Thursday, December 22, 2011

स्वर्ग नरक और पैसा

एक गरीब बाप के मरने पर उसके गरीब बेटे ने धार्मिक कर्मकांड करने के मन बनाया 
और इस हेतु की पूर्ति के लिए उसने महापात्र को बुलवाया 
(महापात्र: वो पंडित जो मरने पर दान लेता है)

पंडित ने पूछा, दान कितने का है बच्चा ?
लड़का बोला, 
भगवन!
इंतजाम करके सब कुछ बचा है सवा रूपया 
इसी को दान में चढाऊंगा 
और अपने गरीब बाप की आत्मा को शान्ति दिलवाऊंगा.

पंडित ने दी एक कुटिल मुस्कान 
बोला 
अरे गरीब बाप के बेटे महान;
जरा इस बात पर विचार कर
की ऐसा कभी हुआ है भला
जो थर्ड क्लास की  टिकेट ले 
तू एसी में हो चला.

याद कर जैसे एसी के द्वार पर टीसी होते हैं खड़े
ठीक उसी तरह तेरे बाप की आत्मा और स्वर्ग के बीच हम हैं खड़े 
तू जब तक हमें प्रशन्न नहीं करेगा
तेरा बाप स्वर्ग के दरवाज़े पर ही खड़ा रहेगा.


इस सवा रूपया से तेरे बाप की आत्मा शान्ति नहीं पाएगी
अरे वो स्वर्ग क्या नरक में भी घुसने नही पाएगी.


लड़का बोला यजमान,
आपको मेरी स्थिति का नही है भान;


मैं गरीब हूँ, गरीबी में पला बढ़ा हूँ,
आज आपके सामने ये सवा रुपया लिए खड़ा हूँ.
पैसों के अलावा हर चीज़ से आपको प्रशन्न करवाऊँगा,
भले ही कल के लिए घर में न हो अन्न, पर आपको स्वादिष्ट भोजन करवाऊंगा 
पहन रहा हूँ सालों से ये फटी हुई धोती, पर आपको एक नयी जोड़ी दिलवाऊंगा.


पंडित हंसा, बोला;
पुत्र तू बहुत है भोला, बिल्कुल ही नादान,
इस देश के संस्कृति से बिल्कुल ही अनजान,
सिर्फ पैसों का ही दान कर सकता है तेरे बाप का कल्याण 
देता है तो दे वरना मैं करता हूँ प्रस्थान.


लड़का गिड़गिड़ाया, रोया, चिल्लाया
पर पंडित ने एक ना सुनी और वापिस चला आया.


पर लड़का था अचरज में बड़ा, 
सोच रहा था खड़ा खड़ा,  
कि बाप ने तो बताये थे कुछ और ही नियम संसार के,
जो कि जाने थे उसने इन्ही समाज के ठेकेदारों से.


कह गया था जाते जाते 
कि बेटा यह संसार मिथ्या है, छलावा है,
सच नही है, माया है.


बेटा, सच तो है दूर कहीं,
स्वर्ग नरक भी हैं वहीँ.
वहां तो हिसाब ही अलग है,
यहाँ जो कष्ट भोगता है, उसे मिलता वहां स्वर्ग है,
यहाँ पाकर भी कोई कुछ नही है पाता,
जिसने यहाँ मज़े उड़ायें हैं, उसने वहां नरक के कष्ट उठाये हैं. 



पर आज ये समाज के ठेकेदार एक नै बात ही बतला रहे हैं,
कि वो यहीं धरती से ही स्वर्ग-नरक चला रहे हैं.


सोच रहा था वो,
दिमाग में प्रश्नं उठ रहे थे बड़े,
कि जब होना है सब यहीं से संचालित,
तो स्वर्ग-नरक क्यों इतनी दूर हैं खड़े?
क्या सच-मुच हैं वो दूर कहीं?
क्या ये दुनियां ही स्वर्ग-नरक नहीं?


ऐसे कितने ही सवाल
उसके दिमाग में हलचल मचा रहे थे.
जाने उसे उसके सवालों के जवाब मिले या नहीं?
पर आस-पास खड़े लोग सब कह रहे थे यही,
कि जो उसके पास पैसा होता,
तो बाप उसका स्वर्ग के दरवाजे पर ना खड़ा होता. 

यात्राएं


पढ़ीं दो ख़बरें अखबार में 
दोनों ही मौत की थीं 


मर गए थे 6  जगन्नाथ यात्रा में हुई भागदौड़ में
और अमरनाथ यात्रा से जुड़े प्रदर्शनों में 
4 मर गए थे इंदौर में.


सोच में पड़ गया मैं 
की आखिर क्यूँ ये यात्राएं
होने से पहले 
होने पर 
या होने के बाद 
जाने कितने ही लोगों को 
धरम की, आस्था की, श्रद्धा की
बलि चढ़ा जाती हैं ?

Tuesday, December 20, 2011

कशमकश

रात भर सिसकती रही रात
अब भी सुबह के माथे पर कोहरा टपक रहा है


धुंध ने सब कुछ ढँक दिया है
सुंदर-कुरूप,
भला-बुरा ,
सही-ग़लत,
कुछ भी नही दीखता


कुछ ही दूरी पर
एक पंक्षी एक सूखे पेड़ की टहनी पर बैठा
जाने क्या कयास लगा रहा है
वो भी शायद उतना ही दूर देख पा रहा है
जितना की मै


उड़ने की हिम्मत शायद अभी दोनों में ही नही.

Saturday, November 19, 2011

बोगनबेलिया


जब पहुंचा साइकिल तक
माथे पर शिकन थी
दिमाग में उलझाते से ख्याल.
पर नज़र पड़ते ही डलिया पर,
दोनों ही गायब हो गए,
आँखों में चमक और
होठों पर हल्की सी मुस्कराहट ने
घर कर लिया...


