Friday, December 18, 2015

विकास की राह

विकास जंगल के रास्ते नहीं आता
उसे तो चाहिये चौड़ी सड़कें
4-लेन, 8-लेन, 12-लेन।

जंगल तो विकास के रास्ते में बाधक हैं
उन जंगली लोगों की ही तरह
जो हमारे शहरों में आकर भी
अपना जंगलीपना नहीं छोड़ते।

इसलिये इन दोनों को ही साफ कर देना चाहिये।

और फिर क्या जरूरत इन जंगलों की
जब साफ हवा बंद बोतलों में बिकने लगे,
और इंसान इतना सस्ता हो कि
उसे जिंदा रखना नुकसान की बात हो।

http://www.assamtribune.com/scripts/detailsnew.asp?id=dec0615/at059 

http://www.independent.co.uk/news/world/asia/china-pollution-canadian-company-vitality-air-sells-out-of-bottled-fresh-mountain-air-as-smog-levels-a6773631.html#gallery

http://indianexpress.com/article/cities/delhi/shakur-basti-demolition-drive-what-was-the-tearing-hurry-delhi-high-court-raps-railways/


 

Monday, October 26, 2015

ठंड के संग कठफोड़वे की दस्तक

ठक-ठक, ठक-ठक, ठक-ठक, ठक
कठफोड़वे ने दी दस्तक।

सड़ी लकड़ियां, तने खोखले
खोज रहा है दीमक-कीड़े
करता रहता उठा-पटक,
चोंच है लम्बी, रंग चटक,

ठक-ठक, ठक-ठक, ठक-ठक, ठक
कठफोड़वे ने दी दस्तक।

उसे देखने जब भी निकलूं
जाने कहां वो जाए दुबक?
सोच रही हूं खड़ी-खड़ी
इंतजार करूं कब तक?

ठक-ठक, ठक-ठक, ठक-ठक, ठक
कठफोड़वे ने दी दस्तक।

Thursday, October 15, 2015

हरसिंगार की रंगोली

लौट रही है ठंड,
और साथ उसके,
मेरे घर के सामने
रोजाना सुबह
अपने आप ही बन जाने वाली
सफेद-केसरिया
खैवाली फूलों की
मीठी खुश्बूदार
रंगोंली

Friday, October 2, 2015

ओ री ओरिओल

लौट रही है ठंड,
और साथ उसके
मेरे कमरे की खिड़की से
दिखने वाले
अमरक के पेड़
पर नन्हे लाल-गुलाबी फूल;
और उनके पीछे
चली आई है
उनकी सुधी लेने
वो सुनहरी-पीली ओरिओल।

एक बार फिर से

एक बार फिर से हमने
बस अभी-अभी
दुनियां की सबसे बड़ी "डेमोक्रेसी"
होने का सुबूत दिया है।

एक बार फिर से हमने
बस अभी-अभी
जान ली है;
एक मुसलमान की।

Tuesday, September 15, 2015

ना जाने कैसे दिन बीते जाते हैं?

नहीं!
हम अंदाजा नहीं लगा सकते,
कि क्यों तुम विकास के खिलाफ हो!
अंदाजा लगाने के लिये समय चाहिये,
ताकि थमकर-ठहरकर सोच सके कुछ देर।
लेकिन इस व्यवस्था में
समय कहां,
फुर्सत कहां,
वो तसल्ली कहां,
कि आराम से सोचा जा सकें।

वैसे बता दें,
हम भी तुम्हारी ही तरह जंगलों में रहते हैं,
हां ये बात और है
कि हमारे जंगल ईमारती है
और हमारे लिये इनसे ठंडी छांह की उम्मीद करना
नादानी है।

हमारे आस-पास भी पहाड़ हैं,
उनसे भी बू आती है,
लेकिन बॉक्साइट की नहीं,
इस व्यवस्था से उपजी गंदगी की,
सड़ांध,
जिसे हटा पाना इसी व्यवस्था से उपजे
किसी भी स्वच्छ अभियान के बूते से बाहर की बात है।

