Thursday, November 17, 2016

शामत किसकी?

मन्दिर के बाहर 
लाईन में लगे भिखारियों में से एक ने
जब एक महिला की तरफ हाथ बढ़ाया

महिला ने कहा 
आज तो भगवान को भी नही चढ़ाया
खुद 3 किलोमीटर पैदल चलकर आई हूं
10 रूपए बचाए हैं
अगर छुट्टे दो
तो 2 रूपए दूं...

भिखारी ने आंखो के इशारे से
सामने कथढ़ी पर भिखरे 
तीन सिक्के दिखलाते हुए कहा
और कोई समय होता
तो ये गरीब आपको 100
के भी छुट्टे दे देता
आज सुबह से
बस इतनी ही कमाई है
ब्लैक मनी वालों का तो पता नहीं
हम गरीबों की शामत आई है।

Wednesday, October 5, 2016

विकल्प?

कक्षा दसवीं तक आते-आते "आगे क्या करना है" ये सवाल ज़हन में उठने लगा था। बड़े भाई साहब का कहना था कि NDA की तैयारी कर फौज में जाने की कोशिश की जाए। मैंने परीक्षा तो दी लेकिन सलेक्शन हुआ नही। फौज में तो जा नहीं पाया लेकिन शिक्षक बन गया। इन दिनों देश के पूर्वोतर की एक सेंट्रल यूनिवर्सिटी में पढ़ाता हूं और वो भी इंजीनियरिंग। शिक्षक या गुरू को इस देश में ऊंचा पद दिया जाता है। कभी-कभी तो भगवान से भी ऊंचा  - आखिर ऐसे ही तो कबीर ने नहीं लिखा:
"गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय ;बलिहारी गुरु आपने,गोविंद दियो बताय"

अपेक्षा की जाती है कि एक शिक्षक अपने छात्रों व समाज के लिये आदर्श प्रस्तुत करेगा। शिक्षक का व्यवहार आदर्श होगा। अब कैसा व्यवहार "आदर्श" होगा ये समय और सामजिक ताने-बाने पर निर्भर करता है। लेकिन कम से कम किसी भी समय या समाज में एक शिक्षक या गुरू से यह अपेक्षा तो होगी ही कि वह अपने सांगठनिक या सामजिक ओहदे का इस्तेमाल अपने किसी छात्र  या अनुयायी का शोषण नहीं करेगा।  हमारे आज के समाज में भी यही अपेक्षा है। लेकिन आए-दिन कुछ ना कुछ ऐसा सुनने-पढ़ने-देखने को मिलता है जो कि इस आदर्श के ठीक उलट होता है, फिर चाहे वो कोई सामाजिक गुरू हों या किसी संस्था से जुड़े शिक्षक।

सामाजिक गुरुओं को छोड़ दें तो आज ही सुबह जब मैंने इंटरनेट पर "teacher held for rape" सर्च किया  तो पहली खबर मेरे घरेलू राज्य मध्यप्रदेश की मिली। एक चालिस वर्षीय स्कूली शिक्षक को अपनी तीन नाबालिग छात्राओं के साथ बलात्कार करने के आरोप में पकड़ा गया।

http://www.deccanchronicle.com/nation/crime/041016/madhya-pradesh-teacher-held-for-raping-3-minor-girls.html

उसके बाद की तमाम खबरों में भी पूरे देश भर (शिमला, मेघालय, कलकत्ता, मुंबई) से जुड़ी खबरें थीं जिसमें किसी स्कूली शिक्षक को छात्रों के दैहिक शोषण या उत्पीड़न के आरोप में पकड़ा गया है।  ऐसा हरगिज नहीं है कि ऐसी घटनाएं सिर्फ स्कूलों तक ही सीमित हों। बड़े-बड़े कालेजों-यूनिवर्सिटियों भी में इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं। अपने अनुभव से कहूं तो मैं स्वयं देश के जिस उच्च संसथान में पढ़ा हूं, वहां भी ऐसी घटनाएं होती थीं। वहीं दूसरी ओर ऐसे भी शिक्षक थे जो ऐसे मुद्दों को लेकर जागरूक थे व इनके खिलाफ आवाज़ भी उठाते थे। कुल मिलाकर कह सकता हूं कि समाज में शिक्षक की एक आदर्श परिकल्पना व वैसे आदर्श प्रस्तुत करने वाले शिक्षकों के होने के बावजूद ऐसे भी शिक्षक हैं जो छात्रों का शोषण या उत्पीड़न करते हैं। ऐसे में कल को अगर किसी नाटक या फिल्म में एक शिक्षक को एक छात्रा का बलात्कार करते दिखलाया जाए तो बतौर शिक्षक मुझे या मेरे परिवार वालों और अन्य शिक्षकों या उनके परिवार वालों को क्या करना चाहिए? क्या हमें सड़क पर उतरकर हंगामा करना चाहिये? नाटक या फिल्म को बंद व  डायरेक्टर या कलाकारों को जेल में‌ बंद करवाने की मांग करनी चाहिये? शायद आप हंस रहे हों इन विकल्पों के बारे में सोचकर -शिक्षक व उनके परिवारों का समूह, सड़कों पर, ऐसी मांगों के लिये नारे लगाता हुआ "हमारी मांगे पूरी हों, चाहे जो मज़बूरी हो" वगैरह-वगैरह।  मुझे तो हंसी भी आयेगी और थोड़ा गुस्सा भी, कि आखिर फिल्म या नाटक में समाज की एक हकीकत को ही तो दर्शाया गया है, तो फिर उसे लेकर इतना हंगामा क्यूं? ना जाने शिक्षण-व्यवस्था से जुड़ी कितनी अन्य मांगे हैं, उनके बारे में लोग सड़कों पर क्यूं नहीं उतरते?

खैर, शिक्षकों की ही तरह हर समाज में समाज के रक्षकों, रणबांकुरों या फौजियों को लेकर भी एक आदर्श भावना या सोच होती है। अब यह "आदर्श" कैसे हैं व किससे किसकी "रक्षा" की बात है यह अपने आप में बड़े और गहरे सवाल हैं। इन आदर्शों की गहराई में ना भी जाएं तो भी इनकी सतही झलकियां हमें समाज में दिखती रहती हैं। अभी हाल ही में हरियाणा के सेंट्रल यूनिवर्सिटी में हुए महाश्वेता देवी के लिखे एक कथानक के चित्रण के मामले में भी हमें यही झलकियां दिखलाई दीं। नाटक के किसी एक दृश्य में एक जवान को किसी महिला के साथ बलात्कार करते दिखलाया गया था। लोग व छात्र संगठन सड़कों पर उतर आये। नाटक से जुड़े यूनिवर्सिटी के शिक्षकों व छात्रों के खिलाफ देश-विरोधी मामलों में केस चलाने की मांग होने लगी। खतरा है कि शिक्षकों के खिलाफ सख्त कार्यवाही हो।

कथानक के इस द्रश्य के बारे में पढ़ते ही मेरे दिमाग में जो पहली तस्वीर उभरी वो थी मणिपुर की उन महिलाओं की जो बिना कपड़ों के अपने हाथ में बड़ा सा बैनर लिये विरोध प्रदर्शन कर रही थीं। बैनर पर अंग्रेजी में लिखा हुआ था "भारतीय फौज हमारा बलात्कार करो"। ये महिलाएं थेंगजम मनोरमा के "तथाकथित" बलात्कार व हत्या के बाद विरोध प्रदर्शन कर रही थीं। तथाकथित इसलिये क्यूंकि आज तक यह सिद्ध नही हो पाया है कि मनोरमा के साथ बलात्कार हुआ भी था और अगर हुआ तो किसने किया। हालांकि जिस हालत में उसका बेजान शरीर मिला था उसे देखकर उन महिलाओं में से एक ज्ञानेश्वरी कहती हैं "मैं मनोरमा को नही जानती थी, लेकिन एक लड़की के साथ ऐसा कुछ भयानक किया जा सकता है, देखकर मैं चौंक गई। इतनी भीषण कुर्रता कि मेरा दिल लहूलुहान हो गया। ऐसा लगा कि गिद्धों ने उसका शिकार किया हो।" मनोरमा को एक रात असम राइफेल्स के जवानों द्वारा घर से यह कह कर उठा लिया गया था कि वह एक उग्रवादी संगठन की सद्स्य है। चंद घंटों बाद मिले उसके शरीर के गुप्तांग में 16 गोलियां मारे जाने के घाव थे।

http://www.outlookindia.com/website/story/indian-army-rape-us/296634

मनोरमा और निर्भया के साथ जो घटा, वो कई मायनों में शायद एक जैसा ही था। लेकिन इन दोनों मामलों में देश की अधिकतर जनता व तंत्र की प्रतिक्रिया एकदम अलग-अलग। क्या इसका एक कारण एक मामले के तथाकथित आरोपियों का फौजी होना है?

