असमंजस
और दुविधा से भरे कुछ घंटे।
गरीबरथ में कटनी से कानपुर
तक का रिज़र्वेशन। कटनी पहुंचने
वाली ट्रेन लेट। समझ नहीं पा
रहा था मैं कि क्या करूं?
ट्रेन
का इंतजार करूं या बस ले लूं?
बस
का समय भी कुछ ऐसा कि जरूरी
नहीं समय पर पहुंचा ही दे। खैर
मन बनाया कि ट्रेन से जाना ही
ठीक रहेगा। अगर गरीबरथ छूट
भी गई तो पीछे चित्रकूट होगी,
वो
तो मिल ही जायेगी। मम्मी-पापा
भी परेशान थे और तब तक रहे जब
तक कि मैं ट्रेन में चढ़ नहीं
गया और समय से काफी पहले कटनी
पहुंच नहीं गया।
कटनी
तक का सफर - था
तो बहुत छोटा लेकिन ट्रेनों
का छोटा सा सफर भी अक्सर ऐसी
तमाम घटनाओं व अनुभवों से भरा
होता है कि अगर एक अच्छी नज़र
मिल जाये तो छोटी-मोटी
किताब लिखी जा सकती है। फिलहाल
तो मेरी इच्छा ऐसी कोई किताब
लिखने की नहीं;
शायद
काबिलियत भी नहीं,
लेकिन
कुछ ऐसा घटा कि मन हुआ दर्ज
किया जाये।
मैं
बैठा हुआ था अपनी सीट पर,
चलती
ट्रेन के साथ गुनगुनाते हुए
कुछ नये-पुराने
गीत। उनमें से कईयों को तो ना
जाने कितने सालों बाद गुनगुना
रहा था। जाने कहां दिमाग के
किस कोने में छुपे थे वो सारे।
ट्रेन कहीं रुकती तो मेरा गाना
भी थम जाता। शायद इस डर से कि
कहीं पीछे से आ रही गरीबरथ आगे
ना निकल जाये। खैर उसी दौरान
पहली बार देखा मैंने उसे जब
एक सिंघांडे बेचने वाली बाई
ने सिंघाड़े की टोकरी अपने सर
से उतारते हुए एक भद्दी गाली
देते हुए कहा,
"अगर
खाना ही है तो खरीदकर खाओ,
चुरा
क्यूं रहे हो।"
बाकी
सभी लोगों की तरह मैं भी उसे
देखने के लिये पीछे पलटा जिसने
एक गरीब मेहनतकश के सिंघाड़ों
पर हाथ साफ किये थे। मेरी नजर
जब उस पर पड़ी तो वो ऊपर बैठा
अपने हाथ में लिया सिंघाड़ा
किनारे रखते हुए धीमी और डरी
आवाज में कह रहा था,
"ले
लो, वापिस
ले लो।"
छोटे
से गोल चेहरे वाला अंदाजन
२०-२२
साल को वो लड़का मुझे बहुत मासूम
लगा। चेहरा साफ,
गेंहुआ
रंग, नैन-नक्श
तीखे, बाल
पतले और सधे हुए,
झरहरा
शरीर। कपड़े भी ठीक-ठाक
लगे मुझे उसके। कुल मिलाकर
कहीं से बदमाश नहीं लगा मुझे
वो। मैं सीधे बैठकर फिर अपने
ख्यालों में गुम हो गया। वो
सिंघाड़े वाली भी मेरे सामने
बैठी महिला को सिंघाड़े बेचकर
आगे चली गई। उस महिला का बच्चा
ना जाने कब से मोबाईल पर कुछ
खेलने में व्यस्त था। भूख-प्यास
के एहसास से दूर अपने खेल में
मगन उस बच्चे को उसकी मां
बीच-बीच
में अपने हाथों से ज़बरन कुछ
खिला भी देती। मुझे उस बच्चे
का ख्याल आ गया जो एक बार मुझे
ट्रेन में ही झांसी के आस-पास
कहीं मिला था। मुझे याद आया
- वो
और मैं चलती ट्रेन के दरवाज़े
पर बैठकर बतिया रहे थे। उसने
मुझे बताया था कि कैसे वो दोपहर
स्कूल के बाद ट्रेनों में
मूंगफली बेचने के लिये निकल
पड़ता है और देर शाम को घर पहुंचता
है। जब मैंने उसकी सफेद स्कूली
शर्ट की जेब से झांक रही पत्तियों
के बारे में पूछा तो उसने बतलाया
था कि मूंगफली बेचते-बेचते
वो उन्हें चबा लेता है। वो
पत्तियां उसे जगाए रखती हैं
और भूख भी नहीं लगती। उस
बुंदेलखंडी बच्चे के बारे
में सोचते हुए जाने क्यूं मैं
मोबाईल और उन पत्तियों में
कनेक्शन बैठाना लगा।
बाहर
अंधेरा घिरने लगा था। साइड
की ऊपर-नीचे
दोनों ही बर्थ खाली पड़ी हुई
थीं। मैं साइड-लोवर
की खिड़की से झांककर निकलते
स्टेशनों के नाम पढ़ रहा था।
कुछ देर बाद वो लड़का उस बर्थ
पर आकर बैठ गया। अपने घुटने
छाती से लगाये वो सी-सी
करता हुआ हवा अंदर की ओर खींच
रहा था। मुझे लगा या तो उसने
मिर्च खा ली है या फिर उसे ठंड
लग रही है। एक गमछा उसके गले
में लिपटा हुआ था और बीच-बीच
में बांग्ला में वो कुछ बुदबुदा
भी रहा था। कुछ तो था उसमें जो
मैं उसे एकटक देखता ही रहा।
नज़र उसके पैरों की तरफ गई -
धूल-धुसरित,
कटी-फटी
एड़ियां, बेतरतीब