जिस विकास का झांसा देकर
तुम्हें वो सुंदर भविष्य का सपना दिखा रहे हैं,
उसी विकास की एक तस्वीर है वो शहर
वो शहर से सटा कस्बा,
जहां हम रहते हैं
और जहां
जंगलराज ने लोकतंत्र की चादर ओड़ रखी है।।

तुम्हारे पास तो अब भी बहुत कुछ है अपना कहने को
जो तुम्हें प्रिय है - तुम्हारा जंगल, तुम्हारा गांव, तुम्हारी धरती!
हमारा ना जाने क्या अपना है?
हम तो उस चीज को भी अपना नहीं‌ कग सकते,
जिसे हम अपने हाथों से बनाते हैं।
शायद ये शरीर ही बस अपना है,
या शायद वो भी नही,
जिसे जिंदा रखने की ज़रूरत के चलते,
रोज चंद सिक्कों की खातिर,
बाज़ार में खुद को बेचते हैं हम।

खुद को जिंदा रखने की
इस जद्दोजहद में,
इस जूझ में,
ना जाने कैसे दिन बीते जाते हैं?

Thursday, August 20, 2015

आजादी का दिन

दिन:
15 अगस्त 2015

जगह:
नर्मदा एक्सप्रेस, कोच: एस 7

किरदार:
एस. कुमार, बिल्ला नंबर 105, रेल्वे पुलिस सुरक्षा बल
एक नया रंगरूट
एक मूंगफली वाला

घटना:
क्यूं बे भोषिड़ी के, तैं ही रहे ना परसों जो देख के भागे रहे?
अरे नहीं सरकार, आप से भाग के कहां जायेंगे। कुछ खिलाऊं?
साले, पहले 20 निकाल और फिर सबको खिला।
अरे जाने दीजिये ना सर, आज के दिन, छोड़ दीजिये।
अरे काहे छोड़ दें, जब हमहुं आज़ाद नहीं तो ये मादरचोद काहे की आज़ादी मनायेंगे।
चल बे जल्दी कर।

Monday, August 10, 2015

क्या कुछ बदल गया?


१५ अगस्त २०१२ की सुबह

आज़ाद भारत की ६५वी सालगिरह.  देश के प्रधानमंत्री ने लाल-किले पर तिरंगा लहरा दिया है, देश के नाम सन्देश भी ज़ारी कर दिया है. टीवी पर आजादी से जुड़े कई कार्यक्रम आ रहे हैं.  घर के पास ही सरकारी स्कूल के बच्चे में सुबह की प्रभात फेरी निकालने निकल गए हैं. सुबह से ही स्कूल में लाउड स्पीकर पर एक गीत बज रहा है जो  मैंने बचपन से १५ अगस्त और २६ जनवरी के दिन ही सुना है:

"ऐ मेरे वतन के लोगों......जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुर्बानी."

और मैं दिल्ली से तकरीबन १००० किलोमीटर की दूरी पर बसे एक गाँव सस्तरा (मध्य प्रदेश) में बैठा ये लिख रहा हूँ. नौरोजाबाद की कोयला खदानों से रिटायर होने के बाद मेरे पिता जी ने यहाँ एक आराम-दायक घर बनवाया है. इस जगह को छोड़े हुए काफी वक़्त हो गया मुझे. तकरीबन १४ साल. इंजीनियरिंग की पढाई शुरू करने के साथ ही चला गया था यहाँ से. बीच-बीच में मेहमानों की तरह ही आता-जाता रहा हूँ.

अब जब यहाँ लोगों से मिलता हूँ या सड़कों पर उन्हें देखता हूँ तो महसूस होता है कि उनमे से कईओं की शक्ल तो ज़हन में छपी हुई है पर उनके नाम भूल गया हूँ. बस थोड़ी देर पहले ही अखबार बांटने वाले एक बुजुर्ग अखबार देकर गए हैं. उनकी शक्ल देखकर भी ऐसा ही लगा. शायद कई दिनों बाद आये थे वो अखबार डालने. बीच में उनकी तबियत नासाज़ थी और कोई और दे जा रहा था अखबार उनकी जगह. माँ ने उनकी तबियत पूछी तो बतलाया कि बहुत दिनों तक मलेरिया का तेज़ बुखार आता रहा. अभी भी ज्यादा बेहतर नहीं है पर पहले से ठीक हैं और लौट आये हैं काम पर वरना दिक्कत हो जायेगी घर चलाने में.