http://ohrh.law.ox.ac.uk/right-to-justice-deprived-by-state-case-of-manorama-vs-afspa-from-manipur-india/
मणिपुर देश के उन हिस्सों में से एक है जहां आज भी AFSPA लागू है जिसके तहत फौज को विशेषाधिकार मिले हुए हैं।

हाल ही के समय के सबसे सम्मानित जजों में से एक जस्टिस वर्मा 2013 में गृह-मंत्रालय को सौंपी अपने आयोग की रपट में देश के ऐसे हिस्सों से आने वाली महिलाओं के साथ हुई बातचीत के आधार पर लिखते हैं कि  "शुरुआत में हमें यह दिखता है कि देश के उस बड़े हिस्से में‌ जहां AFPSA लागू है वहां आंतरिक सुरक्षा कर्तव्यों की  प्रक्रिया की आड़ में व्यवस्थागत या छुटपुट यौन हिंसा के मामलों को वैधता दी जा रही है"। निर्भया मामले के बाद महिलाओं के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न के  मामलों से जुड़े कानूनों में सुधार सुझाने के लिये बने इस तीन सदस्यी आयोग ने एक महिने के भीतर ही अपनी रपट सरकार को सौंप दी थी।

http://www.thehindu.com/news/national/dont-allow-armymen-to-take-cover-under-afspa-says-verma/article4337125.ece

मैंने महाश्वेता देवी को बहुत नहीं पढ़ा है लेकिन इतना जानता हूं कि उनकी कलम जनमानस के साथ होने वाले अन्याय के खिलाफ बखूबी चली है। तो क्या महाश्वेता देवी ने जो अपने कथानक में लिखा वो समाज की एक सच्चाई को बयां नहीं करता? क्या जस्टिस वर्मा जैसे काबिल व्यक्ति बिना किसी आधार के अपनी रपट में इतनी बड़ी बात लिखेंगे? मैं तो नहीं मानता। मैं मानता हूं कि शिक्षकों की ही तरह फौज में भी कुछ ऐसे भी व्यक्ति होंगे जो अपने विशेषाधिकारों का गलत इस्तेमाल करते होंगे या हैं। तो क्या ऐसे लोगों को आम कानूनों के दायरे में सिर्फ इसलिये नहीं आना चाहिये क्यूंकि वो फौजी हैं? मुझे तो नहीं लगता। अगर महाश्वेता देवी के कथानक को आधार बनाकर कोई हमारे समाज के इस पहलू को ऊजागर कर रहा है तो क्या हम उन लोगों को सजा देने की बात करेंगे या फिर अपनी व्यवस्था को दुरुस्त करने की।

विकल्प हमारे सामने हैं - आने वाला समाज इसी बात पर निर्भर करेगा कि सामूहिक तौर पर हम क्या विकल्प चुनते हैं।

Thursday, September 22, 2016

जिंदा?

कुछ को नींद में मार दिया गया,
कुछ को उनके घरों से उजाड़ कर...

कुछ देशों की लड़ाई में मर गये
कुछ जाति-धर्म की...

कुछ ऐसे ही मर गये
और कुछ तो मरे ही हुए हैं...

ना जाने हम ऐसा क्या कर रहे हैं
या नहीं कर रहे हैं
जो अभी तक जिंदा है
जाने कब तक...

लेकिन
क्या हम सच में जिंदा हैं?

Sunday, September 4, 2016

जीओ मेरे लाल

जीओ मेरे लाल
क्या किया है कमाल

पहले तो नीचे से
चुराया हमारा माल
बेचा हमें ही
हज़ारों करोड़ों में
हो गए मालामाल

अब उसी मुनाफे की
छोटी फ्री मीठी गोली बना
हमें ही बहला रहे हो
बढ़ रहे हैं
तुम्हारी तिजोरी में जीरो
और तुम देश को
आगे बढ़ता बता रहे हो

और
एक हम हैं कि
तुम्हारी फ्री की गोली और
देश की बातों पर
हुए जाते हैं निहाल

जीओ मेरे लाल
क्या किया है कमाल
बढ़िया है तुम्हारा बिजनेस माडल
तुम्हारे सामने तो अदना सा लगता है
नटवरलाल ...

Monday, June 27, 2016

खाली शाम

ब्रहमपुत्र, गणेश घाट, तेजपुर , असम
बाढ़ का पानी
पानी में‌ बहता हुआ
एक लाल रंग का बस्ता...

जाने किसका है?
शायद किसी बच्चे का हो
जिसने तैयार कर उसे
रात रखा हो सिराहने
और सुबह तक
नदी का पानी
इतना चढ़ आया हो
कि बस्ता बह गया
और वो बच्चा ...

नहीं-नहीं
ये ख्याल अच्छा नहीं
बाढ़ तो हर साल आती है
उस बच्चे की मां भी यह जानती होगी
ले गई होगी अपने बच्चों को वो
किसी सुरक्षित जगह
हमेशा की तरह
इस बार भी
बस बस्ता ले जाना भूल गई
शायद और भी बहुत कुछ छूट गया होगा

नदी के तेज पानी के साथ
ख्याल भी बह चले
तैर सकता तो
लाकर देखता
उस बस्ते के अंदर क्या है?
कुछ भीगी कापी-किताबें
एक सीली से पेंसिल शायद
या कहो
खाली ही होता
बस्ता
इस खाली शाम की तरह
 

योगा कर

योगा कर
भोगा कर
खुश रह
तेरे आका भी
खुश रहेंगे
बने रहेंगे ...

पर मेरे यार
भौंका मत कर
तेरे भौंकने से
आकाओं को डर लगता है
कि कहीं तू उनकी
हड्डियां ना चबा दे ...

इसीलिये तो, मेरे यार
योगा कर
भोगा कर
खुश रह
और
भूल जा
भौंकना ...

Wednesday, June 8, 2016

पुल का इंतजार

पुल इंतजार करता रहा
नदी नही आई

लेकिन अब उसका इंतजार
मिट गया है
आ गए हैं
नदी को पाटकर
पूर्ण विकसित आवासीय प्लाट

Tuesday, June 7, 2016

नंग-धड़ंग असभ्य

शहर के पार्क में
एक बच्चा खड़ा है
नंगा
पिछले कई दशकों से ...

पर सुना है
अब सभ्यतावादी उसे भी
सभ्य बनाना चाहते हैं
कपड़ा पहनाना चाहते हैं ...

उनके विकासवादी दोस्तों ने
ठेके भी दे दिये हैं
एक तो नई मूर्ति बनाने का
दूसरा पुरानी मूर्ति निकालने का
और तीसरा नई मूर्ति लगाने का ...

दोनों ही खुश हैं
हां, ये बात और है कि
पार्क में कच्ची मड़ई डालकर
रहने वाले पूरना के बच्चे
अब भी नंग-धड़ंग
असभ्य बने घूमते हैं ...

Saturday, May 14, 2016

और एक साल शेष हो गया

मूंछ का एक बाल सफेद हो गया
और एक साल शेष हो गया
बदल गया बहुत कुछ
बहुत कुछ नहीं बदला
करूं क्या हिसाब
क्या अगला क्या पिछला
या चक्कर है सब कुछ
क्या गोलमाल है
ये ज़िन्दगी है क्या
बड़ा सवाल है
या फिर इतना छोटा
जितनी छोटी
मेरे पड़ोस की वो बच्ची
जो जब हंसती है, खिलखिलाती है
तो अच्छा लगता है
जब रोती है,चिल्लाती है
तो खराब।

Thursday, April 28, 2016

अंग्रेजी में डब्बा गुल मेरा . . .

एक फिल्म आई है इन दिनों - निल बटे सन्नाटा। देखी तो नहीं अभी तक पर मन बड़ा है। ट्रेलर देखकर लग रहा है कि फिल्म मजेदार होगी। साथ ही इसकी कहानी हमारे सामाजिक संबंधों व उससे उपजी विषमताओं को उजागर करती प्रतीत होती है। देखते हैं कब मौका मिलता है। 

वैसे इस फिल्म का एक गाना भी काफी हिट हो रहा है - 'Maths में डब्बा गुल मेरा'। सुना है स्कूलों में बच्चे काफी गुनगुना रहे हैं इसे आजकल और कई बड़े अपना बचपना याद कर रहे हैं इसके बहाने। मैं भी उनमें से एक हूं। पर स्कूल में मेरा डब्बा Maths यानी कि गणित में नहीं बल्कि English माने कि अंग्रेजी में गुल था। और ये एहसास हुआ भी तब जब करवाया गया। हमारे अपने मोहल्ले-पड़ोस या घर में अंग्रेजी का कोई माहौल ना था और ना ही जरूरत। हालांकि मोहल्ले के एक-आध बच्चे इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ा करते थे, लेकिन अधिकतर तो कालरी के ही हिंदी मीडियम स्कूल में पढ़ते थे, जिसमें छोटी और बड़ी एबीसीडी कक्षा 5 से पढ़ाई जाती थी। मैं और मेरी छोटी बहन भी उन बच्चों में से ही थे।