जाने कौन रख गया था
मेरी साइकिल की डलिया में,
एक गुच्छा गुलाबी बोगनबेलिया का... 

कौन था वो? या थी?
गलती से या जान बूझकर,
या कोई ऐसे ही रख गया?
कुछ देर ये सवाल मन को गुदगुदाते रहे...


कोई पुराना ख़त जैसे
दोबारा पढ़ते हुए लगता है.
किसी पुराने दोस्त का ख्याल
जैसा असर करता है.
जैसे किसी के साथ होने की,
भविष्य की कल्पनाएँ
गुदगुदातीं  हैं.
कुछ वैसा ही लगा 
मैं खुश हुआ..


अजीब सा हल्कापन लगा,
देखकर उन्हें.
लगा कि ज़िन्दगी,
खूबसूरत है...


आज भी वो गुच्छा
मेरी साइकिल की डलिया में
रखा हुआ है,
सूख रहा है.
पर देखता हूँ जब भी उसे
अच्छा लगता है...


शुक्रिया मेरे दोस्त,
तुम जो भी हो.. 

Saturday, November 5, 2011

जश्न

ये जश्न याद दिला गया
common wealth games की, 
जिसमें इस जश्न की ही तरह,
जश्न से ठीक पहले
कामगारों की
स्वर्ग से बिदाई कर दी गई थी...

Monday, May 23, 2011

सूरज का सातवाँ घोड़ा

बहुत तेज़ दौड़ता है,
शायद सबसे तेज़,
सूरज का सातवाँ घोड़ा..

पलक झपकते ही ना जाने
कितने ही फर्लांग लांघ जाता है,
सूरज का सातवाँ घोड़ा..

लेकिन अकेले नहीं खींच सकता
सूरज के रथ को,
सूरज का सातवाँ घोड़ा..

Sunday, April 17, 2011

हमारा सन्देश

देखा है कभी किसी पेड़ को ध्यान से ?
पर ध्यान से देखने के बाद भी तो
सिर्फ ज़मीन के ऊपर ही देख पाते हैं हम
ज़मीन के नीचे दबी जड़ों को कहाँ देखा है हमने?
जड़ें, जो मिट्टी में सनी हुई हैं
इस कड़ी ज़मीन में अपना रास्ता बना रही हैं
जाने कैसे जी रही हैं?
पर कितना ज़रूरी है उनका जीना
इस पेड़ को जिंदा रखने के लिए
काश पेड़ों की शाखाओं पर टंगे हम
ये बात समझ पाते
कि पेड़ में सिर्फ फूल नहीं होते
पत्तियां नहीं होतीं, फल ही नहीं होते
जड़ें भी होतीं हैं
और वो जी ना पायें अगर
तो पेड़ भी मर जाता है....

Monday, April 11, 2011

उनका सन्देश

वो कहते हैं हमसे
कि उन्हें गर्व है
इन भव्य इमारतों पर
बड़ा खुश होते हैं
वो इन्हें देखकर

और  ये भी कहते हैं कि
हमें भी होना चाहिए
गर्व
इन स्वर्ग सी इमारतों पर
जिन्हें बनाने वालों की विदाई
अब वहां से हो चुकी है.

हम गर पूछते हैं उनसे
कि वो कहाँ गए
तो जवाब मिलता है
जिस नरक से आये थे
वहीं लौट गए
पर तुम उनके बारे में
मत सोचो.

वो कहते हैं
कि भले ही
हम लोगों ने हमेशा
गीता के सन्देश
कर्म करो फल की चिंता मत करो
की दुहाई दी है
पर वो सन्देश
हमारे लिए नहीं है
उनके लिए है
जो चले गए .

हमारे लिए सन्देश
अलग है
फल खाओ और कर्म की चिंता मत करो
और ना उनकी
जो कर्म कर रहे हैं.
समझे....

Friday, April 8, 2011

जन्मदिन

जन्मदिन हर बार जोड़ जाता है
एक पन्ना
मेरी ज़िन्दगी की किताब में
यही तोहफा है उसका
मेरे लिए

उस पन्ने पर
छाप है 
कुछ पिछले पन्नों की
बाकि खाली है
लिखने को
मेरे और दूसरों के लिए 

सच ही तो है 
मेरी ज़िन्दगी की किताब 
मैं अकेला कहाँ लिख रहा हूँ 
कई हाथ शामिल हैं 
इसे लिखने में 

हाँ ये बात और है कि
इनमे से कुछ की शक्लें मैं पहचानता हूँ 
कुछ को नामों से जानता हूँ
और 
अनगिनत ऐसे भी हैं 
जिन्हें कभी देखा नहीं 
सुना भी नहीं 

Monday, March 7, 2011

क्यूँ?




कितनी आसानी से हम अपने घरों, अपने समाज में महिलाओं की भूमिका भूल जाते हैं. अब देखिये ना, मेरे पिताजी पिछले महीने अपने काम से रिटायर्ड हुए. इस मौके पर उनके सम्मान में बिदाई समारोह का आयोजन किया गया. जिसमें उन्हें बुलाया गया, उनका सम्मान किया गया. वो इस सम्मान के लायक भी हैं. अपना काम जिम्मेदारी से किया उन्होंने. पर एक सवाल जो मेरे दिमाग में आता है वो ये कि क्या मेरी माँ के बिना मेरे पिताजी का उनके काम को जिम्मेदारी से निभा पाना संभव था? अगर मेरे पिता जी निश्चिन्तता के साथ खदानों में अपना काम कर पाते थे तो ज़रूर मेरी माँ ही उसका कारण रहीं होंगी. घर के कामों को, जिन्हें अमूमन काम ही नहीं समझा जाता, मेरी माँ ने बखूबी निभाया. हम ३ भाई बहनों को बड़ा किया, हमारा ख्याल रखा, घर से जुड़ी सारी जिम्मेदारियां निभाईं और अब भी निभा रही हैं. फिर क्यूँ उन्हें और उन जैसी अनेकों महिलाओं को उचित सम्मान नहीं मिलता?