मैं सोच रहा था उनके जाने के बाद उनके बारे में. पिता जी से पूछा तो पता चला कि वो कई सालों से अखबार बाँटते हैं. बचपन में हमारे मोहल्ले में भी बांटते थे. इसीलिए मेरे ज़हन में उनकी तस्वीर थी. सोच रहा था मैं, कि मेरे बचपन से अब तक तो बहुत कुछ बदल गया, पिताजी रिटायर हो गए. हमारा अपना घर हो गया. उनके बच्चे पढ़-लिखकर अच्छी स्थिति में हैं. पर उन अखबार वाले साथी के लिए क्या बदला. शायद बस यही कि वो जवान से बूढ़े हो गए. अभी भी वही काम कर रहे हैं. रिटायर होने की विलासिता का सुख वो शायद कभी नहीं भोग पायेंगे. मैं उनके बच्चों के बारे में नहीं जानता. पर शायद वो भी इतनी अच्छी स्थिति में नहीं, वरना उन्हें बुढापे में क्यों काम करना पड़ता और वो भी बीमारी के दौरान.


दुविधा

वो आज फिर लौट आया 
रेलवे स्टेशन से.....

सोचता रहा 
टिकेट की लाइन में खड़े-खड़े,
कि जाए खुद पास माँ के
जो बीमार पड़ी है गाँव में,
या भेज दे मनी आर्डर,
किराए का पैसा जोडकर,
ईलाज के लिए.....

और ट्रेन चली गई,
उसे पीछे छोड़कर,
उस अनजान शहर में,
अकेला.....

Tuesday, May 12, 2015

मुकुल सिंहा: सच का खोजी

 
आई आई टी कानपुर की कामगारों की एक बैठक में मुकुल भाई
आज ही के दिन पिछले साल मुकुल भाई नही रहे। आज जब उनके तमाम साथी, उनके जानने वाले उन्हें याद कर रहे हैं, यह लेख भी उन्हीं को समर्पित है। यह लेख ना तो उनकी जीवनी है और ना ही उन लोगों ने लिखा है जिन्होंने उनके साथ किसी मुद्दे पर लम्बे समय तक काम किया हो। मुकुल भाई से हमारा संपर्क कानपुर में सिर्फ एक-दो दफे ही हुआ है, जब वो और निर्झरी जी हमारा मंच के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने के लिए कानपुर आये थे। लेकिन फिर भी जिस आत्मीयता से वो हमसे मिले व जिस सादगी के साथ उन्होंने अपने काम और संगठन के बारे में हमसे बातचीत की, हमें लगता है कि आज के इस विमर्श में हमारे पास भी मुकुल भाई और उनके कामों से जुड़ी कुछ ऐसी बातें है जिसे हम भी बांट सकते हैं।

हमने मुकुल भाई व उनके कामों‌ के बारे में‌ अपनी समझ मुख्य रुप से उस किस्से के इर्द-गिर्द बुनने की कोशिश की है जिसे मुकुल भाई और निर्झरी जी ने लखनऊ से कानपुर की ओर आते हुए हम दोनों से साझा किया था।

आज जब मुकुल भाई के गुजरने के बाद, अखबारों व मीडिया में‌ उन्हें व उनके काम को मुख्य तौर पर गुजरात 2002 के दंगों, तथाकथित पुलिस एनकाऊंटर्स, व कुछ ऎसे ही मामलों के दायरों में‌ समेट कर देखा जा रहा है, ये किस्सा हमारे सामने मुकुल भाई के व्यक्तित्व के ऎसे पहलू को ऊजागर करता है जिसकी मदद से हम मुकुल भाई व उनके जीवन को एक व्यापक परिपेक्ष में‌ देख व समझ सकते हैं।