नाखून, टूटी
सी चप्पल। लगा ही नहीं कि उसी
के बाकी शरीर का हिस्सा हैं
वो - एक
जोड़ी पैर।
कई
सालों पहले एक दफे मैं अपने
एक दोस्त की शादी में कानपुर
से अलीगढ़ गया था। दोपहर के
वक्त ट्रेन अलीगढ़ पहुंचीं।
जब स्टेशन से बाहर निकलने के
लिये सीढ़ियों से उतर रहा था
तो ट्रैक पर कुछ दिखा मुझे -
अजीब
सा। कोशिश करने के बावजूद नही
पहचान पाया कि क्या है वो। जब
आगे बढ़ा तो लोगों की एक भीड़
लगी हुई थी; कुछ
तो प्लेटफार्म के किनारे
खड़े-खड़े
ही ट्रैक की ओर झांक रहे थे और
कई ट्रैक पर ही जाने क्या घेरे
हुए खड़े थे। जब मैंने रूककर
किसी से पूछा कि क्या हुआ,
तो
पता चला कि कोई चलती ट्रेन से
गिर गया और कटकर मर गया। शायद
उसी ट्रेन से जिससे मैं अलीगढ़
पहुंचा था। कौन था वो?
कहां
जा रहा था? बूढ़ा
था या जवान? आदमी
या औरत? सोचते-सोचते
मैं स्टेशन से बाहर निकल आया।
लेकिन फिर एक ख्याल ने मुझे
झकझोर दिया। मुझे एहसास हुआ
कि वो अजीब से चीज जो मैंने
ट्रैक पर देखी थी वो और कुछ
नहीं उसी अनजान इंसान के एक
पैर का बेजान पंजा था जो कटकर
मर गया। मैं आश्चर्य में पड़
गया कि शरीर के उस हिस्से को
जिसे मैं रोज देखता हूं आखिर
उस वक्त पहचान क्यूं नहीं
पाया? पहली
बार इंसानी जिस्म के किसी
हिस्से को जिस्म से अलग देख
रहा था, शायद
इस वजह से।
उस
लड़के के पैरों को देखकर उसी
अनजान आदमी के जिस्म से अलग-थलग
पड़े पंजे की याद आ गई। जुड़े
होने के बावजूद लगा कि उसके
पैर अलग हैं बाकी शरीर से;
लगा
कि ना जाने कब से भटक रहें हैं
कहां-कहां
और साथ उनके वो भी -
ना
चाहते हुए।
"कुत्ता
हूं मैं।" मुझे
अपनी तरफ़ देखते हुए उसने कहा।
"क्या
कहा?” मैं
भी सहसा ही पूछ बैठा।
उसने
दोहराया;
"कुत्ता
हूं मैं।"
"ऐसा
क्यूं?”
"और
नहीं तो क्या,
कुत्ता
ही तो हूं मैं।"
मैंने
जब उससे पूछा कि वो कहां जा
रहा है? जवाब
मिला - बंगाल।
जब मैंने उससे कहा कि ये ट्रेन
नहीं जाती बंगाल तक तो वो बोला
"जहां
तक जायेगी वहीं चला जाऊंगा।"
और
फिर खिड़की से बाहर देखते हुए
बोला "सोने
का चश्मा पहनने का सपना देखना
बुरी बात है।"
मैं
भी सर हिलाते हुए उस पर से नज़र
हटाकर बाहर देखने लगा।
अमूमन
मैं जब भी लोगों से मिलता हूं
उनका नाम पूछता हूं,
अपना
बताता हूं। पर उससे ऐसी कुछ
बात नहीं हुई। वैसे,
एक
तरीके से बातचीत हो भी रही थी
हमारी; कुछ
कह तो रहा ही था वो मुझसे और
मैं उससे। पर मैं अभ्यस्त नहीं
था इस तरह से बात करने का।
वो
अपने सर को गमछे का सहारा देकर
सीट पर लेट ग़य़ा। चप्पल करीने
से बर्थ के नीचे रख दी। ज़ब
बैसाखी लिये एक बुजुर्ग पेपर
सोप बेचते हुए हम दोनों के बीच
से निकला तो उसने पेपर सोप
मांगा। उसने इतने आराम और
सहजता से ऐसा किया कि बुजुर्ग
को लगा कि वो सचमुच ही खरीदना
चाहता है।
"दस
रुपये के तीन है भैया।"
बुजुर्ग
ने कहा।
उसने
उसी सहजता और मासूमियत से कहा
कि "दे
दो, लेकिन
मेरे पास पैसे नहीं हैं।"
मुझे
लगा कि वो बूढ़ा भी अब गाली न
सही कम से कम झिड़की तो देगा ही
उसे। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं।
बैसाखी के सहारे आगे बढ़ते हुए
उसने लड़के से कहा कि
"बेटा
अगर पैसे नहीं हैं तो कुछ खाने
की चीज मांग, पेपर
सोप का तू क्या करेगा।"
बूढ़ा
आगे बढ़ गया। वो और मैं खिड़की
से बाहर जाने क्या ताकने लगे।
बीच-बीच
में वो बुदबुदा भी रहा था "सोने
का चश्मा पहनने का सपना देखना
बुरी बात है।"
अगली
बार जब पैंट्रीकार का एक वेटर
रात के खाने के लिये सबसे पूछता
हुआ हमारी सीट तक पहुंचा तो
वो उचककर सीट पर बैठ गया -
पेपर
सोप वाले बूढ़े से मिली सीख को
लागू करने के लिये एकदम तैयार।
"हां
सर! खाना,
खाना,
रात
का खाना।"
"आप
लेंगे?" अपनी
तरफ ललचाई नज़रों से देखते हुए
लड़के से उसने पूछा।
"हां!"
