Wednesday, December 31, 2014

धुंध

रात भर भीगती रही रात
और अब भी सुबह के माथे पर कोहरा टपक रहा है...

धुंध ने सब कुछ ढँक दिया है
सुंदर-कुरूप, भला-बुरा
सही-ग़लत
कुछ भी नही दीखता...

कुछ ही दूरी पर
एक पंक्षी एक सूखे पेड़ की टहनी पर बैठा
जाने क्या कयास लगा रहा है
वो भी शायद उतना ही दूर देख पा रहा है
जितना की मैं...

उड़ने की हिम्मत शायद अभी दोनों में ही नही...

Monday, December 22, 2014

वो लड़का


असमंजस और दुविधा से भरे कुछ घंटे। गरीबरथ में कटनी से कानपुर तक का रिज़र्वेशन। कटनी पहुंचने वाली ट्रेन लेट। समझ नहीं पा रहा था मैं कि क्या करूं? ट्रेन का इंतजार करूं या बस ले लूं? बस का समय भी कुछ ऐसा कि जरूरी नहीं समय पर पहुंचा ही दे। खैर मन बनाया कि ट्रेन से जाना ही ठीक रहेगा। अगर गरीबरथ छूट भी गई तो पीछे चित्रकूट होगी, वो तो मिल ही जायेगी। मम्मी-पापा भी परेशान थे और तब तक रहे जब तक कि मैं ट्रेन में चढ़ नहीं गया और समय से काफी पहले कटनी पहुंच नहीं गया।

कटनी तक का सफर - था तो बहुत छोटा लेकिन ट्रेनों का छोटा सा सफर भी अक्सर ऐसी तमाम घटनाओं व अनुभवों से भरा होता है कि अगर एक अच्छी नज़र मिल जाये तो छोटी-मोटी किताब लिखी जा सकती है। फिलहाल तो मेरी इच्छा ऐसी कोई किताब लिखने की नहीं; शायद काबिलियत भी नहीं, लेकिन कुछ ऐसा घटा कि मन हुआ दर्ज किया जाये।

मैं बैठा हुआ था अपनी सीट पर, चलती ट्रेन के साथ गुनगुनाते हुए कुछ नये-पुराने गीत। उनमें से कईयों को तो ना जाने कितने सालों बाद गुनगुना रहा था। जाने कहां दिमाग के किस कोने में छुपे थे वो सारे। ट्रेन कहीं रुकती तो मेरा गाना भी थम जाता। शायद इस डर से कि कहीं पीछे से आ रही गरीबरथ आगे ना निकल जाये। खैर उसी दौरान पहली बार देखा मैंने उसे जब एक सिंघांडे बेचने वाली बाई ने सिंघाड़े की टोकरी अपने सर से उतारते हुए एक भद्दी गाली देते हुए कहा,

"अगर खाना ही है तो खरीदकर खाओ, चुरा क्यूं रहे हो।"

बाकी सभी लोगों की तरह मैं भी उसे देखने के लिये पीछे पलटा जिसने एक गरीब मेहनतकश के सिंघाड़ों पर हाथ साफ किये थे। मेरी नजर जब उस पर पड़ी तो वो ऊपर बैठा अपने हाथ में लिया सिंघाड़ा किनारे रखते हुए धीमी और डरी आवाज में कह रहा था,

"ले लो, वापिस ले लो।"

छोटे से गोल चेहरे वाला अंदाजन २०-२२ साल को वो लड़का मुझे बहुत मासूम लगा। चेहरा साफ, गेंहुआ रंग, नैन-नक्श तीखे, बाल पतले और सधे हुए, झरहरा शरीर। कपड़े भी ठीक-ठाक लगे मुझे उसके। कुल मिलाकर कहीं से बदमाश नहीं लगा मुझे वो। मैं सीधे बैठकर फिर अपने ख्यालों में गुम हो गया। वो सिंघाड़े वाली भी मेरे सामने बैठी महिला को सिंघाड़े बेचकर आगे चली गई। उस महिला का बच्चा ना जाने कब से मोबाईल पर कुछ खेलने में व्यस्त था। भूख-प्यास के एहसास से दूर अपने खेल में मगन उस बच्चे को उसकी मां बीच-बीच में अपने हाथों से ज़बरन कुछ खिला भी देती। मुझे उस बच्चे का ख्याल आ गया जो एक बार मुझे ट्रेन में ही झांसी के आस-पास कहीं मिला था। मुझे याद आया - वो और मैं चलती ट्रेन के दरवाज़े पर बैठकर बतिया रहे थे। उसने मुझे बताया था कि कैसे वो दोपहर स्कूल के बाद ट्रेनों में मूंगफली बेचने के लिये निकल पड़ता है और देर शाम को घर पहुंचता है। जब मैंने उसकी सफेद स्कूली शर्ट की जेब से झांक रही पत्तियों के बारे में पूछा तो उसने बतलाया था कि मूंगफली बेचते-बेचते वो उन्हें चबा लेता है। वो पत्तियां उसे जगाए रखती हैं और भूख भी नहीं लगती। उस बुंदेलखंडी बच्चे के बारे में सोचते हुए जाने क्यूं मैं मोबाईल और उन पत्तियों में कनेक्शन बैठाना लगा।