Friday, March 4, 2011

कहने को तो (यादें हॉस्टल की)

मैंने इंजीनियरिंग की पढाई की है, पर पढाई करने भर से तो कोई वो बन नहीं  पाता जिसकी पढ़ाई की हो, तो अपने साथ भी वैसा ही है. मुझसे कहीं ज्यादा बेहतर इंजिनियर मेरे पिताजी हैं, जिन्होंने कहने को औपचारिक तौर पर उसकी शिक्षा नहीं ली है. 

पर पढ़ाई के अलावा भी बहुत कुछ किया कालेज में. कुछ अच्छे लोगों से मिला. चंद अच्छे दोस्तों से अपनी पोटली भरी. वो कॉलेज के साथी, खासतौर पर उनके साथ बिताया हॉस्टल का समय और उससे जुडी यादें अकसर ही मन को गुदगुदाती हैं. 

उन्हीं की याद  में ...



कहने को तो
पिछले कई सालों में नही मिला उनसे,
पर याद जब भी आते हैं वो,
तो होठों पर हँसी लौट आती है.

याद आता है मुझे कि
कैसे मैं और बाबा दानिश
साथ मिलकर हिट गानों की
पैरोडी बनाते थे
हँसते थे, हंसाते थे
रात में भुतुआ
कहानी सुनाते थे 
आलोक को डर लगता था
उसे ही डराते थे.

कभी किसी की
कम्बल कुटाई करते
तो कभी किसी का
नास्ता चुराते थे.
कहने को तो
पढने के लिए जागते थे
पर इंतज़ार रहता था
शंकर के पराठों का
जिन्हें खा कर बस सो जाते थे.

वो घी का भगोना
जो राजा जी,
गाँव से लेकर आए थे.
वो आचार का डिब्बा
जो आलोक घर से लेकर आया था
दूसरे कमरों के साथियों
से उसे बड़ी मुश्किल से बचाते थे.

कहने को तो
वो डिब्बे कब के खाली हो गए
पर पराठों पर तैर रहे घी की गंध
और आचार का स्वाद,
मुझे अब भी याद है.









वो रेगिंग का मौसम,
चान्टो से लाल हुए गालों के संग,
जब हॉस्टल के साथी सामने आते थे,
हम सब भी हदस जाते थे.

खबर आती जब
रात को दरवाजा खोल कर सोने की
हम कैसे हॉस्टल से बाहर
दोस्तों के रूम पर सो जाते थे.

कहने को तो
वो गाल कब के लाल हो गए
पर उन हाथों की गर्मी
मुझे अब भी याद है.

वो सिंह का गाना,
दिनों से भिगोये कपडों
को रात में धोना,
१२ बजे उठ के,
शेव बनाना.
उसकी वो दानिश से लडाई,
और वो अलार्म वाली घड़ी भाई,
जिसे गौरव ने उठा कर पटक दिया था.

कहने को तो
वो फिर कभी नही बजी,
पर वो सिंह का बचपना
मुझे अब भी याद है.   

वो फर्स्ट इयर के पेपर
वो जैन का आना,
पेपर लीक हो गया है,
ये हॉस्टल में फैलाना.
वो पेपर का मिलना
पर एक्साम में उसके प्रश्नों का आना

कहने को तो
उन परीक्षायों के रिजल्ट
कब के गए
पर उन परीक्षायों की तैयारी
मुझे अब भी याद है.

वो क्रिकेट का सीज़न
वो गौरव और सिंह
दोनों ही थे
अपनी टीमों के कैप्टेन

वो दिन भर का क्रिकेट
वो सिंह की बदबू मारती जुराबें
वो गौरव का टेम्पर
वो बड़ी-बड़ी बातें

फंस गए थे
बीच में
मैं और राजा जी

कहने को तो
वो मैच कब के ओवर हो गए
पर वो सिंह और गौरव की बैटिंग
मुझे अब भी याद है.

वो शनिवार की क्लास
वो गौरव का नहाना
वो सिंह का गुस्से में दरवाजा पीटना
और चिल्लाना

वो राजा जी का शाही अंदाज़
वो सलीके से रखी हुई बात
वो गौरव का बिस्तर पर लेटकर पढ़ना
वो और लोगों को पढाना

वो सिंह का नंगे पाव घूम कर आना
और सीधे बिस्तर पर चढ़ जाना
वो गौरव का गुस्सा होना
और अपना अलग बिस्तर गाना

कहने को तो
अब सब अलग हो गए
पर
वो सबका साथ
मुझे अब भी याद है..


Wednesday, March 2, 2011

मेरा दोस्त OP

OP उन लड़को में से नहीं (जिनमे मैं भी आता हूँ) जो खाना बनाने का शौक तो रखते हैं पर कुकर की सीटी भी नहीं लगा सकते, उसे खाना बनाकर औरों को खिलाने से प्यार था (उम्मीद है अब भी होगा)...मेरी आज तक उससे ऐसी कोई भी बात-चीत नहीं हुई जिसमें खाना बनाने का जिक्र ना आया हो..

उसके बचपन का नाम गोपी था, बड़ा मस्त हसमुख बच्चा था वो, मोटा ताजा...पिता जी किसी दूसरे शहर में काम करते, और वो अपनी डॉक्टर माँ, छोटी बहन और दादा जी के साथ ही रहता...बैठना और चलना शुरू करते ही उसमे एक अच्छे कुक होने के गुण नज़र आने लगे थे...माँ जब भी रसोई में होती तो पास जाकर खडा हो जाता; खाना बनते बनते ही चखने की जिद करता, बोल तो पाता नहीं  था तो अजीब से मुंह बनाकर अच्छा या खराब बना है, ये अपनी माँ को बताता...थोडा बड़ा हुआ तो माँ की सब्जी, वगैरह काटने में मदद भी करने लगा...