नौरोजाबाद नाम के उस छोटे से कस्बे में रहने वाले कोयले की खदान में काम करने वाले कामगारों के बच्चों के अलावा आसपास के गांवों के भी कई बच्चे उस स्कूल में आया करते थे। उन गांवों से आने वाले अधिकतर बच्चों को मास्साब और बहन जी (हां हम अपने शिक्षकों को ऐसे ही पुकारते थे) कमजोर कहते थे। आज सोचता हूं तो लगता है कि अच्छा ही तो था कि अंग्रेजी की अक्षरमाला देर से पढ़ाई जाती थी क्यूंकि उन बच्चों के लिये तो स्कूली हिंदी ही इतनी अजनबी थी कि अगर पढ़ाई अंग्रेजी में होती जाने क्या हाल होता उनका। लेकिन उस स्कूल के मुताबिक मैं पढ़ाई में ठीक-ठाक था।

मेरे चचेरे-भाई वगैरह इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ा करते थे तो परिवार के अन्य लोगों का मेरे मां-पिता जी पर दबाव सा रहता कि वो हम लोगों को भी इंग्लिश मीडियम स्कूल में डालें। जब मैं कक्षा सात ठीक-ठाक नंबरों से पास हो गया तो दबाव बढ़ सा गया। वैसे भी मेरा स्कूल आठवीं तक ही था सो आज नहीं तो कल ये सवाल तो उठना ही था कि आगे कहां पढ़ेगें। मेरे चचेरे बड़े भाई एक दिन इंग्लिश मीडियम स्कूल का फार्म लेकर आ गये। अब फार्म भी अंग्रेजी में ही था सो उन्होंने ही भरा। पिता जी से हस्ताक्षर वगैरह लिये और कहते हुए निकल गये कि वो फार्म स्कूल में जमा कर देंगे और मैं दाखिले के लिये होने वाले टेस्ट की तैयारी शुरु कर दूं। 

याद नहीं मैंने कुछ तैयारी-वैयारी की या नहीं लेकिन कुछ दिनों बाद हमारे भाई साहब फिर आ धमके, इस दफे उनके साथ उनके स्कूल के अंग्रेजी के शिक्षक भी दे। मुझे उनके सामने खड़ा कर दिया गया। उन्होंने वहीं टेस्ट लेना शुरु कर दिया। तमाम सवाल पूछे, अंग्रेजी में, मैं चुप। आखिर में उन्होंने थकहार कर उनके मुताबिक एक सरल अंग्रेजी शब्द के हिज्जे पूछे। शब्द था Bamboo (बैंबू) - और उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ कि मुझे, छठीं क्लास में फस्ट आये एक बच्चे को इतने सरल शब्द के हिज्जे भी नहीं पता। अपना सर हिलाते हुए बिना चाय पिए ही वो ये कह कर गये कि इनका यानी कि मेरा कुछ नहीं होने वाला। 

हमारे बड़े भाई काफी शर्मिंदा हुए, शायद उन्हें लगा हो कि मैंने उनके शिक्षक के सामने उनकी नाक कटा दी। पिताजी अलग से नाराज। खैर, दाखिला के लिये होने वाले टेस्ट का दिन भी आ ही गया। मैं घबराया हुआ था। मां ने दही-शक्कर खिलाकर माथे पर तिलक लगा घर से विदा किया, मानों किसी युद्ध में भाग लेने जा रहे हों। पिता जी साईकिल पर बैठाकर स्कूल लेकर गये। एक सीमा के बाद पिताजी पीछे ही रह गये और मुझे दूसरे बच्चों के साथ उस कमरे में ले जाया गया जहां टेस्ट होना था। मेरे स्कूल में कक्षा 7 तक के बच्चे नीचे ज़मीन पर टाट -पट्टी बिछाकर आलथी-पालथी मारकर बैठा करते थे, पर यहां तो बैंच पर बैठकर टेस्ट देना था। टेस्ट शुरु हुआ और जाने कब खत्म भी हो गया। अंग्रेजी के सवाल छोड़ ही दीजिये, जो विषय मुझे सबसे अच्छा लगता था, गणित, घबराहट में मैं उसके सवाल भी हल नहीं कर पाया था। 

जिसकी आशंका थी वही हुआ, मेरा सिलेक्शन नहीं हुआ। आठवीं कक्षा मुझे अपने पुराने स्कूल में कुछ शिक्षकों से यह सुनते हुए पढ़नी पढ़ी कि 'ये तो अंधों में काना राजा है'। लेकिन जब आठवीं भी ठीक-ठाक निकल गई तो वही कोशिश दोबारा शुरु हुई। इस बार पिता जी ने ठान लिया था कि 'कुछ ना कुछ करके' दाखिला करवा ही देंगे। और दाखिला हो ही गया।

नया स्कूल, नई ड्रेस, नये चेहरे और नया घर। नया घर इसलिये कि इंग्लिश मीडियम स्कूल में दाखिला मिलने के साथ ही घर पर लोगों को यह मेहसूस हुआ कि अब पढ़ाई अंग्रेजी में होगी तो जरूरत होगी कि ट्यूशन लगवा दी जाये। घर पर तो किसी के भी अंग्रेजी में‌ पढ़ाना मुमकिन नहीं। फिर यह भी समझ आया कि जिस जगह पर मैं रहता हूं, वहां ऐसा कोई टीचर ही नही था। सो मैं अनमने अपना बोरिया-बिस्तर बांधकर अपनी बुआ जी के यहां शिफ्ट हो गया। तय हुआ कि मैं वहीं से बस से स्कूल आ जाया करूंगा जो ठीक मेरे अपने घर और बुआ जी के घर के बीचो-बीच पड़ने वाली एक जगह पर था। 

एक शिक्षक भी ढ़ूंढ लिये गये। उन्हें कम सुनाई देता था और वो थोड़ा तुतलाते भी थे। अच्छा ये था कि वो सभी 'जरूरी' विषय पढ़ा सकते थे - अंग्रेजी, विज्ञान व गणित।  यही वो तीन विषय थे जो अंग्रेजी में पढ़ाये जाते थे बाकी बचे हिंदी, संस्क्र्त और सामाजिक अध्ययन।  इन छ: विषयों में से दो ऐसे थे जिनमें मेरा डब्बा गुल रहता था - अंग्रेजी और विज्ञान। मेरी अंग्रेजी भाषाज्ञान का उदाहरण तो आप देख ही चुके हैं जिसके चलते अंग्रेजी में‌ पढ़ाया जाने वाला विज्ञान भी मेरे एकदम पल्ले नहीं पड़ता था। कक्षा में शिक्षक जाने क्या अंग्रेजी में बोलकर निकल जाते और मैं अपनी किताब में उकरे अक्षर ही निहारता रहता। हर महिने होने वाले यूनिट टेस्ट की जब कापिया बांटी जातीं तो इन विषयों में कभी ज़ीरो या कभी एक-आधा नंबर पा कर कुछ अन्य छात्रों के साथ मैं भी खड़ा होता - सर झुकाये, शर्मिंदा।  बस एक विषय था - गणित, जिसकी कक्षा में आस बंधती कि नहीं मैं खाली डिब्बा नहीं हूं। जो मैडम हमें गणित पढ़ाया करती थीं वो काफी मेहनत करतीं और मैं भी। 

मुझे सुबह जल्दी उठकर पढ़ने की आदत थी। हर रोज सोचकर उठता कि आज अंग्रेजी या विज्ञान पढ़ूंगा लेकिन हर रोज बस अपने आप को गणित के प्रश्न हल करते हुए पाता। मेरी शिक्षिका भी मुझे प्रोत्साहन देती। गणित में‌ मेहनत के नतीजे यूनिट टेस्ट में भी दिखाई देते। पर अंग्रेजी और विज्ञान में जो हालत थी तो उसके चलते बड़ी मुश्किल से रट्टा मार-मारकर अर्ध-वार्षिक और वार्षिक परिक्षाएं पास की। विज्ञान की एक परिभाषा जो मेरे ट्यूशन वाले तोतरे सर ने मुझे हिज्जों समेत रटवाई थी, वो आज भी याद है "Spontaneous emission of radiation through heavy metal nucleus is called radioactivity"। बाप रे, इतनी heavy परिभाषा जिसका मुझे ना सिर पता था ना पैर, बस इतना पता था कि अगर परीक्षा में सवाल आये कि - व्हाट इज़ रेडियोएक्टिविटी - तो याद किया हुआ यही जवाब जस का तस लिखना है। बिना समझे रट्टा मारकर परिक्षाएं पास करने की आदत कालेज जाने के बाद भी कई दिनों‌ तक छूटी नहीं।    

