थी..
दूसरा कमरा मुझे डरावना लगता,
इतना कि दिन में भी मुझे उसमे अकेले जाते डर लगता..
पर रसोई,
वो तो केंद्र थी घर का..
स्कूल से लौटते ही
हम घर में फ़ैली गंध पहचनाने की कोशिश करते..
कि माँ ने आज क्या पकाया होगा..
माँ जब शाम को रसोई में
कोयले की सिगड़ी पर रोटियां सेंकती..
तो हम उसके साथ रसोई में ही बैठकर
स्कूल का काम कर लेते..
फिर माँ से आटा मांगकर,
कभी उससे कछुआ बनाते तो कभी चिड़िया,
और फिर रख देते उन्हें सिगड़ी के अन्दर,
पकने के लिए..
अकसर ही कच्चे रह जाते थे वो..भीतर से...
रसोई से संटा हुआ था
सोने का कमरा..
हम सभी साथ ही सोते वहां..
मैं और मेरी बहन,
दोनों ही पापा के बगल में सोना चाहते..
वो हमें अपने दोनों और लिटा लेते और
कहानियां सुनाते..
ऊपर छत को देखते हुए..
क्यूंकि हम दोनों ही जिद्द करते
हमारी ओर देखकर कहानी सुनाने की..
मेरी बहन ने मुझे याद दिलाया
कैसे वो एक दफा भोपाल गए थे..
और हम दोनों ही
उनका तकिया पकड़ कर सोये थे..
शायद रोये भी थे...
और मुझे याद है एक वाकया,
जब मैं घर पर अकेला था..
दरवाज़े के ऊपर टंगी
भगवान् की फोटो के सामने
हाथ जोड़कर रो रहा था..
एक टीचर ने परीक्षा के दौरान
मेरी कॉपी से देखकर किसी बच्चे को
कुछ उत्तर बताये थे..
मैं भगवान् से मना रहा था
उस बच्चे के मुझसे ज्यादा नंबर ना आयें...
कितना अजीब था बचपन..मेरा..
शायद हर किसी का होता है..
अनोखा...
मन के किसी कोने में
ना जाने कहाँ छुपकर
यादें रहती हैं..
कभी जब मन भारी होता है..
तो बरसने लगती हैं......
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