उस समय गैस चूल्हे का इस्तेमाल नहीं होता था, तो कोयले की सिगडी इस्तेमाल की जाती थी; माँ जब रोटी बना रही होती तो उसके पास बैठकर, आटा मांगकर, कभी उस आटे से कछुआ बनाता और कभी चिडिया; फिर उसे सेंकने के लिए माँ से कहकर सिगडी के निचले हिस्से में रखवाता...जब वो सिक जाती तो अपनी बहन को खिलाता और पूछता कि कैसा बना है? 

दादा जी के साथ बाज़ार से सब्जी भाजी खरीदने के लिए साथ जाने की जिद करता...ऐसे ही एक बार वो 4 साल की उम्र में वो उनके साथ हाट बाज़ार गया; दादा जी ने खाने के लिए समोसा खरीद कर दे दिया; जिसे हाथ में लिए वो घूम रहा था...उसके हाथ में समोसा देखकर एक कुत्ता उसके पीछे पड़ गया, कुत्ते को पास आता देखकर, वो डर गया और समोसा हाथ से झूट गया...कुत्ते ने समोसा तो गपक लिया पर जाने क्यों OP साथ छोड़ने का उसका मन नहीं हुआ; और उसके पीछे-पीछे हो लिया...दादा जी को ये साथ कुछ पसंद नहीं आया इसलिए उन्होंने कुत्ते को छड़ी से भगाना चाहा; और एक छड़ी रसीद भी कर दी, बस कुत्ता तो जैसे पागल ही हो गया; दादा जी का तो वो कुछ बिगाड़ नहीं पाया, पर बेचारे OP की छोटी-छोटे टांगो में अपने दांत गडा दिए;

ह्म्म्म्म, सारे बाज़ार में हल्ला हो गया, डॉक्टर दीदी के बच्चे को कुत्ते ने काट खाया, वगैरह वगैरह...खैर दादा जी उसे लेकर घर पहुंचे, माँ को पता चला तो परेशान हो गयी...उस समय कुत्ते के काटे पर १४ इंजेक्शन लगते थे और वो भी पेट पर...मुझे तो सोचकर ही डर लगता है, पर बेचारे OP को तो सच में लगे...

इस दौरान किसी पडोसी ने दादा जी को समझा दिया कि इस इंजेक्शन वगैरह से कुछ नहीं होने वाला; और सुना है कि वो कुत्ता पागल हो गया है, और अगर वो कुत्ता कहीं 10 दिन में मर जाए तो OP को कोई नहीं बचा सकता ..इतना सुनकर दादा जी सकते में आ गए और फिर कवायत शुरू हुई, OP को छोड़ कुत्ते का हाल- चाल लेने की...

सारा मोहल्ला उस कुत्ते की खोजबीन में लग गया...बड़ी मुश्किल से पता चला कि OP को काट खाने के बाद वो जनाब, पास वाली नदी के पास नहाते देखे गए हैं, जैसे किसी पार्टी में जाने की तैयारी हो...बस फिर क्या था...पूरा दल कुत्ते को पकड़ने के लिए चल पडा...खैर बड़ी मुश्किल से उसे पकड़ भी लिया गया...अब जद्दोजहद ये थी कि कुत्ते को कम से कम १० दिन तो ज़िंदा रखा जाए...लोगों ने सलाह दी कि दादा जी कुत्ते को घर ले जाएँ  ताकि वो नज़रों के सामने रहे..वहां उसकी अच्छे तरीके से खिलाई पिलाई हो और उसका ख्याल रखा जा सके...

कुत्ते को घर लाया गया..आँगन में ही बाँध दिया गया...OP के कमरे की खिड़की से वो नीचे आराम से दिखाई दे जाता..OP बिस्तर पर पड़े-पड़े अपनी बहन से कुत्ते के हाल-चाल लेता...उसका बस चलता तो वो भी कुत्ते की टांग काट कर आता; पर ये उस समय तो मुमकिन ना था...उसे दादा जी पर भी बड़ा गुस्सा आ रहा था कि एक तो कुत्ते ने उसकी टांग काट खाई और एक वो हैं कि  रोज़ उसे, दूध, अंडा, हड्डी खिला रहे हैं...और उसे खाने को खिचडी दी जाती है...OP ने मन ही मन कसम खाई एक बार ठीक हो गया तो रोज़ अच्छा अच्छा बनाऊंगा और खाऊँगा..

उस दिन का गुस्सा OP आज भी निकालता है, हाँ ये बात और है कि अब उसे गुस्सा नहीं प्यार आता है, और अब उसे खुद के लिए पकाने से ज्यादा मज़ा आता है किसी और के लिए पकाने में और उन्हें खिलाने में...

   OP

Monday, February 28, 2011

कैसे हैं पिताजी?

आज मेरे पापा रिटायर्ड हो रहे हैं, पिछले ३८-४० सालों से कोयले की खदानों में काम करने के बाद. बड़े ही मेहनती व्यक्ति हैं और काम में माहिर. जाने कैसे वो अपना वक़्त बिताएंगे अब? उम्मीद है अच्छे से ही. मेरी शुभकामनाएं उन्हें.

मेरे एक बहुत अच्छा दोस्त है विश्वजीत. जितना अच्छा इंसान है उतना ही अच्छा लिखता है. अकसर बांटता रहता है मुझसे जो लिखता है. 

एक दफा उसने लिखा: 

कई बार जब पेड़ की टहनियां बढ़ जाती हैं तो भूल जाती हैं उस पेड़ को जहाँ से वो पनपी..बड़ी हुई..और फल देने लगी..उन टहनियों को आज भी वो पेड़ अपने सीने पे ढोए खड़ा है..