खैर वापिस आते हैं अंग्रेजी पर जिस पर हमारा कोई जोर ना था और ना ही हम कोशिश ही कर रहे थे। जब दसवीं में गये तो थोड़ा बेशर्म हो गये। English की हमारी एक नई शिक्षिका आईं। कई दिनों तक तो हमने उन्हें अपनी शक्ल ही नही दिखाई। उनकी क्लास के समय 11वीं के बच्चों का खेल का पीरियड होता था। मेरे कई दोस्त थे उस क्लास में तो मैं उनके साथ क्रिकेट खेलता रहता अंग्रेजी की कक्षा बंक मार के। कई दिनों बाद जब पहली बार अंग्रेजी की क्लास में बैठे तो उस दिन मैडम जी ही नहीं आईं। मालूम हुआ कि चलते हुए उनकी हाई हील की चप्पल टूट गई और उनके पैर में मोच आ गई। और कुछ भी जानने को मिला उस दिन नई शिक्षिका के बारे में कि वो हर रोज अलग साड़ी और चप्पल पहन कर आती हैं। बाद में कभी किसी कारण से अपने एक मित्र के साथ उनके घर जाने का मौका मिला तो सच में उनके घर चप्पलों की भरमार देखकर मैं दंग रह गया था।

दसवीं बोर्ड थी। जिन्होंने ये परिक्षाएं दी हैं वो ही समझ सकते हैं कि कितना दबाव और डर होता है इन परिक्षाओं के चलते। हमारे स्कूल में ये डर और भी बढ़ जाता क्यूंकि 11वीं में आगे गणित की पढ़ाई के लिये ये जरूरी था कि विज्ञान और गणित के कुल अंक 130 से ज्यादा हों। अगर पास होने की स्थिति में इतने अंक नहीं आये तो आगे बायो लेकर पढ़िये या फिर नया स्कूल तलाशिये। और कोई विकल्प नहीं। अंग्रेजी के मामले में तो हम हाथ खड़े कर ही चुके थे, विज्ञान रटते रहते पर मन लगाकर गणित करते।  बोर्ड परीक्षा के नतीजों को देखकर कोई हैरानी नही हुई , अंग्रेजी - 40/100, विज्ञान - 52/100 व गणित - 80/100 - और कुल मिलाकर 59.6 प्रतिशत।

मुझे तो गणित ने बचा लिया लेकिन पुरानी कक्षा के लगभग दो-तिहाई बच्चे नई कक्षा में‌ नहीं‌ पहुंच पाए। उनमें से कई मेरे बहुत अच्छे दोस्त भी थे। सच कहूं तो मेरे ज्यादातर दोस्त उन्हीं में थे। बाद में कभी-कभार ही उनसे मुलाकात हो पाती। कुछ दूर से ही चिठ्ठियां लिखकर भेजते, उस जमाने में ना तो मोबाईल थे, ना कम्प्यूटर और ना ही ईमेल। 

आज तकरीबन 20 साल हो गये इस बात को। स्कूल छूटने के बाद भी पढ़ता ही रहा मैं - इंजीनियरिंग, मास्टर्स और फिर पीएचडी भी की।  इन सबके बीच कहीं ये एहसास लगातार था कि अगर दसवीं में गणित ने ना बचाया होता तो जाने क्या होता। साथ ही यह भी एहसास था कि मैं अगर आगे पढ़ पाया तो तमाम लोगों के अलावा उन शिक्षिका का भी बहुत बड़ा योगदान है।  मन करता था उनसे जाकर मिलूं और एक दिन मैं पहुंच भी गया उनसे मिलने - केरल। ना मुझे यकीन हो रहा था कि मैं उनसे मिलने पहुंचा और ना उन्हें। वैसे वो तो मुझे पहचान भी काफी देर से पाईं। मुझे और मेरे साथ गये दोस्तों को बस अड्डे तक छोड़ते जाते वक्त उनकी आंखें भरी हुई थीं और मेरी भी। 

उस स्कूल के एक और भी शिक्षक थे जिनसे मिलने का मन है - गुरु जी। वो हमें हिंदी पढ़ाया करते। पढ़ाने का उनका अंदाज निराला था और साथ ही सजा देने का भी।  कक्षा में जब वो हमारी कापियां चेक करते तो एक-एक करके हमें उनकी टेबल तक जाना होता था। अक्सर ही वो छात्रों को लेख सुधारने की हिदायत देते - कक्षा की लड़कियों तो ये हिदायत सिर्फ मुंह जबानी ही दी जाती लेकिन लड़कों के लिये उनके पास एक और भी तरीका था। हमें अपनी कुर्सी के पास बुलाकर वो हमारी कोहनी के ऊपर अंदर की तरफ की चमड़ी पकड़ लेते और फिर बड़ी धीमी शुरुआत करते चमड़ी को भीचते हुए ये सवाल करते जाते कि 'बताओ कब तक लेख सुधारोगे?'। जब तक आंखों से पानी या मुंह से चीख ना निकले ये क्रम चलता रहता। अपनी दो बातों के लिये वो हमेशा मुझे याद रहते हैं - पहली तो एक दफे उन्होंने जमकर मेरी कुटाई की थी और दूसरी बात ये कि वो हमेशा स्वयं का कुछ लिखने के लिये प्रोत्साहित करते। अक्सर ही वो हमें कहानी, कवितायें वगैरह लिखकर लाने के assignments देते। शायद इसी के चलते ही मुझे लिखने की आदत लगी। 

इफ्तेकार

अप्रैल 2016, सूखे की मार झेल रहे मध्य भारत के एक विशाल प्रांत का एक बड़ा शहर। इस बड़े शहर के एक पुराने रिहायशी इलाके में बना एक बड़ा कारपोरेट अस्पताल। इस अस्पताल के गेट के ठीक बगल में एक छोटी कबाड़ सी वर्कशाप। इस वर्कशाप में सड़क की तरफ पीठ कर ज़मीन पर ऊखरू बैठ काम कर रहा छोटी कद-काठी का एक साठ वर्षीय बुजुर्ग - इफ्तेकार उर्फ बब्बू। 

पहले तो लगा कि वर्कशाप उन्हीं की है, लेकिन फिर पता चला कि किसी पटेल की है। इफ्तेकार तो सिर्फ वहां दिहाड़ी पर काम करते हैं‌ पिछले दसियों सालों से और वो भी अकेले। लोहे के टेबल, स्टैंड, गेट वगैरह बनाने/बेचने के इस वर्कशाप में होने वाले सभी काम ये शख्स अकेला ही करता है; नापना, काटना, जोड़ना, रंग करना, सामान उठाना-रखना सब कुछ अकेले ही, बिना रूके, लगातार अपने आप से बातें करते हुए। उन्हें काम करते देख बार-बार एहसास होता है कि उस्तादी इसी को कहते हैं। बमुश्किल दो मिनट की बातचीत में ही उस्ताद बब्बू अपनी आखिरी इच्छा ज़ाहिर कर देते हैं कि वो मर जाना चाहते हैं बस एक बार बेटी की शादी में लिया कर्ज उतर जाये। आज उनके पेट में दर्द है, लेकिन काम तो करना है वरना पटेल गाली देगा।

रोजाना दस-बारह किलोमीटर साईकिल चलाकर काम पर आने वाले इफ्तेकार 11 बजे वर्कशाप खोलते हैं, रात 8 बजे तक लगातार काम करते हैं - बिना कुछ खाये, और फिर उतनी ही दूरी साईकिल चलाकर घर पहुंचते हैं। सुबह का खाना घर से खाकर आते हैं और फिर दिनभर काम के दौरान कुछ भी नहीं खाते। कारण पूछने पर बतलाते हैं‌ कि यहां आसपास कोई टायलेट की व्यवस्था नहीं। हां, बड़े अस्पताल का एक आसरा है कि अप्रैल के महिने में ही हो रही 45 डिग्री की तपिश में‌ पीने के लिये ठंडा पानी मिल जाता है। वैसे ठीक उनकी वर्कशाप के सामने सत्तारूढ़ दल की एक नेता का जनसंपर्क कार्यालय है। लेकिन इफ्तेकार भाई की हालत देखकर तो लगता नहीं कि उन मोहतरमा ने कभी उनसे संपर्क साधने की ज़हमत उठाई होगी।

दिनभर की कड़ी मेहनत के इफ्तेकार भाई को मिलते हैं 300 रुपये। पूछने पर पता चला कि काम लगातार आता रहता है और वो औसतन एक दिन में 1500-2000 रुपये की कीमत का सामान बना देते हैं जिसमें इस कीमत की लगभग एक-तिहाई का साजो-सामान लग जाता है। इस हिसाब से देखें तो इफ्तेकार भाई पटेल को कारखाने के रोजाना दो चक्कर मारने भर के लगभग 700-1000 रुपये कमाकर देते हैं, हिसाब दुरूस्त।  कमाल के उस्ताद हैं इफ्तेकार भाई, अपने श्रम से सामान बनाकर ना केवल अपनी दिहाड़ी निकाली बल्कि बनाने के लिये जरूरी साजो-सामान की कीमत भी और अपने मालिक के लिये मुनाफा।  