और ये किस्सा है साल 2001 के शुरूआती महिनों का। 26 जनवरी 2001 की सुबह गुजरात ने एक जबरदस्त भूकम्प का सामना किया। इसकी तीव्रता व असर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस भूकम्प से 20000 से ज्यादा इंसानी जानें गईं और लाखों लोग घायल व बेघर हुए। साथ ही अन्य जान और माल का भी बड़े भारी स्तर पर नुकसान हुआ। स्वाभाविक सी बात है, इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद राजकीय, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर मदद का काम शुरू हुआ। ये मदद जरूरतमंदों तक पहुंची या नहीं, इसकी चर्चा तो हम यहां नहीं‌ करेंगे। पर ये बात बिल्कुल साफ़ है कि मदद जरूरतमंदों तक पहुंचे, इसके लिये जरूरी था कि धरती की सतह पर भूकम्प के केन्द्र का सही-सही पता लगाया जाये। भूकम्प के ठीक बाद ही दो अलग-अलग एजंसियों से भूकम्प के केन्द्र के बारे में‌ जानकारियां मिलीं। इनमें से एक संस्था थी अमेरिका की US Geological Survey (USGS) और दूसरी भारत की Indian Metrological Department (IMD)। ये संस्थायें दो अलग-अलग जगहों को भूकंप का केन्द्र बतला रहीं थीं। पर भूकंप का केन्द्र तो एक ही हो सकता था और जिसका सही-सही पता लगाना कई मायनों में ज़रूरी था। मुकुल भाई ने अपने संगठन जन संघर्ष मंच व कुछ अन्य साथियों के साथ मिलकर भूकंप के केन्द्र से जुड़ी सच्चाई को वैज्ञानिक तरीके से ऊजागर करने का निर्णय लिया। मुकुल भाई एक वकील व सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में अपने आपको स्थापित करने से पहले भौतिकी विज्ञान के छात्र रहे थे। उनका यह निर्णय उनके वैज्ञानिक नजरिये को सामने रखता है।

जन संघर्ष मंच की टीम ने भूकम्प आने के 20-25 दिनों के भीतर ही प्रभावित इलाकों का गहन दौरा कर उन इलाकों में‌ हुए नुकसान का वैज्ञानिक विश्लेषण किया। ऎसा करने में इस टीम ने भू-विज्ञान से जुड़े दो सिद्धांतों का तार्किक तरीके से इस्तेमाल किया। इक्कठ्ठे किये गये आंकड़ों व विश्लेषणों के आधार पर इस टीम ने एक रपट तैयार की, जिसके मुताबिक भूकंप का सही केन्द्र USGS द्वारा बतलाई गई जगह के करीब था। पर अब जरूरत थी कि भूकम्प से जुड़े इस सच को स्थापित करने की, जिसके लिये जन संघर्ष मंच ने गुजरात उच्च न्यायालय में‌ एक अपील दायर की। इस अपील के चलते जब IMD से जवाब मांगा गया तब IMD के निदेशक ने न्यायालय के सामने यह बात मानी कि IMD के द्वारा बतलाए गये भूकम्प के केन्द्र की जगह गलत है और सही जगह जन संघर्ष मंच की रपट में बतलाई गई जगह के करीब है। जन संघर्ष मंच की टीम के प्रयासों से मात्र 4 महीनों के भीतर ही भूकंप का सही केंद्र कानूनी रूप से स्थापित हो गया।