अक्सर जब वो दफ्तर से आते ,
हम झाडियों में गेंद खोजा करते,
माँ वहीँ दरवाजे पर ओट लगाये,उन्हें निहारती रहती,,,

वो कभी हमे गोद में उठा लेते ,
कभी प्यार से पीठ थपथाते ,,
कभी माँ से शरारत करते ,
तो कभी क्यारियों में पौधों की कुदाई करवाते ,,
कई दफा वो दिन भर के थके हमसे बात न करते,
माँ हमे इशारे से समझती,और हम उन्हें अकेला छोड़ देते,,,

हमारी नयी किताबो पर जिल्द चढाते ,,पहले पन्ने पर हमारा नाम लिखते ,,
अच्छा पढने पर ईनाम का लालच देते,
गलतियों पर डाटते,
बीमारी में माथा चूमते,हथेलियों को सहलाते ,,,,,

हम माँ के साथ उनकी थाली लगाते,
बारी-बारी से हम माँ की सेकी रोटियां उन तक पहुचाते ,,,,
माँ के पल्लू से वो हाथ पोछते ,,,
बिस्तर पर कुछ देर हमसे बातें करते ,,माँ को दफ्तर के कुछ किस्से सुनाते ,,,,
कई साल बीत गए ...........
अब हम झाडियों में गेंद नही खोजा करते,
माँ अब भी दरवाजे पर ओट लगाये ,उन्हें निहारती है,,,

वो आज मिलते....तो, उनसे लिपटकर रोता,
उनकी हथेलिया चूमता ........
पूछता,,,,,,,,,,,"कैसे है पिताजी?"



उसकी इस अभिव्यक्ति ने मेरे भी मन में छुपी यादों को हिलाया.
याद है मुझे वो पापा का चांटा
जब स्कूल से आते वक्त
मैं अपने दोस्त समीर के साथ कहीं घूमने चला गया था
बड़ी देर तक जंगलों में घूमते हुए जब हम रोड पर पहुँचे,
तो सामने ही वो साइकिल पर खड़े थे
बड़ा बुरा लगा था मुझे
उस कदर रोड पर चांटा खाना

याद है वो शाम भी
जब अंधेरे में देर तक क्रिकेट खेलने के कारण
घर से बाहर निकाल दिया था उन्होंने
पडोस के दद्दा ने बड़ी मुश्किल से
घर के अन्दर करवाया था मुझे

याद है मुझे एक बार की बात
कि जब वो नहाने गए थे
और मैंने बाथरूम का दरवाजा धक्का देकर
खोल दिया था
याद नही इस बात पर मुझे मार पड़ी थी या नही

याद है मुझे कैसे एक बार वो दिवाली पर बीमार थे
और हम लोगों ने पटाखे नही फोडे थे
उदास से गुमसुम बैठे हुए थे
तभी उनके दोस्त, कुग्गी चाचा आए थे
और तब हमें लगा था कि आज दिवाली है.

वो इंग्लिश मीडियम स्कूल का टेस्ट
जिसे दिलवाने के लिए
मुझे वो साइकिल पर बैठाकर लेकर गए थे
जब और लोगों की गाड़ियों के बीच अपनी साइकिल खड़ी की उन्होंने
तब उनकी आंखों में आए अजीब से भाव
मुझे अब भी याद है

उस रात मैं उनसे चिपक कर सोया था
कितना अच्छा लगता था मुझे
जब वो मेरे सर पर अपना हाथ फेरते थे.
मेरे कान में अपनी ऊँगलियाँ फिराते थे
मुझे लोरियां सुनाते थे.

मुझे याद है वो एक शाम
जब मैं और वो साथ में मिलकर कितना रोये थे
उन्होंने अपने बचपन के दिनों की बात बताईं थी
कि कैसे कभी खाने में सब्जी न होने पर 
नमक वाले पानी के साथ रोटियां खायीं थी
 
मुझे याद है उनकी वो साइकिल
जिसके चैनकवर पर
कर्म ही पूजा है
ऐसा लिखा रहता था

वो हमे अपने हाथों से
ला लाकर रोटियां खिलाते थे
मेरे लिए अपने हाथों से कटोरे में 
दाल-चावल, सब्जी और गर्म घी मिलाते थे.
उस दाल चावल का स्वाद
मुझे अब भी है याद.

Sunday, February 27, 2011

चाँद की नाक बह रही है

शाम को लेटा तो आँख लग गई,
सपने में जब अचानक आसमान की तरफ नज़र गई
तो देखा कि चाँद की नाक बह रही है.
सोचा, पोंछ दूं.

जेब से रूमाल निकाल कर
जैसे ही चाँद की तरह हाथ बढ़ाया,
ना जाने कहाँ से दो पंछियों का एक जोड़ा
आसमान में प्रकट हुआ और
मेरे हाथों से रूमाल लेकर उड़ गया.
उनके इस करतब से मैं अचरज़ में पड़ गया.

पर चाँद की नाक अब भी बह रही थी.
मैंने आसमान में तैर रहे बादलों से कहा
कि वो बारिश कर दें,
पानी से धोकर,
चाँद की नाक साफ़ कर दें.

वो बोले ये चाँद बड़ा बदमाश है.
हमारे मना करने पर भी रात भर,
पेड़ों से कच्चे आम तोड़-तोड़ कर
खाता रहता है.
अब उसकी नाक नही बहेगी तो और क्या होगा?
पहले उससे बोलो कि आज रात आम ना खाए
तब हम उसकी नाक साफ़ कर देंगे.

मैंने चाँद से बादलों की बात कही.
चाँद बोला,
मेरी नाक बहने से तुम क्यों परेशान हो.
बहती है तो बहने दो.

तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई और
मेरी नींद टूट गई,
जो आया था उसे जल्दी से टरका कर,
चाँद और आमों के बारे में सोचते हुए,
दोबारा सोने की कोशिश की,
पर कमबख्त नींद नही आयी.
बेमन से ऊंघते हुए,
कमरे से बाहर निकल कर खड़ा हो गया.