अगर अपनी गाढ़ी मेहनत के बाकी रुपये भी इफ्तेकार भाई की जेब में‌ जाते तो शायद वो अपना कर्ज तेजी से उतार पाते। खैर अभी की परिस्थितियों में तो ये बात ही सपना ही लगती है कि मुनाफा उसका जिसकी मेहनत तो फिर उस समाज की कल्पना और भी मुश्किल है जिसमें काम 'मुनाफे' के लिये ना हो।

जाने कब तक इस उस्ताद को अपनी इच्छा पूरी होने तक दिहाड़ी पर काम करना पड़े।

वैसे इफ्तेकार भाई के पास कम से कम दो जून रोटी का आसरा तो है वरना इस बड़े शहर में कुछ लोग तो भूख से ही मरे जा रहे हैं। मुझे आश्चर्य हुआ ये सुनकर जब अस्पताल के रिसेप्शन पर रविन्द्र घोरे ने मुझे उनके घर के पास ही की एक मां और उसकी बेटी के बारे में बतलाया, जिनकी लाश कई दिनों के बाद उनके घर से मिली थी। रविन्द्र कहते हैं कि काश उन्हें उन दोनों की स्थिति के बारे में‌ कुछ पता चल जाता तो जितना भी बन पड़ता वो मदद करने की कोशिश करते। लेकिन अफसोस कि लोक-लाज के चलते उन मां-बेटी ने ये बात किसी को नहीं‌ बतलाई कि उनके घर खाने को कुछ नहीं।

रविन्द्र भाई से बातचीत अचानक ही शुरु हुई। मैं रिसेप्शन डेस्क के सामने लगी कुर्सियों पर बैठा हुआ था और रविन्द्र सामने किसी बीमारी के ईलाज में होने वाले खर्च का अंदाज़ा लेने आये थे। एक हाथ में हेलमेट और दूसरे में एक छोटा पर भारी-सा बैग लटकाये रविन्द्र को देखकर लगा कि वो अपने काम के बीच में ये सब पता करने आये हैं। जैसे ही वो मुड़कर चलने को हुए कि सामने से आ रहे अस्पताल के ही एक डाक्टर ने अपना हेलमेट उतारते हुए उनसे पूछा कि कहीं हेलमेट पहनने से उनका चश्मा टेढ़ा तो नहीं हो रहा। ध्यान नहीं कि इस बात का रविन्द्र ने कुछ जवाब दिया या नहीं। लेकिन डाक्टर की इस बात पर कि हेलमेट की वजह से उनका साढ़े आठ हजार रुपये का चश्मा खराब हो रहा है रविन्द्र जरूर बुदबुदाये थे कि "कहां तो हमारे जैसे लोग साढ़े आठ-नौ हजार में महिना चलाते हैं, परिवार पालते हैं और एक ये हैं; इतना भेद तो नहीं होना चाहिये देश में"। बात सही लगी मुझे तो मैं उनके पीछे हो लिया।

सच ही तो कह रहे थे रविन्द्र भाई कि इस देश में कितनी विषमता है। जहां एक ओर हजारों-करोड़ों का बैंकों का कर्ज डूबाकर बड़े-बड़े पूंजीपति ऐशो-आराम से जी रहे हैं,  वहीं इफ्तेकार जैसे मेहनतकश अपना एक-आध लाख रूपये का कर्ज उतारने के लिये दिनभर खटते हुए गुजारे लायक एक जिंदगी काट रहे हैं।


Thursday, April 7, 2016

तकनीक

एक कहावत बचपन से ही सुनी है कि "जेब में नहीं है धेला और भरने चले हैं थैला!"। लेकिन पिछले साल मुंबई नगरिया में जो हमारे साथ हुआ उसके बाद इस कहावत को कुछ बदलकर ऐसा लिखने का मन कर रहा है कि "जेब में‌ लेकर गये थे धेला, फिर भी खाली लाए थैला!"

अब हुआ यूं कि हम कसबट्टू पहुंचे महानगरी मुंबई। शिक्षा में कंप्यूटर और उससे जुड़ी तकनीक के इस्तेमाल पर कुछ दिनों का एक आयोजन था। हम भी गये थे शिरकत करने।  कार्यक्रम की आखिरी शाम हमारे मित्र हिमांशु ने कहा कि भाई इतनी दूर से आये हो, भाभी जी के लिये कुछ मिठाई-विठाई ले जाओ। एक दुकान है यहां चेम्बूर में। वर्ल्ड फेमस है मैसूर-पाक उनके यहां की। ले जाओ भाभी के लिये, उन्हें भी अच्छा लगेगा। हमें ख्याल आया कि हमारी श्रीमति जी को मिठाई पसंद भी है तो आईडिया बुरा नहीं। और चल दिये हम दोनों मुंबई की वर्ल्ड फेमस मिठाई लेने।

शाम का वक्त। खचाखच भरा मार्केट। पैदल अपनी राह बनाते हम पहुंचे मिठाई की दुकान पर। अपने कसबे के पंचू हलवाई से लगभग चार गुना बड़ी दुकान थी। ग्लास का बड़ा भारी दरवाजा - अलग-अलग शेल्फ में रखी तरह-तरह की रंगीन मिठाईयां बाहर से ही दर्शनीय थीं। हम दरवाजा धकेलते हुए अंदर घुसे। सामने काऊंटर पर तीन लोग थे। हिमांशु ने उनसे पूछा मैसूर-पाक के होने के बारे में और पता चला कि एक खेप बस अभी-अभी तैयार होकर शेल्फ पर लगी है। हिमांशु का तो पता नहीं लेकिन हमारे मुंह में पानी आ रहा था। लगा कि बस जल्दी से आर्डर करें और खाएं। हमने कहा भी यही कि जल्दी से आधा-आधा किलो के दो पैकेट तैयार कर दीजिये। लेकिन काऊंटर पर खड़े लोग अपनी जगह से हिले नहीं। हमें आश्चर्य हुआ तो हमने पूछा कि क्या हुआ भईया? तो उनमें से एक ने कहा कि बिजली नहीं है। पहले तो हमें हमारे सवाल व उनके जवाब के बीच कोई कनेक्शन ही समझ नहीं आया। आखिर मिठाई सामने तैयार थी, बेचने वाले काऊंटर पर थे, खरीददार भी दुकान पर थे और उनकी जेब में पैसे भी थे फिर ये कम्बख्त बिजली बीच में‌ कहां से आ गई या फिर ये कहें कि कहां चली गई।

फिर बात समझ में आई कि बिजली नहीं है तो काऊंटर पर खड़े लोग मिठाई तौल नहीं सकते क्यूंकि उनका तराजू इलेक्ट्रानिक था जोकि बिजली से चलता है। वहीं बिल बनाने के लिये एकमात्र हथियार कंप्यूटर भी बिजली के अभाव में बंद पड़ा हुआ था। अब बिल नहीं निकलेगा तो मालिक को कैसे पता चलेगा कि कितना माल बिका। कुल-मिलाकर उनकी मजबूरी और अपनी परिस्थिति पर थोड़ा गुस्सा भी आया और तरस भी।

सोचा कि थोड़ी देर बाज़ार घूमकर दोबारा आकर देख जाएंगे। कुछ देर यूं ही भटकते हुए जब दुकान पर पहुंचे, बिजली आ चुकी थी, लेकिन समस्या नये अवतार में सामने खड़ी हुई थी। इस दफे काऊंटर के तीनों साथी कंप्यूटर के साथ उलझे हुए थे। मानीटर पर झुके हुए वो उस खाली स्क्रीन पर जाने क्या खोज रहे थे। पता चला कि जिस वक्त बिजली गई तब कंप्यूटर अचानक से बंद हुआ और बिजली के आने के बाद कंप्यूटर महोदय चलने का नाम ही नहीं ले रहे थे। मैंने सोचा कि इस दफे फिर खाली हाथ लौटना पड़ेगा। लेकिन हिमांशु ने कुछ जुगत लगाकर कम्प्यूटर स्टार्ट कर दिया। हम लोगों ने राहत की सांस ली और मिठाई लेकर बाहर आ गये। मिठाई सच में बहुत बढ़िया थी।

रात में बिस्तर पर लेटे-लेटे एक और ख्याल था दिमाग में कि जब मुंबई जैसे बड़े शहर में बिजली के अभाव में काम रूक जाता है तो दूर-दराज के गांव के स्कूलों में कंप्यूटर और उससे जुड़ी तकनीक का इस्तेमाल कर शिक्षा कैसे दी जा सकेगी?