मुकुल भाई से जुड़े इस किस्से से कुछ ऎसी बातें निकलकर आती हैं जो उनके व्यक्तित्व के कई पहलुओं को सामने रखती हैं।
  • मुकुल भाई सच के एक खोजी थे। किसी भी बात पर सिर्फ़ इसलिये यकीन कर लेना कि वो बात कोई उच्च संस्थान या कोई ताकतवर व्यक्ति/प्रशासन कर रहा है, उनका स्वभाव ना था। उनकी यह विशेषता उनके हर काम में देखी जा सकती है, चाहे वो भूकंप के केन्द्र का मसला हो या कि किसी सम्प्रदाय विशेष या मत विशेष से जुड़े लोगों को आतंकवादी बता कर जेलों में बंद करने वा उनके तथाकथित एनकाऊंटर्स का मामला हो और या फ़िर गोधरा ट्रेन जलने के घटना। ये सभी घटनाएं या तो सीधे -सीधे आम लोगों के जीवन पर असर डालती हैं‌ या समता व न्याय जैसे उन संवैधानिक मूल्यों को ही चुनौती देती है जोकि एक सभ्य समाज की नींव होते हैं। जाहिर सी बात है कि एक सचेत व जागरूक नागरिक होने के नाते मुकुल भाई इन घटनाओं के पीछे के सच की खोज करना अपनी जिम्मेदारी समझते थे।
  • ये कहना बहुत आसान है कि आखिरी में‌ सच की ही जीत होती है; शायद ऐसा होता भी हो। पर सच की जीत के लिये जरूरी है कि पहले तो सच की खोज की जाये और फ़िर उस प्रक्रिया में सच को स्थापित करने का प्रयास किया जाये, उसकी लड़ाई लड़ी जाये। मुकुल भाई में सच को स्थापित करने की प्रतिबद्धता भी दिखाई देती है।
  • मुकुल भाई के व्यक्तित्व का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू भी हम देख पाते हैं और वो यह है कि सच की खोज व उसे स्थापित करने की प्रक्रिया में वो एक संगठन के महत्त्व को समझते थे। व्यक्तिवाद के इस युग में जहां सस्ती लोकप्रियता घर बैठे-बैठे ही मिल जाती है मुकुल भाई जैसे एक काबिल इन्सान का तमाम संगठनों को मज़बूत करने में अपना समय व ऊर्जा लगाना यही दिखलाता है कि वो सिर्फ और सिर्फ सच की लड़ाई लड़ रहे थे और इस सामूहिक लड़ाई में संगठन की शक्ति को वो अच्छी तरह समझते थे।
  • मुकुल भाई में एक और समन्वय देखने को मिलता है जो आजकल दुर्लभ होता जा रहा है और वो है एक वैज्ञानिक सोच और राजनीतिक समझ का। यहां राजनीति से हमारा मतलब वोटों की राजनीति से कतई नहीं है जिसमें एक नागरिक समाज के प्रति अपने सारे कर्तव्यों को मात्र एक दिन वोट डालकर ही निपटा आता है। साथ ही वैज्ञानिक सोच से भी हमारा अंदेशा यह बिल्कुल भी नहीं कि वह केवल आई आई टी जैसे संस्थानों में विज्ञान की पढ़ाई करके ही बनाई जा सकती है। आज के इस दौर में लगभग सभी शिक्षण संस्थानों का एकमात्र मकसद बाज़ार के लिए सस्ता मानव श्रम मुहैया करवाना है, नाकि ऐसे नागरिक तैयार करना जोकि वर्तमान व्यवस्था पर तार्किक व वैज्ञानिक ढंग से सवाल उठा सकें। ऐसे में कई विज्ञानकर्मी मिल जायेंगे जो अपने आप को गैरराजनैतिक बतलाते हुए व्यवस्थागत सवालों से कन्नी काट जाते हैं। इनमें से कुछ तो काफी समझदार हैं और जिनके लिए Upton Sinclair लिख भी गए हैं कि “It is difficult to get a man to understand something, when his salary depends on his not understanding it”। पर इनमें से कुछ ऐसे भी हैं जोकि इस दुविधा में ही रह जाते हैं कि कहीं हम वर्तमान व्यवस्था पर राजनीतिक सवाल उठाकर विज्ञान के साथ बेईमानी तो नहीं कर रहे। शायद वो भूल जाते हैं कि विज्ञान का असल मकसद तो सवाल पूछना और जांच-पड़ताल ही है। पर मुकुल भाई में ये दोनों ही पक्ष मौजूद थे। व्यवस्था परिवर्तन की राजनीतिक लड़ाई में उन्होंने अपनी विज्ञान की शिक्षा व वैज्ञानिक समझ का भरपूर उपयोग किया। तार्किक सवाल उठाये और वैज्ञानिक ढंग से उनकी जांच-पड़ताल की।
इन सभी बातों के बीच मुकुल भाई का एक मानवीय पक्ष भी था, जिसके चलते जब वो सालों बाद कानपुर आये तो आई आई टी कानपुर के अपने हॉस्टल ( हॉल 5) के उस कमरे में गए जिसमें वो पढ़ाई के दिनों में रहा करते थे, निर्झरी जी को उस रेस्टोरेंट (चुन्गफा) ले जाना नहीं भूले जहां कभी वो अपने दोस्तों के साथ जाया करते थे और अपने दोस्तों के साथ हॉल 4 कैंटीन में शाम देर तक अड्डा मारते रहे, हँसते-हंसाते रहे। मुकुल भाई की वो जिन्दादिल मुस्कुराहट हमें हमेशा याद रहेगी।