कमरे के पास ही लगे
आमों से लदे पेड़ पर नज़र गई
और उसकी पत्तियों के झुरमुट से झाँक रहे
पंचमी के चाँद पर भी.

मुझे वो मुस्कुराता हुआ सा लगा
और उसकी तीखी नाक भी दिखी.
पर इतनी दूर से पता नही कर पाया कि
वो आम खा रहा था या नही....


ये कविता एकलव्य समूह की बच्चों की मासिक पत्रिका चकमक में "सपने में चाँद" शीर्षक से भी छपी थी पिछले दिनों.

Friday, February 25, 2011

ढ़ाक के तीन पात

"ढ़ाक के तीन पात" बचपन से सुनता रहा हूँ ये कहावत और कहिये तो कई बार इसे इस्तेमाल भी किया होगाकहाँ पर इस्तेमाल करना है इसे ये तो पता था पर इसमें आये शब्दों का मतलब मुझे नहीं पता था या यूं कहूं कि गौर ही नहीं किया कभी कि मतलब क्या है इनका? वैसे भी स्कूलों में जो पढ़ाते हैं, अधिकतर तो रटवा दिया जाता है और मतलब पूछने पर जवाब मिले ना मिले डांट मिलने की संभावनाएं अकसर ही होती हैंइसीलिए बच्चों को गौर करने से डर लगता है

खैर अब मुझे मतलब पता है इस कहावत के शब्दों का। "ढ़ाक के तीन पात" मतलब ढ़ाक नाम के पेड़ के तीन पत्तेपिछले दिनों ही हमारा मंच की मीटिंग के बाद एक साथी ने जो टिपण्णी की अगर उसे इस कहावत का सहारा लेते हुए कहूं तो कुछ ऐसे कहूँगा " कि पिछले 3 सालों से मीटिंग कर रहे हो पर इन मीटिंगों में दिखते वही कुछ चेहरे ही हैं...वही ढ़ाक के तीन पात" क्यूँ सही किया ना उपयोग?

अब बतलाता हूँ कि ये मुझे कैसे समझ आयाअसल में पिछले दिनों (सोमवार 14 /02 /2011 ) को हमारी टोली कानपुर देहात जिसका नाम बदलकर अब रमाबाई नगर कर दिया है, के एक गाँव में गयी थीहमारी टोली में थे हम पांच; कबीर, दीनदयाल, राहुल भाई, मनाली दीदी और मैं और गाँव का नाम था ढ़ाकनपूरवाइस गाँव और इसके आस पास के गाँवों में हमारा मंच के कई साथी रहते हैंअजब इत्तेफाक है कि हमारे इन साथियों में से सभी के नामों में एक शब्द समान था; इन साथियों के नाम थे रामकिशन जी, रामबिलाश जी, रामकेश भाई, राजाराम जी और रामशंकर भाईसभी के नाम में राम कुछ तो कारण भी होगा इसके पीछे ?

खैर, ये गाँव आई आई टी से तकरीबन 18-19 किलोमीटर दूर हैवैसे तो हम सभी ही इतनी दूर तक साईकलों से गए हुए हैं, पर उस दिन सोचा कि टेम्पो से चला जाएकारण भी जायज़ था क्यूंकि फिर वहां साथियों के साथ मिल बैठकर बातें भी जो करनी थींसाईकल से जाते तो थक जाते और वक़्त भी कम मिलता फिर साथियों के साथइसीलिए टेम्पो किया जग्गू भाई कातकरीबन 11:15 पर जग्गू भाई अपनी टेम्पो लेकर आई आई टी पहुंचे और हम निकल पड़े बाघपुर की तरफकल्याणपुर क्रोसिंग की चिल्ल-पों से होते हुए हम न्यू शिवली रोड पर गएउस तरफ गाड़ियाँ कम चलती हैं तो शोर भी कम ही थामकसूदाबाद, टिकरा, पांडू नदी इन सबको पीछे छोड़ते हुए हम बाघपुर की तरफ चले जा रहे थेयहीं पर कुछ साथियों से मिलने का कार्यक्रम था जो हमें आगे ढ़ाकनपूरवा की तरफ ले जाने वाले थे

बाघपुर चौकी के सामने हमारी राम-राम हुई रामशंकर भाई और राजाराम जी सेये दोनों साथी बाघपुर और ढ़ाकनपूरवा के बीच पड़ने वाले एक गाँव में रहते हैं और दोनों ही हम लोगों के पहुँचने का इंतज़ार कर रहे थेफिर हमारे साथ ही वो टेम्पो में गए और हम बढ़े ढ़ाकनपूरवा की तरफरास्ता पक्का था, टेम्पो सरपट भागा जा रहा था बिना धूल उड़ाएपूछने पर साथियों ने बतलाया कि कुछ ही दिनों पहले बना है रास्तारास्ते के दोनों और गेहूं और जौ के खेत लहलहा रहा थे और कहीं कहीं बीच में लाही भीवैसे ये बात कि गेहूं और जौ के खेत, जो कि लगभग एक जैसे ही दिखते हैं, मुझे बाद में साथियों से पता चली वरना मैं तो सभी को गेहूं के खेत ही मान बैठा थासाथियों ने बतलाया के गेहूं की ऊपरी परत आसानी से निकल जाती है पर जौ की नहींदेख लीजिये हमारा ज्ञान, रोज़ गेहूं की रोटी खाते हैं पर ये नहीं पता कि उसके जो खेत होते हैं वो दिखते कैसे हैं? पर चाहे आपको फसलों का पता हो या ना हो हरियाली देखकर आँखों का बड़ी ठंडक मिलती है