अभी हाल ही में जब आधार कार्ड के मार्फत बायोमेट्रिक जानकारी लेकर "सही" लोगों की पहचान कर राशन बांटने वाली एक दुकान की मशीन को गुस्साये लोगों ने इसलिये तोड़ दिया क्यूंकि वो मशीन उन्हें "सही-सही" नही पहचान रही थी तो ऐसे सवाल अलग रूप में‌ ही सामने आते हैं कि आखिर ये तकनीक किसके लिये है? जो बात समझ आती है वो ये कि उन मेहनतकशों के लिये तो नहीं जो जिनके हाथों-उंगलियों के निशान मिट चुके हैं। लेकिन क्यूं - क्या ये तकनीक का दोष है या व्यवस्था का?

Saturday, March 26, 2016

एक सलाह

ऐ सांप!
मेरी एक बात मानोगे?
तुम इंसानी शहरों में ना आया करो।
ये इंसान बड़ी सभ्य प्रजाति है
और
जो उनकी नज़र में सभ्य नही है
वे उन्हें सभ्य बनाने में लगे हुए हैं...

गर तुम्हें भी सभ्य बन जाने के स्वप्न मात्र से ही
डर लगता हो
तो
मेरी बात मान लो
और
किसी सचमुच के जंगल में
किसी पुराने दरख्त के
किसी कोटर का
रुख कर लो,
ऐसे जंगल की ओर
जो सभ्यता से कहीं दूर हों...

वरना यहां के दरख्त तो कबके सभ्य हो चुके
संवरे से ड्राईंगरूम्स् में सभ्य
बने सजे हुए हैं।

एक बिल्ली भीगी-भागी सी

बिल्ली भीगी
बिल्ली भागी
भीगी-भीगी
भागी-भागी
पेड़ पर चढ़ गई,
और लगी गुर्राने,
मैंने अपनी गलती मानी
पहुंचा उसे मनाने
कान पकड़कर मांगी माफी
तब मैडम जी नीचे आई
फिर जो उनकी फरमाइश थी
छककर खाई दूध-मलाई!

Sunday, March 13, 2016

घात

ऐ चिड़िया,
उस झूमती डाल से नीचे
झिलमिल झील के पानी में
क्या ताक रही हो?

ओह, तुम तो किंगफिशर हो
नीचे मछलियों पर घात
लगाए बैठी हो।

पर ज़रा
होशियार!
उस पाजी बाज़ से
जिसकी नज़र तुम पर ही है।

Monday, February 22, 2016

कितना भोला है मेरा देश

जब आज सारी दुनिया मंद है पड़ी,
लोगों की जेबें लगातार कट रहीं,
मर रहा मज़दूर.
किसान दे रहा है जान,
भूख है शिखर पर और खरबपति भी,
फिर भी मेरा ये देश डंका पीट है रहा,
हो रही inclusive ग्रोथ, बढ़ रहा GDP
वो शायद इसी को विकास ,'अच्छे दिन', समझता है.

कितना भोला है मेरा देश,
सचमुच बड़ा भोला है!

हाथों से हुनर छीन लिया
जिस बीमारी ने,
उसके ही नए रूप - "Skill India, Make in India"
को ईलाज कहता है,
पूँजी के सामने है नतमस्तक पड़ा,
तिस पर भी अपने आपको सिकंदर समझता है.

कितना भोला है मेरा देश,
सचमुच बड़ा भोला है!

Tuesday, February 16, 2016

मौत से पहले के वो 20 मिनट: फ्रांस में हुए आखिरी मृत्युदंड का दस्तावेज

यह दस्तावेज Marseilles की जेल में 10 सितम्बर 1977 को  मृत्युदंड[1] दिये जाने से पहले हत्या के दोषी पाये गये Hamida Djandoubi के जीवन के आखिरी कुछ क्षणों का एक लिखित रिकार्ड है।   

यह रिकार्ड - जिस पर 9 सितंबर की तारीख पड़ी हुई है - उस एक जज के द्वारा दर्ज किया गया था जिसे इस मृत्युदंड का साक्षी होने के लिये नियुक्त किया गया था।
 
Djandoubi का मृत्युदंड फ्रांस में दिया गया आखिरी मृत्युदंड था जिसके बाद 1981 में मौत की सजा समाप्त कर दी गई।

ट्यूनिशिया के नागरिक Djandoubi को अपनी पूर्व प्रेमिका Elisabeth Bousquet की हत्या के दोष में मौत की सजा सुनाई गई थी।
 
उसे सितम्बर 1977 को Marseilles की जेल में मृत्युदंड दिया गया।

आगे का ब्यौरा मृत्युदंड की उस रात जज Monique Mabelly ने लिखा था। Mabelly ने यह पत्र अपने बेटे को सौंपा, जिसने इस पत्र को न्याय विभाग के पूर्व मंत्री Robert Badinter तक पहुंचा दिया जिन्होंने सफलतापूर्वक फ्रांस में मौत की सजा के उन्मूलन के लिए अभियान चलाया।

अंतत: Badinter ने इस पत्र को फ्रेंच अखबार Le Monde को दिया, जिसमें यह पत्र 9 अक्टूबर, 2013 को छपा। आगे उस पत्र का अनुवाद है।

***** 

9 सितम्बर 1977

ट्यूनिशिया के नागरिक Djandoubi का मृत्युदंड 

दोपहर 3 बजे, पीठासीन न्यायधीश R. से सूचना मिली कि मुझे मृत्युदंड के दौरान सहायता करने के लिये नियुक्त किया गया है। मैं इससे भागना चाह रहा था, लेकिन कुछ कर नहीं सकता था। सारी दोपहर मैं इसी के बारे में सोचता रहा। मेरी भूमिका अपराधी के दिये गये बयानों को नोट करने की होने वाली थी।

शाम 7 बजे, मैं B. और B. B. के साथ एक फिल्म देखने निकल गया, फिर हमने उसके घर पर कुछ खाया और देर रात 1 बजे तक फिल्म देखते रहे। मैं घर गया। कुछ काम निपटाकर, अपने बिस्तर पर लेट गया। जैसी मैंने गुजारिश की थी, मिस्टर B.L. ने सुबह 3:15 पर मुझे फोन किया। मैं तैयार हुआ। पुलिस की एक कार मुझे सुबह सवा चार पर लेने आई। सफर के दौरान किसी ने एक शब्द भी नही कहा।

हम Marseilles की Baumettes जेल पहुंचे। हर कोई वहां था। डिस्ट्रिक्ट एटार्नी (DA) सबसे आखिरी में आये। एक बड़ा समूह बन गया। 20-30 गार्ड - 'अधिकारी'। हमारे चलने के गलियारे में भूरे कंबल बिछा दिये गये थे ताकि चलने की आवाज ना हो। रास्ते में तीन जगहों पर टेबलों पर तौलिये और पानी के बर्तन रखे हुए थे।

कमरे का दरवाजा खोला गया। मैंने सुना, कोई कह रहा था कि कैदी सो तो नहीं रहा लेकिन ऊंघ रहा है। उसे 'तैयार' किया गया। काफी समय लगा, क्यूंकि उसकी एक टांग नकली थी जिसे लगाना जरूरी था। हम सभी इंतजार करते रहे। कोई कुछ न बोला। मुझे लगा इस चुप्पी और कैदी की सतही शांति से वहां मौजूद लोगों को राहत मिली। कोई भी रोना-चिल्लाना या विरोध सुनना नहीं चाह रहा था। समूह में कुछ अदला-बदली हुई और हम वापस उसी रास्ते पर चल पड़े। रास्ते के कंबल थोड़ा किनारे की ओर सरका दिये गये था और हम अब अपने कदमों से होने वाले शोर को बचाने की कोशिश नहीं कर रहे थे।

एक टेबल पर आकर हम सभी ठहर गये। कैदी को कुर्सी पर बैठाया गया। उसके हाथ पीछे की ओर हथकड़ी से बंधे हुए थे। एक गार्ड ने उसे एक फिल्टर सिगरेट दी। बिना कुछ कहे वो उसे पीने लगा। वो एक जवान आदमी था। करीने से काढ़े गहरे काले बाल। उसके नैन-नक्श सुंदर थे, लेकिन वो कुछ अस्वस्थ सा लग रहा था और उसकी आंखों के नीचे गहरे काले धब्बे थे। ना तो वह बेवकूफ लग रहा था और ना ही वहशी। बस एक खूबसूरत युवक। वो सिगरेट पी रहा था और तुरन्त ही उसने अपनी हथकड़ी के कुछ सख्त होने की बात कही। इसी क्षण मेरा ध्यान जल्लाद पर गया जो उसके पीछे अपने दो सहयोगियों के साथ खड़ा हुआ था। उसके हाथों में एक रस्सी थी।

पहले ये मंशा थी कि हथकड़ी को रस्सी से बदल दिया जाएगा लेकिन फिर यह तय हुआ कि उन्हें हटा ही दिया जाए, और फिर जल्लाद ने कुछ भयावह और दु:खद कहा ‘देखो, तुम आज़ाद हो गए!’ मेरे पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गई.... कैदी अपनी सिगरेट पीता रहा जो बस खत्म होने को थी, और उसे दूसरी दे दी गई। उसके हाथ खुले हुए थे और वो आहिस्ता-आहिस्ता पी रहा था। तब मुझे लगा कि उसे यह एहसास होने लगा था कि सब खत्म हो चुका है, कि अब वो बच नहीं सकता – उसकी जिंदगी का अंत सामने ही है, और आखिरी के कुछ लम्हें जो बचे हुए हैं वो भी बस तब तक जब तक सिगरेट बाक़ी है।