मुकुल भाई के गुजरने के बाद एक बात जो साफ तौर से समझ आती है कि भले ही यह जीवन छणिक व अनिश्चित क्यूं ना हो, इसे कैसे जीना है ये हमारे अपने हाथों में है। मुकुल भाई ने जो विकल्प चुने, वो उन्हें सच की लड़ाई का एक ईमानदार और विश्वसनीय कॉमरेड बना गए।

Wednesday, January 28, 2015

मेरा कमरा, खाली खाली My room, empty

कुछ किताबें हैं उसमें A few books, it contains
उनमें से चंद अक्सर ज़मीन पर बिखरी रहती हैं, A few words from it lie
scattered on the floor
जिन्हें मैं पढता रहता हूँ , frequently I read them
बाकी सारी बुक-शेल्फ में पड़ी पड़ी the rest dwells in the book-shelf
मुझे निहारती रहती हैं, gazes at me longingly
मुझे ताना मारती रहती हैं कि and taunt me
जब पढ़ना नही था, if you wouldn't to read me
तो खरीद कर ही क्यों लाये? why purchase me?

कोने में रखा एक गिटार है In the corner, a singular guitar
जो अक्सर अपने कवर के अंदर ही रहता है । usually dwells in its own coffin.
अपनी तारों के झनझनाने की tentatively initiates a conversation of
बाट जोहता रहता है। awaiting someone to strum its strings
परेशान है मुझसे, Distressed with me
अक्सर पूछा करता है frequently asks me
कि जब बजाना ही नही था, if you wouldn't to strum me
तो खरीद कर क्यों लाये? why purchase me?

एक छाता है जो There is an umbrella
जो अक्सर उल्टा लटका रहता है, usually hung topsy turvy
दीवार के कोने वाले पाइप से। in the corner pipe of the wall
पिछली बरसात के बाद से वो She has been here this way
उसी pose में है since last monsoon
मानो मैंने, उसे फांसी की सज़ा सुनाई हो। as if I have sentenced her to
death by hanging
वो उदास रहता है आजकल Presently, she is unhappy with me
क्योंकि मैंने उसके बाजू में लटक रहे I’ve removed her companion cobwebs
मकडी के जाले को हटा दिया है। hanging in the corner with her.

एक bottle है पानी की there is a water bottle
जो अक्सर खाली रहती है usually devoid of water
मैंने उसके उपरी ढक्कन को I have removed its cap
उससे अलग कर दिया है separated it from the bottle
अब वो आईने के सामने वाले slab पर now it stands on its head
उल्टा पडा रहता है, मुझसे रूठा हुआ सा। in the slab facing the mirror
क्योंकि मैंने उसमें लोहे के कुछ पेंच रख दिए हैं, a lovers’ tiff I’ve
had with her
जोकि उसको चुभते रहते हैं। for I’ve place iron screws within
that keeps pricking her as if shards

एक आइना है there is a mirror
जिसपर अक्सर धूल जमी रहती है। usually dressed in a layer of dust
उसे देखने मैं जब भी जाता हूँ, whenever I go to look at her
अपने आप को ही वहां पाता हूँ, I find myself rather than her
धूल में लिपटा हुआ सा। dressed in a layer of dust
वो भी खफा रहता है मुझसे कि she is miffed with me
ख़ुद को देखने में, मैं उसे ही भूल जाता हूँ। that I, in observing my reflection,
have forgotten her in whom I see myself
एक टेबल है there is a table
जिसपर अक्सर दुनिया भर की usually scattered with
ना जाने क्या-क्या, चींजे फ़ैली रहती है। I wonder what objects and artefacts
वो नाराज़ तो है मुझसे, पर ये राज़ खोलता नही he is peeved with me yet
keeps this a taciturn secret
चुपचाप रहता है, चूं भी बोलता नहीं।
उसकी हमसफ़र कुर्सी his soulmate the chair
अब साथ नही उसके, is no longer with him.
वो शहीद हो गयी, martyred
जब क्रिकेट खेलने वाले कुछ लोगों ने when few cricket players
उसे stump बना लिया।had used it as a stump