बाहर अंधेरा घिरने लगा था। साइड की ऊपर-नीचे दोनों ही बर्थ खाली पड़ी हुई थीं। मैं साइड-लोवर की खिड़की से झांककर निकलते स्टेशनों के नाम पढ़ रहा था। कुछ देर बाद वो लड़का उस बर्थ पर आकर बैठ गया। अपने घुटने छाती से लगाये वो सी-सी करता हुआ हवा अंदर की ओर खींच रहा था। मुझे लगा या तो उसने मिर्च खा ली है या फिर उसे ठंड लग रही है। एक गमछा उसके गले में लिपटा हुआ था और बीच-बीच में बांग्ला में वो कुछ बुदबुदा भी रहा था। कुछ तो था उसमें जो मैं उसे एकटक देखता ही रहा। नज़र उसके पैरों की तरफ गई - धूल-धुसरित, कटी-फटी एड़ियां, बेतरतीब नाखून, टूटी सी चप्पल। लगा ही नहीं कि उसी के बाकी शरीर का हिस्सा हैं वो - एक जोड़ी पैर।

कई सालों पहले एक दफे मैं अपने एक दोस्त की शादी में कानपुर से अलीगढ़ गया था। दोपहर के वक्त ट्रेन अलीगढ़ पहुंचीं। जब स्टेशन से बाहर निकलने के लिये सीढ़ियों से उतर रहा था तो ट्रैक पर कुछ दिखा मुझे - अजीब सा। कोशिश करने के बावजूद नही‌ पहचान पाया कि क्या है वो। जब आगे बढ़ा तो लोगों की एक भीड़ लगी हुई थी; कुछ तो प्लेटफार्म के किनारे खड़े-खड़े ही ट्रैक की ओर झांक रहे थे और कई ट्रैक पर ही जाने क्या घेरे हुए खड़े थे। जब मैंने रूककर किसी से पूछा कि क्या हुआ, तो पता चला कि कोई चलती ट्रेन से गिर गया और कटकर मर गया। शायद उसी ट्रेन से जिससे मैं‌ अलीगढ़ पहुंचा था। कौन था वो? कहां जा रहा था? बूढ़ा था या जवान? आदमी या औरत? सोचते-सोचते मैं स्टेशन से बाहर निकल आया। लेकिन फिर एक ख्याल ने मुझे झकझोर दिया। मुझे एहसास हुआ कि वो अजीब से चीज जो मैंने ट्रैक पर देखी थी वो और कुछ नहीं उसी अनजान इंसान के एक पैर का बेजान पंजा था जो कटकर मर गया। मैं आश्चर्य में पड़ गया कि शरीर के उस हिस्से को जिसे मैं रोज देखता हूं आखिर उस वक्त पहचान क्यूं नहीं‌ पाया? पहली बार इंसानी जिस्म के किसी हिस्से को जिस्म से अलग देख रहा था, शायद इस वजह से।

उस लड़के के पैरों को देखकर उसी अनजान आदमी के जिस्म से अलग-थलग पड़े पंजे की याद आ गई। जुड़े होने के बावजूद लगा कि उसके पैर अलग हैं बाकी शरीर से; लगा कि ना जाने कब से भटक रहें हैं कहां-कहां और साथ उनके वो भी - ना चाहते हुए।

"कुत्ता हूं मैं।" मुझे अपनी तरफ़ देखते हुए उसने कहा।

"क्या कहा?” मैं भी सहसा ही पूछ बैठा।

उसने दोहराया;

"कुत्ता हूं मैं।"

"ऐसा क्यूं?”
"और नहीं तो क्या, कुत्ता ही तो हूं मैं।"

मैंने जब उससे पूछा कि वो कहां जा रहा है? जवाब मिला - बंगाल। जब मैंने उससे कहा कि ये ट्रेन नहीं जाती बंगाल तक तो वो बोला "जहां तक जायेगी वहीं चला जाऊंगा।"

और फिर खिड़की से बाहर देखते हुए बोला "सोने का चश्मा पहनने का सपना देखना बुरी बात है।"

मैं भी सर हिलाते हुए उस पर से नज़र हटाकर बाहर देखने लगा।

अमूमन मैं जब भी लोगों से मिलता हूं उनका नाम पूछता हूं, अपना बताता हूं। पर उससे ऐसी कुछ बात नहीं‌ हुई। वैसे, एक तरीके से बातचीत हो भी रही थी हमारी; कुछ कह तो रहा ही था वो मुझसे और मैं उससे। पर मैं अभ्यस्त नहीं था इस तरह से बात करने का।

वो अपने सर को गमछे का सहारा देकर सीट पर लेट ग़य़ा। चप्पल करीने से बर्थ के नीचे रख दी। ज़ब बैसाखी लिये एक बुजुर्ग पेपर सोप बेचते हुए हम दोनों के बीच से निकला तो उसने पेपर सोप मांगा। उसने इतने आराम और सहजता से ऐसा किया कि बुजुर्ग को लगा कि वो सचमुच ही खरीदना चाहता है।

"दस रुपये के तीन है भैया।" बुजुर्ग ने कहा।

उसने उसी सहजता और मासूमियत से कहा कि "दे दो, लेकिन मेरे पास पैसे नहीं हैं।"

मुझे लगा कि वो बूढ़ा भी अब गाली न सही कम से कम झिड़की तो देगा ही उसे। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। बैसाखी के सहारे आगे बढ़ते हुए उसने लड़के से कहा कि

"बेटा अगर पैसे नहीं हैं तो कुछ खाने की चीज मांग, पेपर सोप का तू क्या करेगा।"
बूढ़ा आगे बढ़ गया। वो और मैं खिड़की से बाहर जाने क्या ताकने लगे। बीच-बीच में वो बुदबुदा भी रहा था "सोने का चश्मा पहनने का सपना देखना बुरी बात है।"

अगली बार जब पैंट्रीकार का एक वेटर रात के खाने के लिये सबसे पूछता हुआ हमारी सीट तक पहुंचा तो वो उचककर सीट पर बैठ गया - पेपर सोप वाले बूढ़े से मिली सीख को लागू करने के लिये एकदम तैयार।

"हां सर! खाना, खाना, रात का खाना।"

"आप लेंगे?" अपनी तरफ ललचाई नज़रों से देखते हुए लड़के से उसने पूछा।

"हां!" लड़के ने जोरों से सर हिलाते हुए जवाब दिया। अब वो लगातार अपने जीभ निकालकर अपने होंठों को गिला कर रहा था।

"बर्थ नम्बर क्या है सर आपका?"