लड़के
ने जोरों से सर हिलाते हुए
जवाब दिया। अब वो लगातार अपने
जीभ निकालकर अपने होंठों को
गिला कर रहा था।
"बर्थ
नम्बर क्या है सर आपका?"
"उनसे
पूछो।" लड़के
ने अपनी आंखों और ठुड्डी से
मेरी तरफ़ इशारा करते हुए कहा।
"हां
सर! आप
दोनों के लिये खाना?
बर्थ
नम्बर क्या है आपका?"
मैं
बिल्कुल भी तैयार नहीं था इस
सवाल के लिये। मैंने वेटर से
कहा कि मुझे तो कटनी में ही
उतर जाना है। रात के खाने की
जरूरत नहीं होगी। वैसे भी मेरे
बैग में खाना था जो मैं घर से
लेकर चला था।
वेटर
उस लड़के को घूरता हुआ आगे बढ़
गया। लड़के के चेहरे के भाव भी
कुछ सख्त हो गये। फिर जाने
क्या हुआ, जिस
साइड-लोवर
बर्थ पर बैठा हुआ था उसके दोनों
हिस्सों पर कुछ बुदबुदाते
हुए उसने थूका। और सीट से उतरकर
दरवाजे की तरफ बढ़ा। जाते-जाते
पीछे मुड़कर देख भी रहा था।
लगा कि वो अब वापिस नहीं आयेगा।
मैं सोच रहा था कि ठीक ही किया
उसने जो चला गया क्यूंकि जो
हरकत अभी-अभी
उसने की थी वो मेरे अलावा साथ
बैठे दूसरे लोग भी देख रहे थे।
और क्या पता कब किस बात पर किसी
को गुस्सा आ जाये। ट्रेनों
में लोगों के छुट्टा हाथों
को चलते अक्सर ही देखा हैं
मैंने और एक-दो
दफे तो भुक्तभोगी भी रहा हूं।
लेकिन
फिर मेरी नज़र सीट के नीचे पड़ी
उसकी चप्पल पर पड़ी और सीट पर
रखे गमछे पर -
जिन्हें
वो पीछे ही छोड़ गया था। और कुछ
देर बाद वो खुद हाज़िर था। कहीं
गया नहीं था, बस
शायद वाशबेसिन से मुंह धोकर
ही वापिस आ गया था वो। आते ही
गमछा उठाकर सीट को साफ कर वो
दोबारा लेट गया।
जब
पेपर सोप वाला बूढ़ा लौटते हुए
उसके सामने से गुजरा तो मुस्कुराते
हुए उसने हाथ बढ़ा दिया। बूढ़े
ने भी बड़े प्यार से कहा
"कुछ
खाने की चीज होती तो जरूर दे
देता, पेपर
सोप लेकर तू क्या करेगा।"
ट्रेन
कटनी पहुंचने ही वाली थी। मैं
सोच रहा था कि उस लड़के को कुछ
खाने को दूं। एक बार तो लगा कि
बैग में जो खाना रखा है वो
निकालकर दे दूं उसे,
लेकिन
फिर घर के खाने का लालच मेरे
उस ख्याल पर हावी हो गया।
उतरते-उतरते
अपने बैग़ में रखा एक सेब मैंने
उसे दिया। जब तक मैं ट्रेन से
उतरता वो उसे खा चुका था और
शायद पचा भी। आखिरी बार नज़र
पड़ी जब उस लड़के पर तो वो मेरी
तरफ देखकर कुछ बुदबुदा रहा
था। शायद वही कि "सोने
का चश्मा पहनने का सपना देखना
बुरी बात है।"
जाने
किससे?
अपने
आप से या .
. .