उसने अपने वकीलों से मिलने की गुजारिश की। मिस्टर P. और मिस्टर G. आए। काफी धीमी आवाज में उसने उनसे बातें की क्यूंकि जल्लाद के दोनों सहयोगी उसके एकदम करीब खड़े हुए थे, मानों वो उसकी जिंदगी के इन आख़िरी लम्हों को उससे छीन लेना चाहते हों। उसने कागज़ का एक टुकड़ा मिस्टर P. को दिया जिसने उसके अनुरोध पर उसे फाड़ दिया, और एक लिफाफा मिस्टर G. को दिया। उसने ज्यादा बात नही की। वो दोनों उसकी दोनों ओर खड़े हुए थे और उन दोनों ने आपस में भी बातें नहीं की। इंतज़ार चलता रहा। उसने जेलर से मिलने की गुजारिश की और उससे ये सवाल किया कि उसके बाद उसकी चीजों का क्या होगा।

दूसरी सिगरेट भी खत्म हो चुकी थी। पौन घंटा बीत चुका था। एक जवान और दोस्ताना गार्ड एक गिलास और रम की बॉटल लिए आगे बढ़ा। उसने कैदी से पूछा कि क्या वो शराब पीना चाहेगा और आधा गिलास भर दिया। वो आहिस्ता-आहिस्ता पीने लगा। अब वो समझ चुका था कि उस जाम के खत्म होने के साथ ही उसकी जिंदगी भी खत्म हो जाने वाली है। अपने वकीलों से उसने कुछ और बातें की। उसने उस गार्ड को बुलाया जिसने उसे रम दी थी और उससे कागज़ के उन टुकड़ो को उठाने को कहा जिन्हें मिस्टर P. ने फाड़कर ज़मीन पर फेंक दिया था। गार्ड नीचे झुका, टुकड़े उठाए और मिस्टर P. को थमा दिए, जिसने उन्हें अपनी पॉकेट में रख लिया।

ये वही मौका था जब सब कुछ अस्पष्ट सा हो गया। ये इंसान मरने वाला है, ये बात उसे पता है; वो जानता है कि अपने अंत को चंद और मिनट टालने के अलावा वो और कुछ नहीं कर सकता। पर वो एकदम उस छोटे बच्चे की तरह बर्ताव कर रहा है जो अपने सोने के समय को टालने के लिए कुछ भी कर सकता हो! एक बच्चा जो यह जानता हो कि उसकी हर इच्छा पूरी की जायेगी और जो इस बात का पूरा फ़ायदा उठाए। कैदी अपनी रम पी रहा था, धीमे-धीमे, चुस्कियाँ लेते हुए। उसने ईमाम को बुलाया और अरबी में उससे बात की। ईमाम ने भी अरबी में ही उससे बात की।

गिलास बस खाली होने की कगार पर था, और अपनी आखिरी कोशिश करते हुए उसने एक और सिगरेट की माँग की: एक Gauloise या शायद Gitane  [तेज और काले तंबाखू से बनी बिना फिल्टर की सिगरेट], क्यूंकि उसे पिछली वाला ब्रांड पसंद नही आया था। उसकी इस गुजारिश को शांति, लगभग पूरी गरिमा के साथ पूरा किया गया। लेकिन जल्लाद, जो उस समय तक अधीर हो चुका था, ने टोकते हुए कहा: “हमने पहले ही इससे काफी अच्छा, एकदम इंसानों की तरह सुलूक किया है, लेकिन अब यह सब जल्दी ही निपटा लेना चाहिए।” जिसके चलते, कैदी के लगातार अनुरोध व इतना कहने के बावजूद कि “ये आख़िरी होगी”, DA ने उसकी सिगरेट की माँग ठुकरा दी। सहयोगियों को एक प्रकार की शर्मींदगी का एहसास हुआ। कैदी को कुर्सी पर बैठे लगभग 20 मिनट हो चुके थे। 20 मिनट, कितना लंबा समय लेकिन फिर भी कितना कम।

आखिरी सिगरेट की माँग के साथ ही असलियत – उस वक्त की ‘पहचान’ जिसे हमने अभी-अभी गुजारा था – साफ हो गई। हम धीरज धरे 20 मिनट तक इंतज़ार करते खड़े रहे और कैदी अपनी इच्छाएं प्रकट करता रहा जिन्हें तुरंत ही पूरा कर दिया गया। उस समय के मालिक होने का हमने उसे पूरा मौका दिया। ये उसकी सम्पत्ति थी। लेकिन अब एक और सच्चाई ऊभर रही थी। कि समय उससे छीना जा रहा था। उसकी आखिरी सिगरेट की गुजारिश नामंजूर कर दी गई थी और आनन-फानन में उसका गिलास भी खत्म करवाया गया ताकि सब जल्द निपटाया जा सके। उसने आखिरी चुस्की ली। गिलास गार्ड को थमाया। तुरंत ही जल्लाद के एक सहयोगी ने अपनी कमीज़ की जेब से एक कैंची निकाली और कैदी की नीली कमीज़ की कॉलर काटकर अलग करने लगा। जल्लाद ने इशारा किया कि कट जरूरत के हिसाब से छोटा है। तो चीजों को आसान करने के लिए सहयोगी ने कमीज़ के कंधों के हिस्से में दो बड़े कट लगाए और कंधे का पूरा हिस्सा ही निकाल दिया।        

(कॉलर काटने से पहले) तेजी से, उसके हाथों को पीछे रस्सी से बांध दिया गया। मदद देकर उसे खड़ा किया गया। गार्डों ने गलियारे का एक दरवाज़ा खोला। सामने दरवाज़े की दूसरी ओर गिलोटिन था। लगभग बिना किसी हिचकिचाहट के मैं गार्डों के पीछे हो लिया जो कैदी को धकियाते हुए आगे बढ़ा रहे थे और उस कमरे (या शायद एक आँगन?) में दाखिल हुआ जहां ‘मशीन’ खड़ी हुई थी। उसके ठीक पीछे एक खुली हुई भूरी बुनी टोकरी थी। सब कुछ काफी तेजी से घटा। उसके शरीर को नीचे फेंक दिया गया लेकिन ठीक उसी क्षण मैंने अपना चेहरा घुमा लिया। डर के चलते नहीं, लेकिन एक तरह की सहज प्रवृति व गहरी बसी शालीनता (मेरे पास अन्य कोई शब्द नही) के चलते।

मुझे एक अस्पष्ट व मंद सी आवाज़ सुनाई दी। मैं घूमा – रक्त, ढेर सारा रक्त, एकदम लाल रक्त – शरीर टोकरी में लुढ़का पड़ा हुआ था। एक सेकेंड में, एक जीवन काट दिया गया था। एक आदमी जो चंद मिनट पहले ही बातें कर रहा था महज़ एक टोकरी में पड़े नीले पैज़ामे के और कुछ भी ना था। किसी गार्ड ने एक होज़ पाईप निकाल लिया। गुनाह के सुबूतों को जल्द मिटाना था... मुझे उबकाई महसूस हुई लेकिन मैंने अपने आपको संभाला। मेरे अंदर घृणा और ठंडे क्रोध की भावना थी।  

हम आफिस गए जहां DA ने आधिकारिक रपट तैयार करने के लिए बच्चों की तरह बेकार का हंगामा मचा रखा था।  D. ने हर हिस्से की ध्यान से जांच की। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है, एक मृत्युदंड की आधिकारिक रपट! सुबह 5:10  बजे मैं घर के लिए निकल गया।

मैं इन लाइनों को लिख रहा हूं। सुबह के 6 बजकर 10 मिनट हो रहे हैं।

जज Monique Mabelly

***** 
source: http://deathpenaltynews.blogspot.in/2013/10/20-minutes-to-death-record-of-last.html
फ्रेंच से अंग्रेजी में अनुवाद - Anya Martin Death Penalty News Admin   

अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद – विवेक मेहता




[1] गिलोटिन से सिर कलम कर




मोहनदास गांधी
एक आंख के बदले आंख सारे संसार को अंधा बना देगी

कौफी अन्नान
क्या राज्य, जो पूरे समाज का प्रतिनिधित्व करता है व जिस पर समाज की रक्षा करने का कर्तव्य है, अपने आप को उस हत्यारे के स्तर पर गिराकर व उसके साथ वैसा ही बर्ताव कर जैसा उसने दूसरों के साथ किया अपने उस कर्तव्य का पालन करता है?  भले ही कानूनी प्रक्रियाएं जायज़ ठहराएं लेकिन एक इंसान के द्वारा किसी अन्य इंसान का जीवन समाप्त करना अपरिवर्तनीय व कहीं ज्यादा निरंकुश है