"उनसे पूछो।" लड़के ने अपनी आंखों और ठुड्डी से मेरी तरफ़ इशारा करते हुए कहा।

"हां सर! आप दोनों के लिये खाना? बर्थ नम्बर क्या है आपका?"

मैं बिल्कुल भी तैयार नहीं था इस सवाल के लिये। मैंने वेटर से कहा कि मुझे तो कटनी में ही उतर जाना है। रात के खाने की जरूरत नहीं होगी। वैसे भी मेरे बैग में खाना था जो मैं घर से लेकर चला था।

वेटर उस लड़के को घूरता हुआ आगे बढ़ गया। लड़के के चेहरे के भाव भी कुछ सख्त हो गये। फिर जाने क्या हुआ, जिस साइड-लोवर बर्थ पर बैठा हुआ था उसके दोनों हिस्सों पर कुछ बुदबुदाते हुए उसने थूका। और सीट से उतरकर दरवाजे की तरफ बढ़ा। जाते-जाते पीछे मुड़कर देख भी रहा था। लगा कि वो अब वापिस नहीं आयेगा। मैं सोच रहा था कि ठीक ही किया उसने जो चला गया क्यूंकि जो हरकत अभी-अभी उसने की थी वो मेरे अलावा साथ बैठे दूसरे लोग भी देख रहे थे। और क्या पता कब किस बात पर किसी को गुस्सा आ जाये। ट्रेनों में लोगों के छुट्टा हाथों को चलते अक्सर ही देखा हैं मैंने और एक-दो दफे तो भुक्तभोगी भी रहा हूं।

लेकिन फिर मेरी नज़र सीट के नीचे पड़ी उसकी चप्पल पर पड़ी और सीट पर रखे गमछे पर - जिन्हें वो पीछे ही छोड़ गया था। और कुछ देर बाद वो खुद हाज़िर था। कहीं गया नहीं था, बस शायद वाशबेसिन से मुंह धोकर ही वापिस आ गया था वो। आते ही गमछा उठाकर सीट को साफ कर वो दोबारा लेट गया।

जब पेपर सोप वाला बूढ़ा लौटते हुए उसके सामने से गुजरा तो मुस्कुराते हुए उसने हाथ बढ़ा दिया। बूढ़े ने भी बड़े प्यार से कहा

"कुछ खाने की चीज होती तो जरूर दे देता, पेपर सोप लेकर तू क्या करेगा।"

ट्रेन कटनी पहुंचने ही वाली थी। मैं सोच रहा था कि उस लड़के को कुछ खाने को दूं। एक बार तो लगा कि बैग में जो खाना रखा है वो निकालकर दे दूं‌ उसे, लेकिन फिर घर के खाने का लालच मेरे उस ख्याल पर हावी हो गया।

उतरते-उतरते अपने बैग़ में रखा एक सेब मैंने उसे दिया। जब तक मैं ट्रेन से उतरता वो उसे खा चुका था और शायद पचा भी। आखिरी बार नज़र पड़ी जब उस लड़के पर तो वो मेरी तरफ देखकर कुछ बुदबुदा रहा था। शायद वही कि "सोने का चश्मा पहनने का सपना देखना बुरी बात है।" जाने किससे? अपने आप से या . . .

Wednesday, December 10, 2014

कहां गईं वो छिब्बी वालियां?


"ओ अम्मा, तीन छिब्बी और डलेगा कोयला, अभी तो बस चार  ही हुई हैं।"

"अब से चार ही मिलहीं बबुआ, गैस आ गई ना।"

 

ये संवाद उन दिनों का है जब हमारे घरों में ईंधन के तौर पर कोयले का इस्तेमाल होता था।  पिताजी कोयले की खदान में काम करते तो हर हफ्ते घर बैठे-बिठाये ही कोयला मिल जाया करता था। एक कोयले से भरा डम्पर मोहल्ले की किसी खाली जगह पर कोयला डाल जाता। जिसे फिर उस जगह से छिब्बियों में भर-भरकर अम्मा/बाई लोग अपने सर पर उठाकर हमारे घरों की बाऊंड्री के अंदर डाल जाया करती थीं। हमारा काम बस इतना होता कि बाहर से कोयला उठाकर घर के पीछे बनी कोठरी में‌ पहुंचा दिया जाये। हथौड़ी, चिमटा, सिगड़ी, बाल्टी, तगाड़ी, सब्बल, फावड़ा, कुल्हाड़ी जैसे कई जरूरी औज़ारों व सामान से भरी उस काली कोठरी में रात के समय पीला बल्ब टिमटिमाया करता था। घर की महिलायें और कभी-कभी पुरूष भी एक रोज भर की जरूरत का कोयला तोड़कर सिगड़ियां सुलगा लिया करते। दिन भर का खाना, चाय-नाश्ते से लेकर ठंड में गर्म पानी तक सब कुछ उन्हीं कोयले की सिगड़ियों की गर्माहट के भरोसे ही था।  ठंड के दिनों में तो कई दफे लोग गर्माहट के लिये घर के अंदर सोने वाले कमरे में ही सिगड़ी जलाकर रख लेते। अक्सर ही घटनायें सुनने को मिलती कि फलां मोहल्ले का फलां परिवार रात में सोते-सोते ही मर गया, क्यूंकि कोयला पूरी तरह जल नहीं पाया और धुआं जहरीला बन गया।