और and

आईने के उपरी कोने में, in the corner of the mirror
एक ग्रीटिंग कार्ड अटका हुआ है। rests glued a greeting card
उसके कवर पर किसी मुसव्विर ने On its cover is painted
चौखट पर बैठी a woman sitting on the threshold
एक औरत का चित्र बना रखा है। perhaps she is waiting
शायद वो किसी का इंतज़ार कर रही है।

वो कार्ड मैंने ही अपने आप को दिया था। I had addressed that card to myself
शायद ख़ुद को ये एहसास दिलाने कि possibly to give a sense
कोई है जो इंतज़ार करती है of someone awaiting
कमरे में मेरा।  me in my room

मेरा कमरा, खाली खाली My room, empty


(आई आई टी कानपुर के अपने कमरे में लिखी एक पुरानी कविता जिसका हाल ही में एक नई दोस्त हरीप्रिया ने अनुवाद किया।) 

Sunday, January 4, 2015

तीराहा

आज मुन्ना अकेले ही तीराहे की अंधेरी सड़क के छोर पर खड़ा हुआ है अपना रिक्शा लिये हुए। और कोई नही है आस-पास। ना ही कोई रिक्शा वाला, ना कोई सवारी। वैसे भी शाम इतनी देर तक तो कोई भी रिक्शा वाला नहीं होता है वहां। पर आज जाने क्या बात हुई? बारिश होती रही दिनभर आज...बहुत तेज़। और अभी भी बूंदा-बांदी जारी है।

तभी सामने से एक बस आकर रुकी... सड़क के दूसरे छोर पर रहने वाली एक महिला उतरी। अक्सर ही वो इसी बस से आती और तीराहे से रिक्शा लेकर घर जातीं। मुन्ना खुद भी कई दफे घर छोड़कर आया है उन्हें। शायद कहीं काम करती हैं...आज बारिश की वजह से उनकी बस लेट हो गई लगता।

"भईया चलोगे क्या?" महिला ने अपना छाता खोलते हुए पूछा।

"हां मेम साहब चलिये?"

"कितना पैसा लोगे?"

"दस रुपये मेमसाहब।"

"क्या भईया!" महिला ने गुस्से में कहना शुरु किया...

"रोज तो पांच रूपये में‌ जाते हैं हम। आज ये रेट क्यूं बढ़ा दिया? तुम लोग भी सवारी की मजबूरी का फायदा उठाते हो...कोई ईमान-धरम है या नहीं तुम्हारा?"

"मेम साहब आज सुबह से ही सवारी नहीं मिली। दिनभर तो अपनी झुग्गी की छत ही ठीक करता रह गया। बारिश के चलते टूट गई थी।"

"भईया सवारी नहीं मिली तो क्या सारा नुकसान हमसे भरवाओगे? जाओ तुम...नहीं जाना हमें...पैदल ही चले जायेंगे।"

कहते-कहते महिला आगे बढ़ गई उस सड़क पर जो तालाब बन चुकी थी।

"अरे मेमसाहब अंधेरे में कहां जाएंगी...रास्ता भी बहुत खराब है।" मुन्ना पीछे से चिल्लाया...पर मेमसाहब रूकी नहीं।

कुछ सेकेंड बाद मुन्ना भी मेमसाहब के पीछे हो लिया...जाने क्या सोचकर?...शायद ये कि चलो पांच रुपये ही मिल जायेंगे...या ये कि अंधेरे में मेमसाहब को दिक्कत होगी...या और कुछ...

अब ये तो मुन्ना ही जाने...

(24/07/2010)