गाँव पहूंचकर सबसे पहले हम गए साथी रामकेश के घर परयहीं पर मिलना तय हुआ थाभड़भड़ाती हुई हमारी टेम्पो जैसे ही रामकेश भाई के घर के सामने रुकी, साथियों के चेहरे खिल गएरामकेश भाई, रामबिलाश जी और रामकिशन जी, और उनके साथ उनके परिवार और गाँव के अन्य साथी लोग, सभी हमारा इंतज़ार कर रहे थेउस दिन के लिए सभी साथियों ने अपने काम से छुट्टी ले ली थीरामकेश भाई के घर के सामने की तरफ वाले आँगन पर 4-5 खटिया (चारपाई) सजी हुई थींकुछ एक पर उन्होंने हम शहरी लोगों के लिए गद्दे डाल रखे थेबैठते हुए ख़ास जोर दिया गया कि हम उसी पर बैठें

रामकेश भाई का घर गाँव के शुरूआती घरों में से ही है इसीलिए उनके आँगन के दो ओर तो गाँव बसा हुआ है पर बाकि ओर खेत हैंइस समय वही गेहूं ओर जौ केकुछ किसान साथी अपने खेतों में उस समय दवाई और खाद झिड़क रहे थेसाथियों के साथ यहाँ बैठे बैठे हुई बातचीत से कई बातें जानने को मिलींसबसे पहले तो यही कि ढ़ाक नाम का एक पेड़ होता हैवो उस समय पता चला जब एक साथी ने इन पेड़ों के झुरमुट की ओर इशारा करते हुए बतलाया कि उनका खेत उसी के आस पास हैफिर उन्होंने ये भी बतलाया कि इस पेड़ में होली के समय काफी सुन्दर फूल लगते हैंइसके पत्तों से दोने और पत्तल बनायें जाते हैं और फूलों से प्राकर्तिक रन्गइस पेड़ के बारे में उन्होंने जो बतलाया तो मुझे लगा कि शायद मैं भी इस पेड़ को जानता हूँमैं जिस स्कूल में पढता था, वहां सर्दियों के अंत के दिनों में अकसर ही हमारी कक्षाएं ऐसे ही एक पेड़ के नीचे लगती थींउस पेड़ को वहां छूले का पेड़ कहा जाता है इसी पेड़ पर वो सुन्दर फूल लगते हैं जिन्हें हम पलाश या टेसू के फूल कहते हैंचटक नारंगी रंग के ये फूल बहुत ही ज्यादा सुन्दर होते हैंइसी पेड़ के पत्तों के बने दोनों में मेरे कस्बे में चाट खिलाई जाती हैखैर मेरे कस्बे पर और किसी पोस्ट में, फिलहाल ढ़ाकनपूरवा पर वापिस आते हैं

साथियों ने बतलाया कि इस गाँव में तकरीबन 100 परिवार हैं जिनमे से 1 को छोड़कर बाकि सभी कोरी (जुलाहा) कास्ट से आते हैंपिछली पीढ़ी तक तो हमारे साथियों में से कईयों के घरों में हाथ से ही कपड़ा बनाया जाता थाआज भी इनमे से कुछ के घरों में उसके औज़ार रखे हुए हैंबाकि बचा एक परिवार कठारिया कास्ट से है जिनका काम सूअर पालने का हैपर ये जो हमारे साथी हैं ये सभी राजमिस्त्री हैं. आई आई टी की तमाम इमारतें इनके और इन जैसे ही साथियों के गुणी हाथों ने बनाईं हैंउस दिन की हुई बातों के दौरान इनके काम के बारे में जानने को मिला कि कितना बारीक काम होता है एक राजमिस्त्री काआई आई टी में सारी पुरानी इमारतों की दीवारों पर बाहरी प्लास्टर नहीं है जिस कारण ईंटे साफ़ दिखाई देती हैंऐसी दीवारों की चुनाई करना बहुत ही बारीक काम हैहमारे साथियों ने बतलाया कि साथी रामविलास इस काम में माहिर हैंखैर माहिर तो ये साथी और भी कई कामों में हैंसाथ मिलकर आई आई टी प्रशासन की जो खटिया खड़ी की इन लोगों ने वो कहानी भी कभी और बाटूंगाअभी कुछ खाने पीने की बात हो जाए जो पिछले पैराग्राफ में चाट पर छूट गयी थी। :)

हमारी बात-चीत का दौर चल ही रहा था कि रामकेश जी घर के अन्दर से जहाँ इन सभी साथियों कि पत्नियाँ जमा थीं, हाथों में मिठाई और पानी लेकर आयेमिठाई शहरी थीशहरी संस्कृति अपने साथ गाँवों में एक बहुत ही खराब चीज़ ले गई है और वो है पन्नी (polythene)। ये मिठाई भी पन्नी में ही लिपटी हुई थी पर स्वादिष्ट थीऔर उसके थोड़ी देर बाद चाय और चबेना सबने मिल बांटकर खायाचाय और पानी के लिए कोई अलग प्रबंध नहीं, दोनों ही स्टील के गिलासों मेंइस समय तक गाँव के और साथी भी हमारी बीच गए थेश्रीकांत भाई (हमारा मंच के एक और साथी) अपने काम के खाने के समय में हम लोगों से मिलने चले आये थेवो पास ही में शोभन मंदिर के पास बन रही एक ईमारत में काम कर रहे थे

बात-चीत में साथियों ने बतलाया कि उनके गाँव में लाइट अभी 6 महीने पहले आई है और दिन में 5-6 घंटे ही आती है। हमारी ये बात चल ही रही थी कि रामकेश भाई के सामने वाले घर के किसी नवयुवक ने बिजली होने का सुबूत बड़ी ही तेज़ आवाज़ में म्यूजिक प्लेएर पर एक गाना चलाकर दिया