खैर धीरे-धीरे समय की करवट के साथ-साथ कोयले और सिगड़ी की जगह गैस वाले चूल्हों ने ले ली। साफ ईंधन के रूप में ये कोयले से कहीं ज्यादा बेहतर था। कोयला का इस्तेमाल तब भी होता था पर उतना नहीं। शाम होते-होते मोहल्ले के ऊपर छाया वो कोयले के धुएं के बादल अब उतने घने नहीं होते थे। हालांकि ये बात सिर्फ हमारे मोहल्ले के लिये ही सही थी। माईनर क्वाटर्स, जिसे लोग माइनस क्वाटर्स भी कहा करते थे (शायद उनके बहुत ही छोटे होने के कारण), के आस-पास तब भी पहले जैसा ही माहौल रहता। शायद गैस के चूल्हे तब तक नहीं पहुंचे थे वहां।

वैसे आज कालरी के हर कामगार के घर में गैस आ गई है। लेकिन मैं सोचता हूं कभी-कभी कि कहां गईं वो छिब्बी वालियां?              

Saturday, November 8, 2014

सुबह सवेरे

गांव की पगडंडी,
टहल रहा हूं मैं ...

सामने है,
बिजली के
ऊंचे-ऊंचे खम्बों से
झूल रही
मोटी-मोटी तारों
के उस पार
नई सुबह का
नया-नया सूरज ...

मानो,
सुनार की दुकान में लटकी
एक मोती की माला
या,
परचून की दुकान पर
धागे में पिरोई हुई
एक संतरी टॉफ़ी ...

सोच ही रहा था मैं
कि कौन इसे पहनेगा?
या,
कौन इसे खायेगा?

तभी लगा कि
सूरज को
गुस्सा आ रहा है।
वो गर्म होकर
ऊपर उठने लगा...

लगा,
जैसे कि कह रहा हो मुझसे
ऐ लड़के!
चल भाग यहां से।
थोड़ी ही देर में
इतना गर्म हो जाऊंगा कि
पहनना और खाना तो दूर
तू मुझे देख भी नहीं‌ पायेगा...

सूरज की गर्मी देख,
अपनी आंखें नीची किये
मैं
घर लौट आया...

Tuesday, October 14, 2014

प्रधानमंत्री मोदी के नाम एक चिठ्ठी

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी,

बीती 10 तारीख मैं अपने घरेलू राज्य मध्यप्रदेश पहुंचा। लंबे सफर की थकान थी, तबीयत भी कुछ नासाज़ थी; लेकिन जैसे ही अख़बार हाथों में लिया, शरीर में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ। ये शायद कुछ-कुछ आपके उन भाषणों को सुनने जैसा ही था, जिन्हें सुनकर सुनने वालों के अंदर एक नया जोश भर जाता है। उन भाषणों को सुनने ना जाने कितने ही कामगार-मजदूर आते हैं जिन्होंने अच्छे दिनों की आस में आपको प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया है।


पहले पन्ने पर ही बड़े-बड़े अक्षरों में आपके श्रीमुख से निकले शब्दों को जगह मिली हुई थी "भारत को सिर्फ़ बाज़ार ना समझें: मोदी"। मौका था हाल ही में संपन्न हुए वैश्विक निवेश सम्मेलन (इंदौर) का, जिसमें आप पधारे हुए थे। आपके अनुज मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान भी मौजूद थे और साथ ही एक पूरी टोली थी पूंजीपति-ठेकेदारों की। इस टोली में इस देश के पहले नम्बर के अमीर पूंजीपति मुकेश अंबानी से लेकर हाल ही में दंसवे नम्बर पर पहुंचे गौतम अडानी भी थे।  आपके सामने इन सभी ने मध्यप्रदेश में पूंजी-निवेश के बड़े-बड़े वायदे किये।  मुख्यमंत्री जी ने भी उन सभी को आश्वासन दिया कि "खुलकर निवेश करें, परिश्रम व पूंजी बेकार नहीं जाने दूंगा: शिवराज"। आपने भी फिर से सवा सौ करोड़ देशवासियों का जिक्र करते हुए पूंजीमालिकों को याद दिला दिया कि "भारत को सिर्फ़ बाज़ार न समझें व यहां के लोगों की क्रय-शक्ति यानी कि खरीदने का सामर्थ्य बढ़ाये बिना आप लोगों का सपना पूरा नहीं हो पाएगा"। बात तो बहुत बढ़िया कही आपने।

वैसे आपका इस कार्यक्रम में इन पूंजीपतियों के बीच होना व आपकी उपस्थिति में मुख्यमंत्री के द्वारा उन्हें दिये गये तमाम आश्वासन यही सुझाते हैं कि आप भी विकास के उसी माडल पर विश्वास करते हैं जिसके मुताबिक पूंजी के बिना विकास असंभव है क्यूंकि पूंजी के बिना रोजगार पैदा नहीं हो सकता। सीधे शब्दों में कहें तो आप मानते हैं कि पूंजी ही श्रम को जन्म देती है।  और पूंजी तो है पूंजीपतियों के पास, इसीलिये विकास का रास्ता भी यही दिखलायेंगे व विकास इन्हीं की शर्तों पर होगा।

हालांकि मैं विकास के इस माडल से सहमत नहीं हूं, क्यूंकि मेरा मानना है कि पूंजी श्रम को नहीं बनाती बल्कि ये इंसानी श्रम ही है जो अपने अलग-अलग रूपों में पूंजी पैदा करता है। इसलिये विकास का माडल श्रमिकों व कामगारों को केन्द्र में रखकर उनकी भागीदारी से तैयार किया जाना चाहिये नाकि पूंजीपतियों के। लेकिन अख़बार में आपकी कही बातें पढ़कर एक बारगी तो मुझे लगने लगा कि मैं ही गलत सोच रखता हूं और अब तो श्रमिकों के अच्छे दिन आ गये हैं और शुरुआत मध्य-प्रदेश से हो ही गई है। 