अल्बर्ट आइन्स्टाइन
मैं इस दृढ़ विश्वास पर पहुंच चुका हूं कि मौत की सजा का उन्मूलन जरूरी है। कारण: १) अगर न्यायिक प्रक्रिया में त्रुटी हो तो भूल को सुधारा नहीं जा सकता, २) प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस प्रक्रिया को अंजाम देने वालों पर इसका हानिकारक नैतिक प्रभाव पड़ता है

 

Thursday, January 21, 2016

रोहित और उसके बाद

रोहित की मौत के बाद कम से कम टीवी देखकर तो ऐसा ही लगता है कि हर कहीं शोर मचा हुआ है। लेकिन कुछ जगहें ऐसी भी हैं जहां ऐसा सन्नाटा पसरा हुआ है कि मानो कुछ हुआ ही ना हो। खैर इन जगहों, जिनमें अकादमिक संस्थान भी शामिल हैं, की क्या कहें, जहां शोर है वहां भी उत्साह बढ़ाने वाला ज्यादा कुछ दिखता नहीं। 

एक आवाज जो इस शोर में काफी मुखर है , छात्रों से इस अंदाज में सवाल करती नज़र आती है कि "तुम यहां पढ़ाई करने आये हो या politics करने?" मुझे यकीन है ऐसे ही सवाल मानेसर के आटोवर्करस् से भी पूछे गये होंगे कि "यहां काम करने आये हो या संगठन बनाकर नेतागिरी करने?"

अगर सरकारें इस आवाज़ को प्राथमिकता देती हैं तो वो कैसे कदम उठाएंगी इस पर किसी को शक नहीं होना चाहिये। वैसे भी पूंजीवाद के इस दौर में जब अकादमिक संस्थान भी मुनाफा कमाने का एक जरिया बन चुके हों तो कौन चाहेगा कि छात्र "politics" करें।

इसे विडम्बना ही कहेंगे कि तमाम अकादमिक संस्थान किसी ना किसी politics का ही नतीजा हैं फिर भी इन संस्थानों में  student politics एक खराब बात मानी जाती है। इतिहास में झांककर देखें तो छात्र-राजनीति के कई उदाहरण मिल जायेंगे। लेकिन यहां अगर मैं अपने अनुभव को देखूं तो मैं भी एक इस देश के एक प्रतिष्ठित तकनीकी संस्थान का एक छात्र रहा हूं, हालांकि उस कोर्स के लिये नहीं जिसके लिये वो जाना जाता है। मुझे याद है जब मुझे खबर मिली कि मुझे इतने बड़े संस्थान में दाखिला मिला है, मेरी आंखों में आंसू थे। पहली बार जब मैंने उस संस्थान में कदम रखा तो उसकी विशालता व चमक को देखकर मैं अचरज में था, उम्दा शिक्षक, बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर, विशाल क्लासरूम, कंप्यूटर्स, छात्रों का एक विशाल समूह, हास्टल, हरे मैदान, बढ़िया मेस, दिन-रात चलने वाली कैंटीन, वो सब कुछ मुझे गर्व से भर देता था।  अपने मिलने वालों को जब मैं बतलाता कि मैं आई.आई.टी. में‌ पढ़ता हूं तो उनकी नज़र में भी मेरा सम्मान बढ़ जाता।  मुझे यकीन है, ये अनुभव सिर्फ मेरा ही नहीं है बल्कि उन तमाम छात्रों का होगा जो ऐसे प्रतिष्ठित संस्थानों में पढ़े हैं। हां ये सवाल जायज है और पूछना भी चाहिये कि आखिर ये संस्थान किस कारण से "प्रतिष्ठित" हैं?

ये सवाल मेरे मन भी उठा। जैसा अक्सर ही होता है जब आप कुछ समय किसी एक जगह पर बिताते हैं तो उसके दूसरे पहलुओं से भी आपका सामना होता है। आपको दिखाई देता है कि यह संस्थान सिर्फ वो सब नहीं है जिसे देखकर आप गर्वान्वित होते हैं। संस्थान सिर्फ शिक्षक, इंफ्रास्ट्रक्चर, क्लासरूम, कंप्यूटर्स, छात्र, हास्टल, हरे मैदान, मेस, दिन-रात चलने वाली कैंटीन भर नहीं हैं। इन सबके पीछे हज़ारों-हज़ार अनाम हाथ भी हैं जो इस संस्थान को चला रहे हैं, जिनकी गिनती संस्थान के बही-खातों में नही होती। आप देखते हैं यह संस्थान अपने परिवेश से एकदम कटा हुआ समुद्र के एक टापू की तरह है। बड़ी-ऊंची बाऊंड्रीवाल, सुरक्षा कर्मियों की एक लंबी-चौड़ी फौज, लोगों की आवाजाही पर तमाम पाबंदिया चीख-चीखकर इसका सबूत देती है। आपके सोच में पड़ जाते हैं, ऐसा क्यूं?

जब आपको दिखाई देता है कि एक तकनीकी संस्थान में बन रही बिल्डिंगों में मज़दूरों से जुड़ी से एक के बाद एक दसियों दुर्घटनाएं होती हैं और आपके मन में यह सवाल उठता है कि आखिर तकनीकी ज्ञान देने वाले संस्थान में ऐसा क्यूं हो रहा है तो क्या यह गलत है? आपको पता चलता है कि एक मजदूर का बच्चा जिसे सोते वक्त सांप काट लेता है और संस्थान के अस्पताल में उसे भर्ती भी नहीं किया जाता और वो मर जाता है; अनेक छात्र सड़क पर उतर आते हैं, संस्थान से जवाबदेही मांगते हैं तो क्या इसमें कुछ गलत है? मौत की घटनाएं एक तरह की फौरी भावुकता को जन्म देती हैं, लेकिन अगर आपको समझ में आये कि इन मौतों का कारण व्यवस्थागत है नाकि व्यक्तिगत और आप अपनी समझ के मुताबिक उस व्यवस्था को दुरुस्त करने व जवाबदेह बनाने की किसी प्रक्रिया से जुड़ जाये तो क्या यह गलत होगा? क्या हमारा समाज और सरकारें ये चाहती हैं कि सोचने-समझने की उम्र में अपने परिवेश से जुड़े ऐसे मुद्दों व सवालों को दरकिनार करते हुए छात्र सिर्फ अपनी "पढ़ाई" पर ध्यान दें; सिर्फ "skill" develop करेंं? नीतियां देखकर तो लगता है कि मंशा भी यही है। हम अपनी शिक्षा व्यवस्था से पूंजी के "विकास" के लिये सिर्फ ऐसे कलपुर्जे बनाने पर आमादा हैं जो सिर्फ वही देखें व सोचें जो यह व्यवस्था दिखाना और सोचवाना चाहती है। इसके अलावा अगर और कुछ देखना और सोचना हो तो बाहर या ऊपर जाने के रास्ते खुले हुए हैं।

मैं रोहित को नहीं जानता, मुझे नहीं पता कि उनका संगठन किस तरह की गतिविधियों से जुड़ा हुआ था।  लेकिन मैं यह जानता हूं कि एक फांसी का विरोध करने पर रोहित व उसके साथी anti-national नहीं बन जाते। मैं यह भी जानता हूं कि रोहित और उसके संगठन पर castiest होने का आरोप लगाना दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं बल्कि बचकाना है।  हमारे समाज की जिस ब्राहमणवादी सोच ने दलितों-पिछड़ों को शोषण किया है वो castiest है।  और अगर इस सोच का विरोध करना एक रेडिकल politics करना है तो फिर यही सही।

रोहित सपने देखने वाला एक युवा था। मुझे बहुत दुख है कि वो इस स्थिति तक पहुंचा कि उसे आत्महत्या करनी पड़ी। मेरे पास उस स्थिति से निपटने का कोई तैयार नुस्खा तो नहीं लेकिन मैं मोटे तौर पर इतना समझता हूं उसकी इस स्थिति तक पहुंचने का कारण व्यक्तिगत नहीं बल्कि व्यवस्थागत है और व्यवस्था से लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती।

Sunday, January 17, 2016

डेड-लाईन

इस तेज़ रफ्तार दुनियां में
इन दिनों
हर कोई डेड-लाईन की ही बातें करता है ...

कोई डेड-लाईन भेज रहा होता है,
तो कोई पूरी करने में लगा हुआ है,
किसी की डेड-लाईन चुक चुकी है,
तो किसी की बढ़ चुकी...

कुछ अजब ही लाईन है ये,
और ये दुनियां भी कुछ कम अनोखी नहीं,
जिसमें लोग जिंदा रहते डेड-लाईन के पीछे भागते हैं
और
मरने के बाद के लिये लाईफ-इंश्योरेंस करवाते हैं