थोड़ी देर बात हम लोगों ने सोचा कि थोड़ा घूम फिर कर गाँव देखा जाए तो हम लोग सभी साथियों के साथ रामकेश भाई के घर से निकलने को हुएइससे पहले कि हम चल पाते, रामकेश भाई गिलासों में फिर कुछ लेकर चले आयेइस बार उनमें दूध था और ये खालिस गाँव का था इसीलिए मैंने तो शर्म को एक किनारे रखते हुए उसे गटक लियाबढ़िया था

हम आगे बढ़े गाँव का चक्कर लगाने के लिए तो सबसे पहले घर पड़ा रामकिशन भाई कारामकिशन भाई अपने आप में एक अनोखे ही व्यक्ति हैंमैं उनके साथ ही आगे आगे चल रहा थाअपने घर के सामने पहूंचकर उन्होंने मुझसे पूछा कि "मेरे एक दोस्त से मिलोगे?" मैंने कहा कि "हाँ, मिलवाइए"। मुझे लगा कि शायद कोई छोटा बच्चा होगा या किसी जानवर से मिलवाएंगेपर मैं अचरज़ में पड़ गया जब वो मुझे अपने घर के अन्दर ले गएउनके घर के एक कमरे के बीचों-बींच एक आदम कद सीमेंट की प्रतिमा खड़ी हुई थीउन्होंने बतलाया के वो उन्होंने कुछ सालों पहले अपने हाथों से बनाई हैअजीब लगा मुझे, एक घर के छोटे से कमरे और चलते-फिरते इंसानों के बीचों-बींच उस बुत का खड़ा होनापर वो दोस्त था रामकिशन भाई काहमारी टोली के दूसरे साथी भी रामकिशन भाई के दोस्त को देखने अन्दर गए

वहां से निकले तो गाँव का एक चक्कर काटकर रामबिलाश भाई के घर की तरफ आयेउनका घर मिट्टी से बना हुआ है और पिछले 100 सालों से खड़ा हुआ हैसाथियों ने बतलाया कि गर्मी के दिनों में मिट्टी के कमरों से अच्छा कुछ भी नहीं

रामबिलाश भाई के घर से आगे बढ़े तो साथियों ने बतलाया कि शोभन मंदिर के महंत एक बहुत बड़ा तालाब बनवा रहे हैं और फिलहाल यहाँ के खेतों के लिए कुछ पानी वहां से भी मिल जाता हैहम लोगों ने तय किया कि वो तालाब देखा जाएगाँव से तकरीबन 500 -700 मीटर दूर उस तालाब की तरफ जाने वाली पगडण्डी हम लोगों ने पकड़ लीरास्ते में साथियों ने बतलाया कि शोभन सरकार (शोभन मंदिर के महंत) का आस पास की बहुत बड़ी ज़मीन पर कब्ज़ा है और ये बढ़ता ही जा रहा हैहाल ही में तालाब बनवाने के लिए ढ़ाकनपूरवा के पड़ोसी गाँव की कितनी ही ज़मीन ले ली गई हैसाथियों ने ये भी बतलाया कि आई आई टी से आने वाले भक्तों की बाबा जी बड़ी पूछ करते हैं और आस पास के गाँव के लोगों को तो पास भटकने भी नहीं देतेखैर जो भी हो, तालाब देखकर तो मुझे बड़ी चिंता हुईक्यूंकि उसे पांडू नदी (जो टिकरा के बाद रास्ते में पड़ी थी ) से पानी खींच-खींचकर भरा जा रहा थावैसे ही उत्तर भारत में आने वाले सालों में पानी का संकट गहराने वाला है, और पानी एक बहुमूल्य वस्तु बनने वाला है, ऐसे में सामूहिक जल भण्डार पर किसी एक ब्यक्ति या संस्था विशेष का कब्ज़ा होना चिंताजनक बात है हीइन सबके बावजूद गाँव के कुछ साथी जोर दे रहे थे कि हम बाबा जी के दर्शन कर लें पर हम लोग वापिस गए

समय भी काफी हो चुका था शाम ढ़लने वाली थीसाथियों से विदा लेकर हम ढ़ाकनपूरवा से निकल पड़ेबाघपुर तक हमे साथी रामकेश, राजाराम जी, उनकी पत्नी सावित्री और रामशंकर भाई छोड़ने आयेबीच में हम राजाराम जी के घर पर भी गएवहां उनके परिवार से मुलाक़ात हुई और हमें एक कटोरी दहीं खाने को मिला

जग्गू भाई तो बस हमें छोड़ने आये थे इसीलिए बाघपुर से सवारी गाड़ी पकडनी थी, जिसके लिए काफी मशक्कत करनी पड़ीअंत में जिस टेम्पो में हम लौटे, अमूमन उसमे 10 लोग बैठते हैं, पर उस दिन उसमें कई लोग सवार थे, 4 आगे, और पीछे कितने और कैसे बैठे थे मैं ये नहीं बता सकता, क्यूंकि समझ में नहीं रहा था कि कौन, कहाँ और कैसे बैठा या खड़ा है। मैं और दीनदयाल आगे बैठे हुए थे ड्राईवर के बगल में और राहुल, मनाली, कबीर पीछेउतरकर उन लोगों ने बतलाया कि पीछे 16 लोग थे जिसमें से 5 बाहर लटके हुए थे

सच में इस टेम्पो की तरह ही कितने कम में जीतें हैं, गाँव के हमारे ये साथीचाय, पानी, दूध सभी के लिए एक ही बर्तन, स्टील का गिलास, 2-3 कमरों का घर वो भी कच्चा, हर घर में 9-10 लोग, फर्नीचर के नाम पर चारपाई या तखत, गाड़ी के नाम पर साईकल

सोचता हूँ उस ट्रिप के बारे में तो एक दोहा याद आता है निदा फ़ाज़ली साहब का

छोटा करके देखिये, जीवन का विस्तार
आँखों भर आकाश है, बाँहों भर संसार