लेकिन जैसे ही मैंने आगे की खबरें पढ़ने के लिये अख़बार के पन्नें पलटे, श्रमिकों के लिये अच्छे दिनों का सपना टूटता सा लगा। खबर ही कुछ ऐसी थी। मेरे घर के पास ही कुछ कोयला खदानें हैं। उन खदानों में काम पर लगे ठेका-श्रमिकों से जुड़ी एक खबर छ्पी थी। "मजदूरी ना मिलने से परेशान मजदूरों ने किया प्रदर्शन"। ये मजदूर-कामगार पिछले 4 महिनों से तनख्वाह ना मिलने के चलते सड़कों पर उतरे हुए थे।  ना ठेकेदार उनकी बात सुन रहा था, ना कालरी प्रबंधन और ना ही स्थानीय प्रशासन। लगता है शिवराज जी सिर्फ़ पूंजीपतियों के परिश्रम को ही बचाने की बात कर रहे थे। मुझे लगा कहां मोदी जी क्रय-शक्ति बढ़ाने की बात कर रहे हैं और कहां इन मजदूरों को वेतन ही नहीं नसीब हो रहा। ना जाने कितने लोगों ने आपके कहने पर बैंकों में खाते खुलवाये होंगे, पर उन खातों में डालें क्या सवाल तो यही है।


मुझे असली झटका तो अगले दिन के अख़बार की एक खबर पढ़कर लगा जिसकी हेडलाईन थी "व्यापारियों, कारखाना-मालिकों को परेशान नहीं कर पायेंगे अब लेबर इंस्पेक्टर"।  जो बात इस खबर व उससे जुड़ी मध्यप्रदेश सरकार के राजपत्र को पढ़कर मेरी समझ में आई कि मध्य-प्रदेश सरकार ने एक नई स्कीम शुरु की है - वालेंटरी कम्प्लायंस स्कीम (स्व-प्रमाणीकरण योजना); जिसके तहत श्रम कानूनों से जुड़े 16 अधिनियमों, जिसमें वेतन भुगतान अधिनियम, न्यूनतम वेतन अधिनियम भी शामिल हैं, से जुड़े मामलों में श्रम विभाग के इंस्पेक्टर कारखानों की जांच अब पहले की तरह कभी भी और बिना सूचना दिये नहीं कर पायेंगे। जो कारखाना मालिक इस स्कीम से जुड़ेंगे उनसे अपेक्षा होगी कि वो अपने नियोजनों मे तमाम श्रम कानूनों का स्वेच्छा से पालन करेंगे। साथ ही उनके कारखानों व नियोजनों में अब सिर्फ़ 5 सालों में एक बार ही जांच की जा सकेगी और उसके लिये भी मालिकों को पहले ही सूचना दे दी जायेगी।  इसके अलावा और भी बहुत कुछ था राजपत्र में जिसे पढ़कर लगा कि आने वाले दिन श्रमिकों के लिये और कुछ भी हों अच्छे तो नहीं ही जान पड़ते।

वैसे ये बात भी सही है कि श्रम-विभाग अपनी जिम्मेदारी निभाने में पूरी तरह विफल रहा है- लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि ऐसी स्कीमें बनाकर सरकारें कामगारों के अधिकार मालिकों की इच्छा के भरोसे छोड़ दें। साफ़ जाहिर है कि ऐसी तमाम स्कीमें सरकारें निवेशकों को लुभाने के लिये ही निकाल रही हैं। अब निवेशक तो वहीं पैसा लगायेंगे ना जहां उनको ज्यादा फ़ायदा हो।  और फायदा पूंजीपतियों को तभी ज्यादा होगा जब कामगारों के अधिकार कमतर होंगे।

मोदी जी, आप अपने भाषणों में अकसर पानी से आधा भरा, आधा खाली गिलास दिखाकर कहते हैं कि "कोई कहता है कि ये गिलास आधा भरा है तो कोई कहता है आधा खाली - लेकिन मैं एक बहुत आशावादी व्यक्ति हूं, क्यूंकि मैं कहता हूं कि आधा गिलास पानी से भरा है और आधा हवा से"। ये बात सुनने में तो बहुत अच्छी लगती है, लेकिन अगर श्रमिक इसे हकीकत से जोड़कर देखते होंगे तो शायद सोचते होंगे कि सारा माल-पानी तो मोदी जी ने पूंजीपतियों को दे दिया और हमारे साथ तो वो बस हवा-बाज़ी कर रहे हैं। 
  
आपका,
विवेक

Saturday, October 11, 2014

प्रधानमंत्री मोदी के नाम एक चिठ्ठी

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी,

स्वच्छता और सफाई के प्रति आपका समर्पण देखकर लगा कि आपको एक पत्र लिखकर अपने मन की भावनाओं को भी सामने रखूं। यह पत्र बहुत लम्बा नही होगा तो आशा है आप इसे पढ़ेंगे व जवाब भी देंगे। पत्र के माध्यम से ना सही, अपने भाषणों में ही जिसे सुनने ना जाने कितने ही सफाई प्रेमी व सफाई कर्मचारी भी आते होंगे।

मोदी जी, जैसा कि मेरी समझ में आया सफाई के काम के प्रति आपका यह समर्पण व आदरभाव कोई आज की बात नहीं है। व्यक्तिगत जीवन में तो आप साफ-सफाई से रहते ही हैं और राजनीतिक जीवन में भी आपने अपनी यह प्रतिबद्धता गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर 'निर्मल गुजरात' जैसे कार्यक्रमों व कर्मयोग जैसी किताबों के माध्यम से जग-जाहिर की है। अपनी किताब 'कर्मयोग' में सफाई के काम के लिये आप लिखते हैं:

"किसी ना किसी समय किसी को दिव्यज्ञान हुआ होगा कि समूचे समाज और भगवान की खुशी के लिये उन्हें यह काम करना है। यही कारण है कि सदियों से यह सफाई का काम उनकी आंतरिक आध्यात्मिक गतिविधि के रूप में चलता रहा। इसी तरह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलता रहा।"

मोदी जी, हालांकि मैं आपके इस दर्शन से सहमत नहीं हूं, क्यूंकि मेरा मानना है कि सदियों से समाज के एक वर्ग-विशेष की एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के द्वारा यह काम किसी दिव्यज्ञान के चलते नहीं बल्कि मजबूरीवश किया जा रहा है। लेकिन मेरा मानना है कि आप अब भी अपने लिखे पर विश्वास करते होंगे।

अगर ऐसा है तो मेरा आपसे अनुरोध है कि अब जब आप इस देश की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे हुए हैं तो क्यूं ना आज इस मौके का पूरा फायदा उठाकर आप अपने दर्शन को लागू करें। ऐसा कहा जाता है कि  इस देश में हमेशा से ज्ञानियों का सम्मान हुआ है और जैसा कि आपने ही लिखा सफाई का काम करने वाले तो दिव्यज्ञानी हैं, इसलिये इनका तो सम्मान होना ही चाहिये।

जैसा कि मेरी समझ में आया कि आपको लगता है कि सफाई एक ऐसा काम है जो बहुत जरूरी है यानि की एक स्थाई काम है।  लेकिन इस काम में ना जाने कितने ही लोग अस्थाई रूप से लगे हुए हैं जिन्हें सुविधाओं के नाम पर तो कुछ नहीं मिलता; बस गनीमत है कि गुजारे लायक कमाई हो जाती है। मैला ढ़ोने व गटर की सफाई के काम में लगे लोगों के हालात तो अमानवीय है, फिर चाहे वो बनारस हो या दिल्ली। आश्चर्य होता है कि इस देश में दिव्यज्ञानियों के ऐसे भी हालात हैं। 

मेरा आपसे अनुरोध है कि आप इनके लिये एक सुचारू व्यवस्था बनाकर व लागू करवाकर इन सभी के काम को पक्का कर दें। ताकि ये सभी एक सम्मानजनक जीवन जीने के राह पर मजबूती से आगे बढ़ सकें।  आप जैसे मजबूत नेता को ऐसा करने में कोई दिक्कत नहीं आनी चाहिये।

आपने अमरीका में अपने एक भाषण में कहा था कि "एक सफाई कर्मचारी को भी लगना चाहिये कि वो एक अच्छा और जरूरी काम कर रहा है; प्रधानमंत्री से भी अच्छा काम कर रहा है।" मुझे उम्मीद है कि अगर आप इस सुझाव पर अमल करेंगे तो सच में सफाई कर्मचारियों को ऐसा ही लगेगा।

आपका,
विवेक

Monday, October 6, 2014

यात्राएं

पटना में हुई घटना से एक पुरानी कविता याद आ गई

पढ़ी दो खबरें अखबार में।
दोनों ही मौत की थीं।
मर गये थे 6 जगन्नाथ यात्रा में हुई भागदौड़ में,
और अमरनाथ यात्रा से जुड़े प्रदर्शनों में,
4 मर गये थे इंदौर में।

सोच में पड़ गया मैं,
आखिर क्यूं ये धार्मिक यात्राएं,
होने से पहले,
होने पर,
और होने के बाद
जाने कितने ही लोगों को
धर्म की, आस्था की और श्रद्धा की बलि
चढ़ा जाती हैं?

Monday, September 22, 2014

सांप

शायद सांप भी इंसान से उतना ही डरते हों जितना कि इंसान सांप से। खैर ये डर एकतरफ़ा हो या दोतरफ़ा, मैं अपनी बात जानता हूं। आज अपने घर के जालीदार अहाते में बैठा कुछ लिख रहा था तो ये महोदय या महोदया मुझसे बस 1 मीटर की दूरी पर टहल रहे थे। इन दिनों बहुत बारिश हो रही है यहां, शायद उसी का नतीजा हो वरना मैंने इस तरफ़ नहीं देखा था इन्हें। मेरे तो पूरे शरीर में‌ सिरहन दौड़ गई। आंख बंद करता हूं तो उनकी वो मस्त चाल डरा जाती है। अभी भी उनके बारे में‌ सोच-सोचकर दिल की धड़कनें बढ़ा रहा हूं और घर की खिड़कियां बंद कर रहा हूं ।

दया हो उनकी जो मेरी तरफ नही आये और मौका दिया कि ये तस्वीर उतार लूं।




 

Wednesday, August 27, 2014

सोने का पिंजरा

इतना सुंदर हास्टल,
इतने सुंदर कमरे,
इतना सुंदर बागीचा,
इतना सुंदर खेल का मैदान,
इतनी सारी सुविधायें,
फिर भी जला दिया।

अरे, क्या जला दिया सर?

तुम्हें नहीं‌ पता? कहां‌ रहते हो?
इस संस्थान की तो चिंता ही नहीं‌ तुम्हें,
जाने क्या-क्या होता रहता है,
पर तुम होकि बस salary उड़ा रहे हो।
देखो तो कितना माहौल बिगड़ गया है।
कल रात किसी ने हास्टल वार्डन की तस्वीर जला दी।

अरे ये तो बहुत बुरा हुआ सर? लेकिन किसने जलाया और क्यूं?

इन बदमाश लड़कों‌ ने ही जलाया होगा और क्या?
हुल्लडबाज़ी, बदमाशी के सिवा आता ही क्या है?

पर सर तस्वीर जलाई क्यूं होगी?
और जरा ये तो बताईये कि वार्डन की तस्वीर हास्टल में लगवाई क्यूं गई थी?
हास्टल तो छात्रावास हुआ ना, वार्डनावास थोड़े ही।
छात्रों की तस्वीर होती तो बात भी थी, वार्डन की क्यूं?

अरे भाई ये फ़ालतू के सवाल मत पूछो,
इतना घिनौना अपराध हुआ है, उसका सोचो।
लड़कों ने वार्डन की तस्वीर जलाई है,
वार्डन एक शिक्षक भी तो है।
सोचो तो कितना बड़ा अपमान है?

हां, सर बात तो सही है आपकी, अपमान तो है।
पर ऐसे अपमान तो हम-आप आये दिन करते रहते हैं।

क्या बक रहे हो?

अरे सर देखिये ना, हम उस नेत्री की प्रतिमा का
अपमान रोज करते हैं जिसे कुछ सालों‌ पहले ही संस्थान में‌ लगाया गया था।
वो तो लड़ी थीं समाज में महिलाओं की बराबरी और आज़ादी के लिये,
हम एक तरफ़ तो उनकी प्रतिमा पर माला चढ़ाते हैं
और दूसरी तरफ़
हास्टलों में रहने वाले लड़के-लड़कियों के लिये ऐसे अलग-अलग नियम बनाते हैं
जो लड़कियों के हक में नहीं जाते।
ये अपमान तो कहीं ज्यादा बड़ा हुआ।

अरे भाई, तुम अजब इंसान हो,
कहां‌ की बात कहां जोड़ते हो।
बात लड़कों की हो रही है और
तुम लड़कियों को ले आये।
जरा सोचो,
कल को कोई तुम्हारी तस्वीर जलाये तो कैसा लगेगा तुम्हे?

हां सर, खराब तो लगेगा,
लेकिन मेरे लिये सजा देने से कहीं‌ ज्यादा
बड़ा सवाल होगा कि आखिर ऐसा हुआ क्यूं?
आपने वो टैगोर की कहानी पढ़ी है क्या,
सोने का पिंज़रा और तोते वाली।
जिसमें एक जंगली तोते के जंगलीपने से नाखुश राजा
उसे शिक्षित करने के लिये,
ताम-झाम के साथ एक पूरी व्यवस्था बनाता है,
सोने का पिंजरा बनवाता है,
महापंडितों की एक पूरी फ़ौज उस एक तोते को
शिक्षित करने के लिये के लिये तैनात करवाता है।
तोता अपना जंगलीपन तो भूल जाता है और
साथ ही सांस लेना भी।
एक दिन मरा पाया जाता है,
अपने उसी सोने के पिंजरे में।

पर सर, टैगोर का दौर गया,
अगर आज ये कहानी लिखी जायेगी तो,
तोता अंत में‌ मरेगा नहीं,
और अगर मरा भी तो अकेला नहीं।
आपने अमरीकी स्कूलों-कालेजों में
हुई उन घटनाओं के बारे में तो पढ़ा ही होगा,
जिनमें स्कूल के ही छात्रों ने
बंदूकें उठा,
जाने कितने ही अन्य छात्रों व शिक्षकों की
हत्या कर दी और फिर खुद को भी गोली मार दी।
सोचिये जरा, क्या मानसिक हालत रही होगी उनकी,
जो ऐसा किया।
ज़ाहिर है उनका उस व्यवस्था से विश्वास उठ गया होगा,
आशा की कोई किरण ना होगी,
अपना गुस्सा निकालने का और कोई रास्ता उन्हें सुझा ना होगा,
जो ये सब कर गये वो।
सजा तो खुद को दे ही दी उन्होंने,
अब जो सवाल बचता है वो ये कि
आखिर क्यूं?

अब सर, जरा हम अपनी व्यवस्था के बारे में‌ भी सोच लें,
हम भी ज़रा ये सवाल पूछ लें कि
आखिर क्यूं?
क्या यहां‌ छात्रों के पास अपना गुस्सा (जोकि बहुत स्वभाविक चीज है)
निकालने का कोई ज़ायज रास्ता है।
और अगर है भी तो क्या उनकी बात सुनी जाती है?
अगर ऐसा रास्ता है और उनकी बात सुनी जाती है
तो फ़िर ज़रूर ही उन लोगों को सजा दी जानी चाहिये,
वरना तो सजा देकर कुछ फ़ायदा नहीं,
क्यूंकि इससे गुस्सा कम नहीं होगा
बढ़ेगा ही।
और गुस्सा निकलेगा
तो सोने के पिंजरे को नुकसान भी होगा।

http://www.parabaas.com/translation/database/translations/stories/gRabindranath_parrot.html

 

Sunday, August 24, 2014

मूड

मूड तो सुबह-सुबह ही खराब हो गया
प्रोफ़ेसर साहब का
जब गली के कुत्तों ने सैर के दौरान
दौड़ा दिया उन्हें।

और फ़िर दिन भर उन ठंडी मीटिंगों
में‌ बैठे रहे
जिनमें सिर्फ़ दो ही चीजें गर्म होती हैं:
एक चाय और दूसरी
VC की फटकार।
मूड और बिगड़ गया,
इतना कि class में बच्चों के
खिलखिलाते-जगमगाते चेहरे देख
कोफ़्त होने लगी।

शाम को घर पहुंचे
बीवी के हाथों की मीठी चाय की आस में।
पर बीवी नदारद,
लौटी नहीं‌ थी पार्क से
जहां‌ बच्चों को लेकर गई थी।
मूड का तो पूछो मत,
सत्यानाश हो गया।

गुस्से में‌ निकले घर से,
कुछ दूर ही
एक नई बन रही बिल्डिंग के वर्कर,
काम के बाद एक झुंड में कबड्डी खेल रहे थे।
जाने क्या हुआ,
प्रोफ़ेसर साहब जोरों‌ से भौंकने लगे,
और गुर्राते हुए दौड़ पड़े उनकी तरफ़।

सुबह और शाम में बस इतना ही फ़र्क रह गया
कि सुबह एक के पीछे झुंड था
और शाम को झुंड के पीछे एक।

Friday, August 22, 2014

दो संवाद

पहला

"अरे भैया, पिचकू है क्या?"

"पिच्च्च्क्कू! ये क्या होता है?"

"अरे ईमली की चटनी।"

"नहीं भईया, वो तो नहीं है। ईमली है कच्ची। सस्ती भी पड़ेगी। दे दें?"

"पिचकू तो नहीं मिल रहा कहीं। चलिये दे दीजिये 100 ग्राम। वैसे अच्छा तो होगा ना। दही-बड़े के साथ की चटनी बनाने के लिये?"

"अरे भईया का बात करत हो। बहुत बढ़िया होगा। अच्छा एक बात और कहें आपसे?"

"हां-हां, बतलाईये।"

"आप लोगों ने ना औरतों की आदत खराब कर दी है, ये सब बना-बनाया सामान खरीद कर। पिचकू-फिचकू और ना जाने क्या-क्या। अरे कुछ काम-वाम भी करने दीजिये उन लोगों को। बस, बैठे-बैठे आराम से मुटाया करती हैं।"

"हम्म्म्म्म!"

"अरे हम लोग इतना काम करते हैं, कुछ वो भी तो करें।"

"लाईये भैया ईमली, कितना हुआ?"


दूसरा

"बढ़िया करवा लिये आपने नीचे के कमरे टाईल्स वगैरह लगवाकर।"

"हां जी, बहुत दिनों से विचार था, हो ही गया।"

"वैसे कितने दिनों तल चला काम?"

"यही कोई 4-5 महिना। दो-चार मजदूर लगे। हो गया।"

"कितनी मज़दूरी है यहां आजकल?"

"250-300 दिहाड़ी, पर आजकल मज़दूर मिलने में दिक्कत होती है।"

"अरे आपको तो मिल गये। हमारे यहां तो मिलते ही नहीं। सरकार 2 रुपया किलो चावल और 5 रुपये किलो दाल बांट रही है। बैठे-बिठाये मिल रहा है। फिर कोई काम क्यूं करे। सब अलाल हुए पड़े हैं।"






आखिर इन दिनों बनारसी सो क्यों नहीं‌ पाते?

मौका मिला है तो एक चुटकी ले ही ली जाए।

ज़रा सोचिये, आप बनारस में हों। गरमी की एक रात आपने उनींदी ही बिताई है क्यूंकि बिजली रात भर आंख-मिचौली खेलती रही और फिर सुबह जैसे ही आप अखबार की हेडलाईन देखते हैं, बड़े-बड़े अक्षरों में‌ लिखा मिलता है।





Thursday, April 24, 2014

संत मोदी

इन दिनों जिधर नजर पड़ती है वहीं संत मोदी की धूम है. उनके साक्षात्कारों में उनकी बातें‌ सुनकर कबीर का वो दोहा याद आ जाता है कि 

ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोइ,
अपना तन शीतल करे, औरन को सुख होइ। 

जाने उनकी वाणी में ये परिवर्तन कब हुआ और क्यूं, पर कुछ सालों पहले तक तो उनके जीवन का मूल-मंत्र जो मुझे समझ आता था वो ये था कि.

ऐसी वाणी बोलिये, जम के झगड़ा होये, 
और उससे कुछ मत बोलिये जो आप से तगड़ा (corporate-houses) होये। 
(Courtesy: Raju Srivastava interpretation mine) 

खैर कभी कभी तो लगने लगता है कि सच में मोदी संत हो गये हैं। और उनकी बातों में सच्चाई है, वो सच में विकासपुरूष ही हैं। पर जब हाल ही में कुछ जानकारियां मिली जो मोदी के गुजरात विकास के दावों की बखियां उखाड़ देती हैं तो बोधिसत्व नाम के एक जनकवि की कुछ लाईनें याद आ गईं।

तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है,
मगर ये आंकड़े झूठे हैं, ये दावा किताबी है...

उधर जम्हूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो, 
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है।


Dr. Atul Sood on the Truth Behind Modi's Development Model


A documentary by Gopal Menon busting the myths about Narendra Modi's vibrant Gujrath campaign

http://www.countercurrents.org/menon190414.htm


Friday, January 17, 2014

समन्दर

समन्दर के किनारे चुपचाप खड़े होकर उसे आंखों में भरते हुए ना जाने क्या कुछ ज़हन में आता है। सबसे पहले तो उसकी विशालता के सामने अपने अस्तित्व के छोटे और क्षणिक होने का एहसास होता है। और फ़िर समन्दर की आती जाती लहरें पैरों को कभी प्यार से सहलाते तो कभी जोरों से हिलाते ये कह जाती हैं कि जो आया है उसका जाना निश्चित है और इस क्रम में सुख और दुख दोनों ही मिलेंगे। वापिस जाती लहरों के साथ पैरों के नीचे से सरकती हुई रेत को चाहे जितनी भी मजबूती से खड़े रहकर पकड़ने की कोशिश करो वो उतनी ही ज्यादा और तेजी से सरकती है।